31 मई, 2009

16. कालड़ी के भट्टतिरी - 1


(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

कालड़ी के भट्टतिरी का घराना कुमारनल्लूर ग्राम के अंतर्गत नेट्टश्शेरी नामक स्थान पर है। इस घराने के लोगों को तंत्रविद्या में प्रवीणता प्राप्त थी और उन्हें गणपति प्रत्यक्षदर्शन देते थे। यह सब तो प्रसिद्ध ही है। गणपति उन्हें कैसे प्रत्यक्ष होने लगे, इसी की कहानी यहां संक्षिप्त में देता हूं।

एक बार इस घराने का एक भट्टतिरी और दूसरा एक नंबूरी जो इस भट्टतिरी का मित्र था, तृश्शिवपेरूर का उत्सव देखने चल पड़े। जब वे इरिञ्यालक्कुडा के समीप पहुंचे तब तक दिन काफी बीत चुका था। इसलिए वे एक घर में गए और भोजन करके सायंकालीन संध्यावंदन आदि पूरा किया और तत्पश्चात वहां से चल पड़े। जब वे यक्षीप्परंबु नामक स्थान के निकट पहुंचे तो उन्होंने दो सर्वांगसुंदरी स्त्रियों को रास्ते में खड़े देखा। जब वे दोनों इनके निकट पहुंचे, तो वे स्त्रियां उनसे इस प्रकार बोलीं, "इतनी देर गए आप दोनों महानुभव किधर जा रहे हैं?" भट्टतिरी ने कहा, "हम दोनों उत्सव देखने जा रहे हैं।" तब स्त्रियों ने कहा, "यहां से यक्षीप्परंबु शुरू होता है। रात होनेवाली है और सूरज डूबने के बाद कोई भी मनुष्य इस इलाके में से गुजरने का दुस्साहस नहीं करता। आपने तो सुना ही होगा कि यहां अनेक अनिष्ट घटनाएं घट चुकी हैं। इसलिए आप दोनों इस समय इस खतरनाक स्थान में न जाएं। कल सुबह ही आपको आगे की यात्रा पर निकलना चाहिए। यही हमारी विनम्र सलाह है।" नंबूरी बोला, "हम दोनों इस इलाके में नए-नए आए हैं। आज अगर हमें यहीं रहना है तो रात बिताने की सुविधा कहां मिल सकती है? क्या यहां पास ही कहीं किसी शूद्रादि का घर है?" तब स्त्रियों ने कहा, "हम दोनों को आप अपनी दासी ही समझें। हमारा निवास यहां से नजदीक ही है। यदि आपको उचित लगे तो रात वहीं बिताएं।"

इस प्रकार उन स्त्रियों के साथ कुछ देर बात करने के पश्चात उन दोनों ब्राह्मणों को लगा कि इस समय इस प्रदेश में यात्रा करना अनावश्यक ही खतरा मोल लेना होगा। उन सुंदर स्त्रियों के साथ रात बिताने का लोभ भी वे संवरण नहीं कर सके। इसलिए उन्होंने स्त्रियों के साथ जाने का निश्चय किया। इसके बाद वे चारों वहां से चल पड़े। कुछ ही समय में एक बहुत बड़ा महल दिखाई दिया। स्त्रियां दोनों ब्राह्मणों को उसके अंदर ले गईं। महल में पास-पास स्थित दो बड़े-बड़े कमरे थे। उनमें से एक में भट्टतिरी को और दूसरे में नंबूदिरी को उन स्त्रियों ने लिटाया। दोनों कमरों में एक-एक स्त्री भी घुस गई। भट्टतिरी के कमरे में घुसी स्त्री ने जैसे ही उसे छुआ, वह मूर्छित हो गया। तुरंत उस स्त्री ने उसे खाना शुरू कर दिया। चूंकि नंबूरी रोजाना देवीमाहात्म्य का पारायण करता था, इसलिए उसके हाथ में वह ग्रंथ था। नंबूरी उसे सिरहाने रखकर ही रोज सोता था। उस रात भी उसने उस ग्रंथ को सिर के नीचे रख लिया था। इसलिए उसके पास जाकर उस स्त्री ने कहा, "इस ग्रंथ को पलंग के नीचे कहीं रखें, इसे सिर के नीचे रखने से आपको अच्छी नींद नहीं आएगी।" तब नंबूरी ने कहा, "इसे नीचे नहीं रखा जा सकता। इसे सिरहाने रखकर सोने की मेरी पुरानी आदत है।" लेकिन उस स्त्री ने नंबूरी से फिर जोर देकर कहा कि वह ग्रंथ को नीचे रखें। पर नंबूरी सहमत नहीं हुआ। तब तक दूसरे कमरे से भट्टतिरी की हड्डियों के चटकने और उस स्त्री के रक्तपान करने की आवाजें नंबूरी के कमरे में सुनाई देने लगी थीं। इससे नंबूरी का भयभीत होना स्वाभाविक ही था और उसके मन में अनेक प्रकार की शंकाएं कुलबुलाने लगीं। लेटे-लेटे ही उसने भट्टदिरी को पुकारा। तब तक उस स्त्री ने भट्टदिरी को तीन-चौथाई खा लिया था। इसलिए जवाब कौन देता? भट्टदिरी से जवाब न मिलने से और उस स्त्री द्वारा ग्रंथ को नीचे रखने के लिए बार-बार कहने से नंबूरी समझ गया कि सब मिलाकर स्थिति काफी विषम है और यह भी कि ये दोनों स्त्रियां साधारण मनुष्य-स्त्रियां नहीं हैं। नंबूरी बहुत ही डर गया। दोनों हाथों से ग्रंथ को मजबूती से पकड़कर वह लेटा रहा। उसे जरा भी नींद नहीं आई, यह कहना तो आवश्यक ही नहीं है। रात के अंतिम पहर तक वह स्त्री उसके पास बैठी रही। फिर वह बाहर चली गई। नंबूरी थका-हारा उस पलंग पर लेटा रहा।

जब सुबह हुई तब वहां न महल था न वे स्त्रियां। नंबूरी ने पाया कि वह एक बहुत बड़े ताड़ वृक्ष के ऊपर बैठा है।

बड़ी मुश्किल से वह उस पर से नीचे उतरा। तब उसने देखा कि उसके पास वाले वृक्ष के नीचे भट्टतिरी के नाखून और शिखा पड़े हुए हैं। नंबूरी समझ गया कि दोनों स्त्रियां वास्तव में नरभक्षी यक्षियां थीं और उन्होंने अपने मायाबल से ताड़ वृक्षों को महल का आभास दे दिया था और दूसरी यक्षी ने भट्टतिरी को खा लिया है। उसके पास देवीमाहात्म्य का ग्रंथ होने से वह बच गया। उत्सव जाने की बात सब भूलकर वह तुरंत घर की ओर लौट पड़ा।

उस दिन जिस भट्टतिरी का दुखद अंत हुआ था, उसके सिवा उसके घर में और कोई पुरुष नहीं था। दिवंगत भट्टतिरी की पत्नी उन दिनों गर्भवती थी। नंबूरी ने जाकर भट्टतिरी की मृत्यु की शोकवार्ता भट्टतिरी की पत्नी से कही। उसे सुनकर विधवा हुई उस अभागी स्त्री को अत्यंत शोक हुआ। उस पतिव्रता ने अपने पति का अंतिम संस्कार सब विधिवत कराया। कुछ समय बाद उस स्त्री को एक अत्यंत तेजस्वी पुत्र पैदा हुआ। स्त्री ने बालक का जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, उपनयन, समावर्तन आदि सब यथासमय उचित ढंग से किया। उसे भली प्रकार से विद्याभ्यास, वेदाध्ययन आदि सब कराया। अत्यंत बुद्धिशाली वह बालक सोलह साल की उम्र में ही वेदवेदांतपारंगत और सभी शास्त्रपुराणों का ज्ञाता हो गया।

(... जारी)

30 मई, 2009

15. मंगलप्पिल्लि मूत्ततु और पुन्नयी का पणिक्कर - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)


15. मंगलप्पिल्लि मूत्ततु और पुन्नयी का पणिक्कर - 1

इसके बाद यह सोचकर कि मुझे एक बार फिर विवाह करना होगा, पोट्टि योग्य कन्याओं की जन्मपत्रियां इकट्ठी करने लगा। इस बार मूत्ततु से इन जन्मपत्रियों को जंचवाकर और उनसे ही अपने लिए योग्य कन्या का चयन करवाकर शादी करने का निश्चय करके पोट्टि सभी जन्मपत्रियां लेकर आरन्मुल में मूत्ततु के घर पहुंच गया। तब मूत्ततु देवदर्शन करने मंदिर गया हुआ था। जब वह लौटा तो पोट्टि को जन्मपत्रियों की पोटली लिए वहां विराजमान देखकर उससे पूछा, "क्यों जनाब, सब मेरे कहे अनुसार घटा कि नहीं? अब एक विवाह और करना है, क्यों?" तब पोट्टि ने कहा, "सब आपके कहे अनुसार ही घटा। अब आगे क्या करूं, यह भी आप ही बताएं। दस-बीस कन्याओं की जन्मपत्रियां मैं यहां ले आया हूं। भोजन करके उन्हें सब जरा देखकर उनमें से कोई उपयुक्त हो तो बताएं।" तुरंत मूत्ततु ने कहा, "मेरे देखने-सोचने लायक कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी मन में आता है, वही कह देता हूं। ईश्वरानुग्रह से और गुरु की कृपा से मेरे अधिकांश वचन सही सिद्ध होते हैं। इसलिए आपकी समस्या मैं अभी हल किए देता हूं। जन्मपत्रियों की उस पोटली में ऊपर की दो को हटाकर तीसरी पत्री निकालें। वह कार्तिक नक्षत्र में पैदा हुई एक कन्या की होगी। वह आपके लिए अनुरूप कन्या है। जाकर उससे विवाह कर लें। कोई भी दोष नहीं होगा। इस पत्नी से आपके दो बेटे और एक बेटी होंगे। चौथा गर्भ टिकेगा नहीं। इसके बाद वह प्रसव नहीं करेगी। इससे अधिक जानने में आपको इस समय रुचि भी नहीं होगी। अब आप चाहें तो जा सकते हैं। बैठना चाहें, तो यहां बैठ जाएं। मैं जाकर जल्दी खाना खा आता हूं।" पोट्टि वहां नहीं रुका, उसी समय प्रसन्न मन से चला गया। मूत्ततु भी भोजन करने घर के अंदर चला गया।

पोट्टि ने जाकर उसी कन्या से विवाह किया जिसे मूत्ततु ने उसके लिए उपयुक्त बताया था। उस स्त्री से उसके दो बेटे और एक बेटी हुई। चौथा गर्भ गिर गया। यह सब होने पर पोट्टि को मूत्ततु के प्रति अतुलनीय श्रद्धा हुई। वह बहुत-सा धोती-साड़ी-धन आदि लेकर सपरिवार आरन्मुलै मूत्ततु के घर गया। उसी दिन उसने बच्चों को मंदिर ले जाकर देवदर्शन कराया और स्वयं भी देवता की आराधना करके मंदिर की सभी रस्में पूरी कीं। अगले दिन अपने घर मूत्ततु के सम्मान में एक शानदार भोज दिया और मूत्ततु के घर के आबालवृद्ध सभी को नए वस्त्रादि दान देकर संतुष्ट किया।

इस प्रकार के महान "दूतलक्षणज्ञ" पहले के जमाने में केरल में बहुतेरे होते थे। आज स्थिति यह है कि ऐसे लोगों की चर्चा भी सुनाई नहीं पड़ती। दूतलक्षणज्ञों का माहात्म्य कितना प्रबल है, यह उपर्युक्त लोक-कथाओं से ही स्पष्ट है। दूतलक्षणज्ञों को लक्षण बताने के लिए पटरा-कौड़ी आदि की जरूरत नहीं होती। वे आनेवाले व्यक्ति (दूत) के शब्दों, भावों, चेष्टाओं और समय के आधार पर ही फल बता देते हैं। इसलिए दूतलक्षण एक अत्यंत विस्मयकारी एवं सुविधाजनक विद्या है।

कुमारनल्लूर के पास नेट्टाश्शेरी नामक स्थल पर पुन्नयिल नामक एक शूद्रघर है। उस घर में एक महाविद्वान और सुप्रसिद्ध ज्योतिषी कुछ समय पहले हुआ था। इस घराने को चूंकि पणिक्करी (मिस्त्री) का काम मिला था, इसलिए उसके पुरुष पणिक्कर कहलाते थे। इसलिए हमारे कथानायक और ज्योतिषी को लोग पुन्नयिल पणिक्कर ही कहते थे। कुमारनेल्लूर ग्राम का एक नंबूरी अपने पुत्र का जनेऊ करने के लिए योग्य मूहूर्त जानने हेतु बहुत से ज्योतिषों के पास गया, लेकिन कोई भी मुहूर्त नहीं बता सका। उस समय तेक्कुमकूर में सम्मिलित अनेक सामंत, वट्टप्पिल्लि शंकुमूत्ततु आदि अनेक प्रसिद्ध ज्योतिषी उसी प्रदेश में मौजूद थे। इन सबने देखकर यही कहा कि इस वर्ष इस बालक का उपनयन करने के लायक कोई मुहूर्त नहीं है। लेकिन बालक के उपनयन का समय हो जाने से वह नंबूरी पुन्नयिल पणिक्कर के पास गया और बोला कि लड़के के उपनयन के लिए किसी प्रकार एक मुहूर्त निकाल दें। पणिक्कर ने तुरंत एक मुहूर्त बता दिया और एक पर्ची लिखकर दे दी। नंबूरी वह पर्ची लेकर तेक्कुमकूर के सामंतों के पास गया और बोला, "आप सबने यही कहा था न कि मुहूर्त ही नहीं है, लेकिन पुन्नयिल पणिक्कर ने एक मुहूर्त निकालकर दे दिया है।" यह सुनने पर उन सबने कहा, "अच्छा, जरा वह पर्ची तो देखें।" नंबूरी ने पणिक्कर की दी हुई पर्ची उनको दे दी। उसे पढ़कर उन सबको विदित हुआ कि मुहूर्त लड़के की अष्टमी राशि के समय का है। तब सामंतों ने किसी को भेजकर पणिक्कर को वहां बुलवाया। चूंकि पणिक्कर ने उस प्रदेश के सभी ज्योतिषों को किसी न किसी अवसर पर पछाड़ा था, इसलिए सब पणिक्कर के प्रति ईर्ष्यालु थे। उन सबने सोचा कि पणिक्कर से बदला लेने और उसे नीचा दिखाने का यह एक सुअवसर है, और वे सब भी वहां आ गए। सबके आने के बाद पणिक्कर भी वहां पहुचा। तब सबने उससे पूछा, "अष्टमी राशि के समय उपनयन किया जा सकता है, इसका क्या प्रमाण है?" तब पणिक्कर ने कहा, "अष्टमी राशि के समय उपनयन नहीं होना चाहिए यही शास्त्र कहता है। लेकिन इस बालक का इसी समय उपनयन न करने से दूसरी परेशानियां आने की संभावना है। इस साल उपनयन के लिए इसके सिवा और कोई मुहूर्त न होने से मैंने इसी मुहूर्त की पर्ची बनाकर दे दी।" तब दूसरों ने कहा, "इस बालक को इसी वर्ष जनेऊ न पहनाने से क्या परेशानी हो सकती है?" तब पणिक्कर ने कहा, "अगले साल बालक की मां का देहांत हो जाएगा और वह साल शोकावधि में निकल जाएगा। इसके बाद वाले साल इसके पिता गुजर जाएंगे। इसलिए उस साल भी उपनयन नहीं हो सकेगा। शोकावधि में उपनयन वर्जित है। इस प्रकार से तीन साल बीत जाने पर बालक की आयु इतनी अधिक हो चुकी होगी कि उपनयन का समय ही उसके लिए निकल चुका होगा। ठीक समय पर उपनयन न करने से उसका ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाएगा। इससे कहीं अच्छा है अष्टमी राशि के समय इसका उपनयन कर दिया जाए।" यह सुनकर सबने कहा, "यदि ऐसी बात है तो इसी मुहूर्त पर इसका उपनयन कर देना चाहिए।" और उसी मुहूर्त में उस बालक का उपनयन हुआ। पणिक्कर के कहे अनुसार अगले दो साल में वह बालक अनाथ हो गया। यह देखकर बाकी ज्योतिषियों के मन में पणिक्कर के प्रति जो स्पर्धा और ईर्ष्या भाव था वह असीम आदरभाव में बदल गया।

(समाप्त। अब नई कहानी)

29 मई, 2009

15. मंगलप्पिल्लि मूत्ततु और पुन्नयी का पणिक्कर - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

तिरुवितांकूर में तिरुवल्ला तालुके के आरन्मुलै मंगलप्पिल्ली नामक घराने में पुराने जमाने में मूत्ततु नाम का ज्योतिषशास्त्र-निष्णात पंडित हुआ था। वह कुट्टंपेरूर नालेकाट्टु में आज विद्यमान शंकरनारायण का पितामह था और प्रसिद्ध ज्योतिषी संप्रतिपिल्ला उसका सहपाठी और एक अंतरंग मित्र था। एक बार जब मूत्ततु कहीं जा रहा था तब यह सोचकर कि अपने मित्र से भी मिलता चलूं वह नालेकाट्टु गया। तब एक पोट्टि (ब्राह्मणों की एक जाति का व्यक्ति) अपना विवाह करने का निश्चय करके कई लड़कियों की जन्मपत्रियां तथा स्वयं अपनी जन्मपत्री लेकर संप्रति के पास इस उद्देश्य से आया हुआ था कि अपने लिए ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से सुमेल कन्या का चयन हो सके। जब मूत्ततु घर में प्रविष्ट हुआ तो संप्रतिपिल्लै ने उसका ससम्मान स्वागत किया और उसे अपने पास बैठाया और दोनों थोड़ी देर परस्पर कुशलक्षेम पूछते रहे। उसके बाद संप्रतिपिल्लै ने पोट्टि की ओर इशारा करके कहा, "ये विवाह करने की इच्छा रखते हैं और जन्मपत्रियां मिलवाने के लिए आए हैं। इनके पास ढेर सारी कन्याओं की जन्मपत्रियां हैं। यदि मुझे अकेले उन सबको परखना पड़े तो बहुत दिनों का समय लग जाएगा। यदि आप थोड़ी मदद कर दें तो काम चुटकियों में पूरा हो जाएगा। इसलिए उन जन्मपत्रियों को जरा देखकर उनमें से सबसे उपयुक्त जन्मपत्री चुनकर इन्हें विदा कर सकें, तो मुझे बड़ी सहायता होगी और हम दोनों भी मुक्त मन से बातचीत कर सकेंगे।"

यह सुनकर मूत्ततु ने तुरंत कहा, "हां-हां, क्यों नहीं, यह काम मैं अभी किए देता हूं।" और पोट्टि से सभी जन्मपत्रियां लीं और उनमें से एक को निकालकर जरा उलट-पलटकर देखकर कहा, "यह नहीं चलेगी"। इसके बाद उसने कई अन्य जन्मपत्रियों को भी एक-एक करके अस्वीकार किया और अंत में एक जन्मपत्री हाथ में लेकर बोला, "इसे शास्त्रीय ढंग से परखा जाए तो यह इनकी जन्मपत्री के साथ अच्छी तरह मिल जाएगी। लेकिन यह लड़की विवाह के लिए इन्हें नहीं मिल पाएगी, बस यही एक दोष है इसमें।" मूत्ततु के ये शब्द सुनकर पोट्टि ने देखा कि वह जन्मपत्री किस लड़की की है और तब कहा, "जन्मपत्री मेल खा जाए तो इस लड़की को प्राप्त करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होगी। इसके घराने और मेरे घराने के बीच बहुत पुराने समय से ही अच्छे संबंध हैं।" तुरंत मूत्ततु ने कहा, "आप कोशिश करके देख लीजिए। अंत में मेरे कहे अनुसार ही सब होगा। आपका विवाह एक दूसरी कन्या से होगा। लेकिन उससे भी कोई फल नहीं निकलेगा। वह स्त्री संतान जनने से पहले ही मर जाएगी। संतान-प्राप्ति के लिए आपको एक और शादी करनी पड़ेगी।" यह सब सुनकर पोट्टि को बिलकुल विश्वास नहीं हुआ और उसने कहा, "मैं जरा आजमाकर देखता हूं" और वह सभी जन्मपत्रियों को लेकर चला गया। संप्रति पिल्लै के साथ कुछ देर वार्तालाप करने के पश्चात मूत्ततु भी वहां से चला गया।

पोट्टि ने मूत्ततु द्वारा अपने लिए चुनी गई लड़की के यहां जाकर वहां के बड़े-बूढ़ों पर अपनी इच्छा प्रकट की। वे उस कन्या का विवाह उससे करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक राजी हो गए। तत्पश्चात कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों की मध्यस्थता में स्त्रीधन में दिए जानेवाले सामान आदि की चर्चा हुई और शादी का मुहूर्त निश्चित किया गया। लड़की के घर में शादी की सभी तैयारियां आरंभ हो गईं और पुरोहितों को बुलाया गया और मित्रों व नातेदारों को निमंत्रण भेजे गए। मुहूर्त के समय सभी लोग कन्या के घर एकत्र हुए। दूल्हा भी सज-धजकर और शादी के पूर्व की रस्में पूरी करके वहां आ पहुंचा। तब वहां एकत्र हुए लोगों में किसी बात को लेकर झगड़ा छिड़ गया और वह इतना बढ़ा कि सभी पोट्टी लोग दो पक्षों में बंट गए। अंत में एक पक्ष के लोगों ने कहा, "इस व्यक्ति को यदि आप कन्यादान करेंगे, तो हम सब आपके यहां कभी कदम नहीं रखेंगे।" दूसरे पक्ष ने कहा, "यदि इसे कन्यादान नहीं करेंगे तो हम आपको किसी भी सामाजिक कार्य में सम्मिलित नहीं करेंगे।" कन्या के पिता के लिए किसी भी पक्ष का समर्थन करना संभव न होने से वह बहुत कठिन स्थिति में पड़ गया। दोनों पक्षों में उसके निकट के रिश्तेदार, प्रभावशाली व्यक्ति और योग्य पुरुष थे। इसलिए किसी भी पक्ष की उपेक्षा करने की हिम्मत उसकी नहीं हुई। अंत में उसने यही तय किया कि जो पक्ष बहुमत में हो, उसी की बात मानूंगा और कहा, "आप ही कोई उपाय सुझाएं।" यह सुनकर एक पोट्टी ने तुरंत कहा,"इसके बारे में आप कुछ भी चिंता न करें। आपकी कन्या से मैं इसी समय विवाह कर लेता हूं। मुझे स्त्रीधन के रूप में एक पैसा भी नहीं चाहिए। लेकिन इसे अपनी बेटी हरगिज न दें। यदि आप सहमत हैं तो कहिए, मैं अभी स्नानादि करके आता हूं"। दूसरा कोई उपाय न देखकर कन्या के पिता को सहमत होना पड़ा। वह पोट्टी स्नान करके आया और कन्या के पिता ने अपनी कन्या का विवाह उसके साथ विधिवत कर दिया। तब उस कन्या से विवाह करने पहले आए पोट्टि की स्थिति रुक्मिणी-स्वयंवर में शिशुपाल की-सी हो गई। यह देखकर विरोधी पक्ष के एक पोट्टि ने कहा, "आप बिलकुल परेशान न हों। मैं आपकी शादी कराऊंगा। मेरे साथ आइए। मैंने अपनी बेटी आपको देने का निश्चय कर लिया है। यहां जो स्त्रीधन तय हुआ है, उससे दुगुना स्त्रीधन भी मैं दूंगा।" पहले वाला पोट्टि इसके लिए तैयार हो गया। तब उस पक्ष के सभी पोट्टि वहां से चलकर दूसरे पोट्टि के यहां गए। इस प्रकार उसी मुहूर्त में दो-दो विवाह संपन्न हुए। यह सब मंगलपिल्लै मूत्ततु की भविष्यवाणी के अनुसार ही हुआ, लेकिन उस समय हठ और दुराग्रह का बाजार गरम होने से पोट्टी का ध्यान इस ओर नहीं गया। शादी होने के बाद ही उसे नालेकाट्टु में मूत्ततु की बातें याद आईं और उसने मूत्ततू को मन ही मन आदरपूर्वक प्रणाम किया। उसके मन में यह जिज्ञासा भी हुई कि क्या मूत्ततु की कही बाकी बातें भी सच निकलेंगी? छह ही महीने में उस पोट्टि की पत्नी मर गई और तब मूत्ततु की बातों को शत प्रतिशत सही हुआ देखकर पोट्टि के मन में मूत्ततु पर अनन्य श्रद्धा हो गई।

(... जारी)

28 मई, 2009

14. पांडंपरंपु की कोडनभरणी का अचार - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

तब तक वह चीनी व्यापारी दूसरे एक जहाज में सामान चढ़ाकर भारत की ओर फिर चल पड़ा और केरल के तट पर पहुंचा। उसका दुबारा आगमन पहले के जहाज के दुर्घटनाग्रस्त होने के बारह वर्ष बाद हुआ था। तट पर उतरकर वह उस मकान को तलाशने लगा जहां उसने वे दस मर्तबान रखवाए थे। जब वह उस स्थल पर पहुंचा तो पहले के टूटे-फूटे मकान के स्थान पर एक विशाल प्रासाद देखकर दंग रह गया। उसके मन में तरह-तरह के संदेह उठने लगे। आस-पास के लोगों से पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि भट्टतिरी का घर यही है और यह प्रासाद उसने हाल ही में बनवाया है। खजाना उसके हाथ लगा था, जिससे उसकी गरीबी दूर हो गई और अब उसके पास अकूत संपत्ति है। यह सब सुनकर चीनी व्यापारी सोचने लगा, "खजाने-वजाने की बात सब कोरी कल्पना है, यह सब मेरे मर्तबानों में रखी अशरफियों से ही संभव हुआ है। ऐसी हालत में मेरी पूंजी वापस मिलने की संभावना शून्य लगती है। फिर भी भट्टतिरी से एक बार मिलकर पूछना चाहिए। उसे देना है तो दे, नहीं तो जाने दो।" यह सोचकर भट्टतिरी के महल के सामने खड़े होकर उसने ऊंचे स्वर में आवाज लगाई, "यहां का मालिक घर पर है?" उस समय भट्टतिरी महल के भीतर बैठा था। व्यापारी की आवाज तुरंत पहचानकर वह नीचे उतर आया। व्यापारी को सम्मानपूर्वक भीतर ले जाकर कुर्सी पर बैठाया और उससे कुशलक्षेम पूछी। फिर उसे तथा उसके साथ आए लोगों को उम्दा किस्म का भोजन कराके भट्टतिरी ने व्यापारी से कहा, "मैंने आपकी अनुमति के बिना आपके द्वारा मेरे यहां रखी गई पूंजी में से थोड़ी पूंजी निकालकर खर्च की थी। वैसा मुझे दारिद्र्य के क्लेशों के वशीभूत होकर ही करना पड़ा। फिर भी मैं स्वीकार करता हूं कि मेरा यह काम बिलकुल न्यायविरुद्ध है। मेरे इस अपराध को आप कृपा करके क्षमा करें। इस समय आपकी सारी पूंजी सूद समेत यहां तैयार रखी है।" इतना कहकर भट्टतिरी ने व्यापारी के दसों मर्तबान और उनके साथ दसों छोटे मर्तबान तहखाने से निकलवाकर व्यापारी के सामने रखवा दिए। तब व्यापारी ने कहा, "मैंने यहां केवल दस मर्तबान रखे थे। छोटे मर्तबान मेरे नहीं हैं। इन्हें भी आपने यहां क्यों रखवाया है?

भट्टतिरी- आपके यह पूंजी मेरे हवाले किए बारह बरस हो गए हैं। इसलिए मूल पूंजी का आधा सूद के रूप में बनता है।

व्यापारी- सुरक्षित रखने के लिए मैंने जो वस्तु आपको दी थी, उसकी रक्षा करने के एवज में मुझे ही आपको कुछ देना चाहिए। उसके बदले आपसे कुछ लेना बिलकुल अनुचित होगा। इसलिए सूद की रकम मैं नहीं ले सकता।

भट्टतिरी- आज मुझे हर साल सब खर्चे के बाद दस हजार रुपयों से ज्यादा की बचत होती है। यह सब तथा यह आलीशान भवन और मेरा सर्वस्व ही आपकी पूंजी से ही मुझे मिला है। आपकी अनुमति के बिना आपकी चीज पर हाथ डालने के अपराध के प्रायश्चित्त के रूप में ही सही, आपको ये छोटे मर्तबान अर्पित करना मेरा फर्ज बनता है। इन्हें कृपा करके स्वीकार कर लें। नहीं तो मुझे बहुत बुरा लगेगा।

व्यापारी- मैंने जो दस मर्तबान यहां रखे थे, वे सब सही-सलामत यहां मौजूद हैं। इसलिए मुझे किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ है। आपने जो संपत्ति कमाई है, वह सब आपके उत्साह, सामर्थ्य और देवानुग्रह का फल है। इसलिए उस पर मेरा कोई हक नहीं बनता। यदि मैं उसमें से एक पैसा भर भी लूं तो दैवकोप से मेरा सर्वनाश हो जाएगा।

इस प्रकार उन दोनों में बहस होती रही। अंत में भट्टतिरी को छोटे मर्तबान वापस लेने पड़े और उसने उन्हें अंदर तहखाने में रखवा दिया। इसके बाद दोनों बैठकर पान खाया फिर चीनी व्यापारी ने अपने दस मर्तबानों में से एक मर्तबान भट्टतिरी को दे दिया। इसे लेने में भी भट्टतिरी ने बहुत आनाकानी की, लेकिन जब व्यापारी ने प्रेमपूर्वक उसे बाध्य किया तो उसे वह भेंट स्वीकार करनी पड़ी। यही वह 'कोडन भरणी' है। उसका मुंह थोड़ा टेढ़ा होने के ही कारण उसे कोडन भरणी कहते हैं। (मलयालम में 'कोडन' का अर्थ होता है खोट वाला)।

जब भट्टतिरी ने वह मर्तबान स्वीकार कर लिया, तब व्यापारी ने कहा, "हे महाब्राह्मण! इस मर्तबान में थोड़ा खोट होते हुए भी यह अत्यंत ऐश्वर्यपूर्ण और विशेष गुणों से संपन्न है। यह जहां रहता है, वहां गरीबी का नामोनिशान भी नहीं रह पाता। इसमें आम का अचार डालने पर उसका स्वाद अमृत तुल्य हो जाता है।" इन शब्दों के साथ चीनी व्यापारी ने भट्टतिरी को सादर प्रणाम किया और बाकी नौ मर्तबान अपने सेवकों से उठवाकर चला गया।

भट्टतिरी ने उस खोटयुक्त मर्तबान 'कोडन भरणी' में रखा धन दूसरे मर्तबान में रखकर उसे तथा दसों छोटे मर्तबान तहखाने में बंद कर दिया। सुना है कि ये मर्तबान आज भी उसी हालत में वहां मौजूद हैं।

इसके बाद वह खोटयुक्त मर्तबान 'कोडन भरणी' में आम का अचार डलवाने लगा। इस मर्तबान में डाला गया अचार चाहे कितने दिन बीत जाएं, हरा का हरा ही बना रहता है और उसका स्वाद इतना गजब का होता है कि बस उसे चखकर ही अनुभव किया जा सकता है, शब्दों में उसका वर्णन संभव नहीं है। उसे अमृततुल्य कहने से भी उसकी पूर्ण व्याख्या नहीं होती। जिसकी पाचन शक्ति पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हो और जो पानी तक को पचा नहीं सकता हो, उसे इस मर्तबान के अचार का एक टुकड़ा खिला दिया जाए तो तीन सेर चावल तो उसी समय खा जाएगा। इस अचार के बारे में मैंने एक कथा सुनी है, जो मैं यहां देता हूं।

कोल्लम संवत के ९७३ वें वर्ष में स्वर्गस्थ हुए महाराजा का जब राज था, तब उन्होंने एक मुरजपम (एक वैदिक यज्ञ) कराया था। इस पूजा में सम्मिलित हुए नंबूरी एक रात को भोजन करते समय परोसे गए व्यंजनों के स्वाद, उनकी संख्या आदि पर चर्चा कर रहे थे। एक नंबूरी ने दूसरे से कहा, "भैया, मजा आ रहा है न? ऐसा देवतुल्य भोजन पहले नहीं किया होगा।" तब दूसरे ने कहा, "सही कहा, बिलकुल सही कहा। लेकिन यदि उस कोडन भरणी का अचार भी होता तो बात ही कुछ और होती। बस यही एक कमी रह गई।" उस समय महाराजा मंदिर में आकर देवदर्शन करके गर्भगृह की प्रदक्षिणा कर रहे थे। नंबूरियों ने उन्हें नहीं देखा लेकिन महाराजा ने उनकी सब बातें सुन लीं।

उसी रात महाराजा ने एक गुप्तचर को भेजकर कोडन भरणी का अचार मंगवाया और अगले दिन रात के भोजन में ही उसे परोसवाया। उस दिन पूजा में नैवेद्य में बहुत प्रकार के आम के अचार बने थे, सो वे सब भी नंबूरियों को परोसे गए। जिस नंबूरी ने पिछली रात कोडन भरणी के अचार के न होने की शिकायत की थी, उसने उसका एक टुकड़ा चखा और तुरंत आह्लादपूर्वक बोल पड़ा, "यह लो! वह कमी भी दूर हो गई। अरे चिरंजीव, तू भी इस पत्तल में शामिल हो गया? वाह! क्या कहने!" तब पास बैठे एक नंबूरी ने कुतूहलवश पूछा, "आप किस चीज की तारीफ कर रहे हैं?" तब पहले वाले नंबूरी ने कहा, "यही इस अचार की। यह साक्षात कोडन भरणी का अचार है।" उस समय भी महाराजा मंदिर में देवदर्शन के लिए आए हुए थे, और उन्होंने यह सब वार्तालाप सुना। महल में लौटने के बाद उन्होंने उस नंबूरी को अपने समक्ष बुलवाया और प्रसन्नतापूर्वक कहा, "वाह! आपके जैसे स्वादपारखी व्यक्ति अति दुर्लभ होते हैं!" और उसे पुरस्कार से सम्मानित करके वहां से भिजवाया।

यही सब है कोडन भरणी और उसके अचार की महिमाएं। उस अचार को एक बार चख लेने पर कोई उसके स्वाद को भूल नहीं सकता। वह मर्तबान आज भी इस भट्टतिरी के घर में मौजूद है। उसमें डाले गए अचार के सभी गुण आज भी देखने में आते हैं।

(समाप्त। अब नई कहानी)

27 मई, 2009

14. पांडंपरंपु की कोडनभरणी का अचार - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

कोडन भरणी यानी खोटवाला मर्तबान के अचार की काफी प्रसिद्धि है। पर उनको जो असाधारण विशेषताएं हैं, उनका कारण क्या है, और वह मर्तबान इस देश में कैसे आया। यह ज्यादा लोग नहीं जानते होंगे। इसलिए इसकी कहानी यहां संक्षेप में कहता हूं।

पांडंपरंपु के भट्टतिरी का घराना ब्रिटिश मलबार में आता है। आज यह घराना काफी समृद्ध है, लेकिन इस घराने को पहले घोर गरीबी का मुंह देखना पड़ा था। तब इस घराने के लोगों के पास रोजी-रोटी का कोई साधन नहीं था और वे बड़े कष्ट में जी रहे थे।

उन्हीं दिनों चीन का एक समुद्री व्यापारी अपने जहाज में कई तरह के कीमती सामान भरकर अपने देश से चला। दैवयोग से बीच रास्ते में उसका जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें रखा सब सामान नष्ट हो गया--सिवा दस मर्तबानों के। जहाज में उसके जो साथी थे, उनमें से अधिकांश समुद्र में डूब गए। कुछ ही लोग छोटी नावों में अथवा तैर कर जीवित किनारे पहुंच पाए। इन खुशकिस्मत लोगों में जहाज का मालिक वह चीनी व्यापारी भी था। किसी प्रकार वह एक नाव में चढ़ गया और उन दस चीनी मर्तबानों को भी इस नाव में लादकर वह किनारे पहुंचा और वहां स्थित एक मकान की ओर चल पड़ा। यह मकान पांडंपरंपु के भट्टतिरी का ही था। उन दिनों वह बहुत ही छोटा व टूटा-फूटा था क्योंकि भट्टतिरी पर घोर दारिद्र्य छाया हुआ था और अपने घर की मरम्मत आदि कराना उसके बूते के बाहर था।

उस खंडहरनुमा घर के सामने पहुंचकर चीनी व्यापारी ने जोर से आवाज लगाई, "भई, कोई है? जरा बाहर आइए।" उस समय गृहपति भट्टतिरी अपनी पत्नी व चार-पांच बच्चों सहित चावल की थोड़ी-सी लपसी खाने की तैयारी में था। वह भोजन के लिए बैठने ही वाला था कि व्यापारी की पुकार सुनकर बाहर आ गया। व्यापारी ने उससे कहा, "मैं चीन का एक व्यापारी हूं। मेरा जहाज समुद्र में डूब गया है। मेरे सभी साथी और सभी सामान नष्ट हो गए हैं। मैंने कई दिनों से कुछ नहीं खाया है। यदि आप मुझे थोड़ा भोजन दे सकें, तो मैं आपका बहुत आभार मानूंगा।"

उस व्यापारी की दुखद कथा सुनकर भट्टतिरी का दिल पसीजा और उसने घर के भीतर जाकर अपने हिस्से की लपसी लाकर व्यापारी को खिला दी। उसे खाने के बाद व्यापारी ने कहा, "आप यह सोचकर बिलकुल दुखी न हों कि आप मुझे केवल यह लपसी ही दे सके। आपकी इस लपसी ने मेरे प्राणों की रक्षा की है। इसका स्वाद मैं उम्र भर नहीं भूलूंगा। इस उपकार का प्रतिकार करने की शक्ति मुझमें इस समय नहीं है। लेकिन स्वदेश जाकर यदि मैं कभी यहां दुबारा आया तब मैं अपनी योग्यतानुसार इसका प्रतिफल चुकाऊंगा। इसके अलावा ईश्वर भी आपको इस सत्कर्म का पर्याप्त प्रतिफल अवश्य देंगे। इस समय आप मुझ पर एक और उपकार कर दें। मेरा सभी सामान नष्ट हो गया, लेकिन ये दस मर्तबान मैं किसी प्रकार से बचा सका हूं। स्वदेश जाकर मेरे लौटने तक कृपया इन्हें अपने यहां सुरक्षित रख लें।" तब भट्टतिरी ने कहा, "यहां जगह की कमी है, फिर भी जो जगह है उसी में मर्तबान भी रख लूंगा। उनमें कोई कीमती चीज तो नहीं है न? मकान की हालत जरा खराब है और कीमती चीजें यहां सुरक्षित नहीं रह सकतीं।"

चीनी व्यापारीः- कीमती चीजें इसमें कुछ नहीं हैं। इन सबमें केवल अरहर की दाल भरी है।

भट्टतिरीः- तब तो ठीक है।

चीनी व्यापारी ने दसों मर्तबान भट्टतिरी के घर रखवा दिए और उनका मुंह बंद करके उन पर अपनी मुहर लगाकर स्वदेश लौट गया।

इसके कुछ समय बाद एक दिन उस घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं बचा। दोपहर होते-होते बच्चों को भूख सहना असंभव हो गया और वे धीरे-धीरे कराहते हुए जमीन पर लोटने लगे। पति-पत्नी भी भूख के कारण और अपने बच्चों की पीड़ा देखकर बहुत ही उदास हो गए। तब पत्नी ने कहा, "उस चीनी व्यापारी के मर्तबानों में अरहर की दाल ही तो भरी है। क्यों न हम एक मर्तबान से थोड़ी दाल निकालकर पकाकर इन बच्चों को खिला दें। इस समय वे कुछ भी खाने को तैयार हैं। भूख से इतने बेहाल हो गए हैं। हम दोनों को कुछ न मिले तो कोई बात नहीं, लेकिन इन अबोध बच्चों को अब कुछ न देना बहुत ही बुरी बात होगी। तीसरा पहर होने को आया है।"

भट्टतिरी- वह सब ठीक है। मुझे भी असहनीय भूख लगी है। तुम्हारी भी यही हालत होगी। फिर भी जो व्यक्ति हम पर विश्वास करके अपनी चीज सुरक्षित रखने के लिए हमारे पास छोड़ गया है, उससे पूछे बगैर उसकी अमानत पर हाथ लगाना क्या ठीक होगा? भले ही मौत आ जाए, लेकिन वचनभंग कभी नहीं करना चाहिए।

पत्नी- इन बच्चों की जान बचाने की खातिर यदि हम थोड़ी दाल निकाल लें, तो इससे हमें कुछ भी पाप नहीं लगेगा। हम यह भी तो कर सकते हैं न कि जितनी दाल हम निकालें उतनी उस व्यापारी के लौटने से पहले वापस रख देंगे। यदि हमने ऐसा नहीं भी किया, तब भी हमारी हालत का पता चल जाने पर उसे कोई एतराज नहीं होगा। आखिर वह भी मनुष्य ही है। भूख का कष्ट उसने भी सहा है।

क्यों कहानी व्यर्थ बढ़ाएं? ऊपर बताए अनुसार बहुत देर तक बहस करने के बाद भट्टतिरी एक मर्तबान खोलकर थोड़ी दाल निकालने को राजी हुआ और उसने मर्तबान पर लगी मुहर तोड़कर उसके मुंह के अंदर हाथ डाला। मर्तबान में रखी वस्तु हाथ में आते ही वह समझ गया कि वहां दाल ही नहीं कुछ और भी वस्तु है। रोशनी में देखने पर उसे पता चला कि वह दाल और अशरफियां हैं। दीपक जलाकर उसकी रोशनी में उसने मर्तबान के अंदर झांककर देखा तो पूरे मर्तबान में अशरफियां थीं, बस ऊपर-ऊपर थोड़ी दाल छितरा दी गई थी। दसों मर्तबान खोलकर देखने पर सबमें यही बात पाई। नौ मर्तबान भट्टतिरी ने पूर्ववत बंद कर दिए, लेकिन दसवें में से एक अशरफी निकालकर उससे कुछ चावल, दाल, सब्जी, तेल आदि सामान ले आया। तुरंत गृहिणी ने उन्हें पकाकर बच्चों को खिला दिया।

फिर पति-पत्नी ने भी भोजन किया।

कुछ और दिन बीतने पर भट्टतिरी ने सोचा, "चाहे जो कहा जाए, मुझसे वचनभंग तो हो ही चुका है। अब भी दुस्सह गरीबी को झेलते जाने में कोई अर्थ नहीं है। इसलिए अब सुखपूर्वक रहने का कोई उपाय करना चाहिए। यदि उस व्यापारी को आने में कुछ समय और लग जाए, तो सब ठीक भी कर दूंगा।" यों फैसला करके उसने उस मर्तबान से कुछ और अशरफियां निकालकर एक अत्यंत भव्य अट्टालिका का निर्माण किया। इसके बाद उस भरणी में जो धन बचा था, उससे अनेक प्रकार की वस्तुएं खरीदकर उनका व्यापार शुरू कर दिया। कुछ ही समय में वह अत्यंत धनवान हो गया। बड़े ठाठ-बाट से रहने पर भी उसके पास हर साल दस हजार रुपए बचने लगे। इस पैसे को अशरफियों में बदलकर वह दसवें मर्तबान को भरने लगा और चार-पांच सालों में ही उसने उसे पूरा भर दिया। तब उसने उसका मुंह बंद करके मुहर लगाकर अन्य मर्तबानों के साथ रख दिया। इसके बाद चीनी व्यापारी के मर्तबानों के आधे आकार के दस और मर्तबान खरीदकर उनको भी अशरफियों से भरना शुरू किया। जब वे भी भर गए, तब उन्हें भी बंद करके मुहर लगाकर बाकी मर्तबानों के साथ रखवा दिया।

(... जारी)

26 मई, 2009

13. कोलत्तिरी और सामूतिरी

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

बहुत समय पहले एक बार कोलस्वरूपत्तिंगल राजा कोषिक्कोड़ के सामूतिरी राजा से मिलने आए। उन दिनों दोनों राजा अपने-अपने राज्यों के अधिपति थे। मुलाकात होने पर वे परस्पर अत्यंत स्नेह का प्रदर्शन करते थे और एक-दूसरे के यहां आते-जाते भी रहते थे, लेकिन दोनों के दिलों में एक-दूसरे के प्रति गहरी द्वेष-भावना भरी हुई थी। कोलस्वरूपत्तिंगल राजा के आने पर उनका ठीक प्रकार स्वागत-सत्कार नहीं किया तो लोकाचार की दृष्टि से यह निंदनीय समझा जाएगा, यह सोचकर सामूतिरी राजा ने अपने प्रतिद्वंद्वी का यथायोग्य स्वागत किया। भोजन आदि के बाद दोनों इधर-उधर की बातें करने लगे। तब कोलस्वरूपत्तिंगल राजा ने मजाक के लहजे में पूछा, "सामूरी सींग मारेगा?" सामूतिरी शब्द को संक्षिप्त करके सामूरी भी कहते हैं। सामूरी यानी एक प्रकार का सांड़। (मलयालम का "मूरी" शब्द का अर्थ होता है सांड़)। इसी दुहरे अर्थ को मन में रखकर कोलस्वरूपत्तिंगल राजा ने पूछा था। यह सुनकर सामूतिरी ने सवाल किया, "क्या कोलत्तिरी जलाएगी?" कोलस्वरूपत्तिंगल राजा को "कोलत्तिरी" भी कहा जाता था। (मलयालम के "तिरी" शब्द का अर्थ होता है बत्ती)। कोलस्वरूपत्तिंगल राजा ने उत्तर दिया, "कोलत्तिरी कभी-कभी जलाती भी है। इसलिए जरा संभलकर रहें।" तब सामूतिरी ने कहा, "कोलत्तिरी जलाएगी तो सामूरी भी सींग मारेगा।" इस प्रकार बातें करते हुए वे एक-दूसरे का मन बहलाते रहे। बाद में कोलस्वरूपत्तिंगल राजा प्रसन्नतापूर्वक अपने देश लौट गए।

इसके बाद बहुत समय पीछे कोलस्वरूपत्तिंगल राजा ने एक विशेष प्रकार की पेटी बनवाई और उसे बंद करके चाबी सहित नौकरों के साथ ससम्मान सामूतिरी राजा के पास भिजवाया। उस पेटी में बारूद भरी हुई थी और उसमें यह व्यवस्था थी कि जैसे ही कोई उसे चाबी लगाकर खोले, तुरंत बारूद उसके मुंह पर फटकर उसे पूरा जला डाले। आखिर सामूतिरी ने पूछा था न, "क्या कोलत्तिरी जलाएगी?" इसलिए एक बार जलाकर दिखाना चाहिए, यह सोचकर ही उन्होंने यह छल किया था। नौकरों ने चाबी सहित पेटी सामूतिरी राजा के पास पहुंचा दी और कहा कि यह कोलस्वरूपत्तिंगल राजा की तरफ से भेंट है। यह सुनकर सामूतिरी राजा ने सोचा कि इस समय कोलत्तिरी राजा की तरफ से भेंट आने का कोई खास कारण नहीं है। इसलिए जरूर यह कोई छल है। मैंने जब पूछा था कि "क्या कोलत्तिरी जलाएगी?" तो उन्होंने जवाब दिया था, "कभी-कभी जलाती भी है, इसलिए जरा संभलकर रहें।" इसलिए इस पेटी के अंदर कोई जलनेवाली चीज ही हो सकती है। अतः इसे पानी में रखकर खोलना ही उचित होगा, नहीं तो दुर्घटना की संभावना है। और उन्होंने एक भृत्य को बुलाकर पेटी को पानी में डुबोकर लाने को कहा। भृत्य उस पेटी को पानी में अच्छी तरह डुबो लाया। तब सामूतिरी ने सावधानीपूर्वक उसे खोला। पेटी के अंदर पानी घुस जाने के कारण बारूद सब गीली हो गई थी और वह जली नहीं और किसी प्रकार का हादसा नहीं हुआ। यह सब समाचार पेटी लानेवाले नौकरों ने लौटकर कोलत्तिरी राजा को सुनाया। अपनी चाल निष्फल गई जानकर कोलत्तिरी राजा को बहुत कुंठा हुई।

फिर कुछ समय बाद सामूतिरी राजा ने भी एक पेटी बनवाई और कुछ नौकरों के हाथ सम्मानपूर्वक कोलत्तिरी राजा के पास भिजवाई। जब यह पेटी कोलत्तिरी राजा के पास पहुंची तो वे सोचने लगे, मैंने जो छल किया था, उसके जवाब में यह भी छल ही होगा। मेरी भेजी हुई पेटी को सामूतिरी ने पानी में रखवाकर खोला था। उसी तरह मैं भी इस पेटी को पानी में रखवाकर खोलूंगा। तब कोई विपत्ति नहीं आएगी। यह सोचकर उन्होंने पेटी को पानी में रखवाकर खोला। उसमें पूरा मधुमक्खियों का छत्ता भरा हुआ था। पेटी खुलने पर पानी में भींगने से क्रुद्ध हुई मधुमक्खियां सब एक साथ उड़ीं और कोलत्तिरी राजा को चोरों तरफ से घेरकर डंक मारने लगीं। कोलत्तिरी राजा द्वारा पूछने पर सामूतिरी ने यही कहा था न कि यदि कोलत्तिरी जलाएगी, तो सामूरी भी सींग मारेगा। इन मधुमक्खियों के काटने से कोलत्तिरी राजा की ऐसी दुर्गति हुई जैसी पहले कभी नहीं हुई थी। बहुत सारे लोगों ने मिलकर किसी प्रकार मधुमक्खियों को भगाया, तब कहीं जाकर राजा के प्राण बच सके।

(समाप्त।)

25 मई, 2009

विषयांतर 1 : महाराजा मार्तांडवर्मा और राम वर्मा

कोल्लेत्तोट्टिल गुरुक्कल वाली कहानी में जिन मार्त्तांडवर्मा और राम वर्मा राजाओं का जिक्र आया है, वे ऐतिहासिक पुरुष हैं। ये दोनों तिरुवितांकूर राजवंश के यशस्वी सदस्य थे। मार्तांडवर्मा इस राजवंश के सबसे प्रतापी राजा थे जिन्होंने राज्य की सीमा को केरल के अधिकांश भागों में फैलाया। उनकी सबसे महान उपलब्धि यह थी कि उन्होंने अपनी नौ सेना से डच उपनिवेशवादियों को ऐसी करारी शिकस्त दी कि डचवासियों का भारत पर राज करने का सारा सपना सदा के लिए चकनाचूर हो गया और वे इंडोनीशिया के अपने उपनिवेशों में लौट गए। यह अच्छा ही हुआ क्योंकि डच अंग्रेजों से कहीं अधिक क्रूर, विध्वंसक और पिछड़े हुए यूरोपीय शक्ति थे और यदि वे भारत में अपना प्रभाव जमा लेते, तो हमारी कहीं अधिक दुर्गति हुई होती।

(चित्र शीर्षक : डच सेनापति महाराजा मार्तांडवर्मा के समक्ष आत्म-सपर्पण करते हुए।)

मार्तांडवर्मा ने 1729 से 1758 तक राज किया, उसके बाद उनके योग्य भांजे राम वर्मा ने राज्य की बागडोर संभाली। राम वर्मा एक निष्पक्ष और कुशल शासक थे, जिन्होंने धर्मशास्त्रों के अनुसार अपनी प्रजा के कल्याण को ध्यान में रखते हुए शासन किया। इसलिए उन्हें धर्म राजा की उपाधि भी प्राप्त हुई। इनका राज्यकाल 1758 से 1798 तक था।

(चित्र शीर्षक: महाराजा राम वर्मा)

इनके राज्यकाल में टीपू सुलतान ने मलबार (उत्तरी केरल) पर आक्रमण किया था, और वहां धार्मिक उत्पीड़न शुरू कर दिया था। इस उत्पीड़न से बचने के लिए भागकर आई जनता को टीपू सुल्तान की धमकियों की कोई परवाह न करते हुए राम वर्मा ने अपने राज्य में शरण दी। इससे उनके आत्म-विश्वास, सैन्य शक्ति और राज्य संगठन की उत्कृष्ठता का परिचय मिलता है, क्योंकि उन दिनों टीपू सुल्तान बहुत ही शक्तिशाली था और उससे वैर मोल लेना कोई मामूली बात नहीं थी।

12. कोल्लेत्ताट्टिल गुरुक्कल - 4

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

आद्य गुरुक्कल के प्रशिक्षण से रामवर्मा महाराजा को जो शारीरिक बल, चपलता तथा शस्त्रों के प्रयोग में प्रवीणता हासिल हुई, वह सब इतिहास-प्रसिद्ध है। उसके संबंध में यहां अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। लेकिन उनके शस्त्राभ्यास की समाप्ति के समय के एक प्रसंग का मैं यहां उल्लेख करूंगा। राजकुमार रामवर्मा के द्वारा गुरुक्कल के अधीन अभ्यास आरंभ करने के कुछ समय बाद उनके मामा महाराजा मार्त्तांडवर्मा ने अपने भानजे से उसी प्रकार सवाल किया जैसे कोषिक्कोड़ के राजा ने गुरुक्कल से उसके अभ्यासकाल में किया था। उस समय गुरुक्कल ने जिस तरह कहा था, उसी तरह रामवर्मा ने भी दस हजार सैनिकों से बच सकता हूं, पांच हजार सैनिकों से बच सकता हूं, दो हजार सैनिकों से बच सकता हूं," आदि उत्तर दिए। अंत में जब उनका शस्त्राभ्यास लगभग समाप्त हो चुका, तब एक दिन महाराजा मार्त्तांडवर्मा पद्मनाभपुरम के राजमहल में खड़े थे और उसी समय रामवर्मा सीढ़ियां चढ़कर महल में प्रवेश करने लगे। मार्त्तांडवर्मा चुपचाप सीढ़ियों के ऊपर एक दरवाजे के पीछे छिपकर खड़े हो गए। रामवर्मा को अपने मामा के वहां होने की खबर नहीं थी, न ही वे अपने मामा को देख सकते थे। जब रामवर्मा सीढ़ी के ऊपर तक पहुंच गए तब महाराजा मार्त्तांडवर्मा ने अपनी तलवार निकालकर भानजे की गर्दन पर प्रहार किया। तलवार गर्दन पर लगने के बाद ही रामवर्मा को आक्रमण का पता चला, और फौरन वे नीचे झुककर बैठ गए। तलवार महल के एक खंभे से टकराई और खंभा दो टुकड़ों में कटकर गिर गया। यह देखकर गुरुक्कल तुरंत वहां पहुंच गया और महाराजा से विनयपूर्वक पूछा, "आपने यह कठिन प्रयोग क्यों किया?" महाराजा मार्त्तांडवर्मा ने कहा, "बस यों ही। मुन्ने का विद्याभ्यास पूरा होने को आ रहा है न? इसने कुछ पढ़ा-वढ़ा है कि नहीं, यह देखना चाहता था। शत्रु इस प्रकार घात लगाकर अक्सर हमला किया करते हैं। उन हमलों से जो अपनी रक्षा न कर सकें उनका इस वंश में जीवित रहना व्यर्थ है। जो अपनी रक्षा कर सकते हैं, उन्हें इस प्रकार के प्रयोग से कोई हानि नहीं पहुंचेगी। यह सोचकर मैंने ऐसा किया।" उत्तर में गुरुक्कल ने कहा, "अपने पूज्य गुरु के अनुग्रह से मुझे नहीं लगता कि मेरे शिष्यों का इस प्रकार के हमलों से कुछ नुकसान हो सकता है।"

ऊपर वर्णित परीक्षा के जैसी अन्य अनेक परीक्षाएं लेने के बाद ही महाराजा मार्तांडवर्मा ने अपने भानजे महाराजा रामवर्मा को कायमकुलम की चढ़ाई जैसे सामरिक अवसरों पर अपने साथ ले जाना शुरू किया और कभी-कभी उनसे सेना का स्वतंत्र संचालन भी कराया। शिष्यों की योग्यता आखिर उनके गुरुओं की योग्यता का ही परिणाम होती है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि महाराजा रामवर्मा ने जो युद्धसामर्थ्य अर्जित की, वह सब गुरुक्कल के शिक्षणकौशल से ही संभव हो सका।

(समाप्त। अब नई कहानी)

24 मई, 2009

12. कोल्लेत्ताट्टिल गुरुक्कल -3

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

जब तिरुवितांकूर के महाराजा तिरुवनंतपुरम को अपनी स्थायी राजधानी बनाकर वहां रहने लगे, तब गुरुक्कल को भी उन्होंने वहीं बुला लिया। वहां उसे जमीन-जायदाद तो दी ही, एक स्थायी मठ भी बनवाकर दिया।

इस प्रकार अनेक प्रकार की संपत्तियां जुटाने तथा राजसान्निध्य में रहने से अनेकानेक सुविधाएं प्राप्त करने के बाद गुरुक्कल ने अपना परिवार कोलत्तु देश से तिरुवनंतपुरम बुला लिया। तिरुवल्लय में, जहां उसके बहुत से स्वजन रहते थे, उसने एक बड़ा भवन बनवाया और कुटुंब सहित वहीं स्थायी रूप से रहने लगा। आज तक कोल्लंताट्टिल गुरुक्कल के घराने की आर्थिक स्थिति में जरा भी कमी नहीं आई है। इस घराने के सदस्य सब अच्छे-खासे धनवान हैं। उन्हें तिरुवनंतपुरम के दरबार में जो स्थान-मान पहले प्राप्त थे, वह आज भी यथावत कायम है। आज भी महाराजा विद्यारंभ के लिए पूजा के मंडप में प्रवेश करते समय गुरुक्कल को गुरुदक्षिणा देते हैं। तिरुवितांकूर के महाराजाओं को अब शस्त्राभ्यास की आवश्यकता नहीं रह गई है और वे शस्त्राभ्यास करते भी नहीं हैं। गुरुक्कल के परिवार में जो लोग अब रह गए हैं, उन्हें भी यह विद्या नहीं आती। फिर भी कलरी (आयुधविद्या सीखने का अखाड़ा) में कोल्लंताट्टिल गुरुक्कल परिवार के ही किसी पुरुष को आचार्य का स्थान प्राप्त होता है।

आद्य गुरुक्कल के शिष्यों की सामर्थ्य को दर्शाने वाली अनेक कथाएं हैं। लेकिन इन सबको यहां देने से विस्तार बहुत बढ़ जाएगा। इसलिए बानगी के तौर पर केवल एक कथा सुनाता हूं।

कोल्लम वर्ष ९६७ की बात है जब महाराजा रामवर्मा, जिनका कोल्लम वर्ष ९७३ में स्वर्गवास हुआ, वृद्धावस्था में पहुंच चुके थे। इस वर्ष आयोजित मुरजपम में (एक व्ययसाध्य यज्ञकर्म जो तिरुविदांकूर में हर छह साल बाद आयोजित किया जाता था और जिसमें ४१ अथवा ५६ दिनों तक व्रत रखकर पानी में खड़े होकर वेदमंत्रों का जप किया जाता था) भाग लेने के लिए आए असंख्य ब्राह्मणों में से कुछ शस्त्रविद्या के विशारद भी थे। चूंकि महाराजा स्वयं इस विद्या के जानेमाने विशेषज्ञ थे, इसलिए वे योद्धा-ब्राह्मणों को अपने पास बुलाकर उन्हें कुछ न कुछ उपहार दिया करते थे। आद्य गुरुक्कल का समय इससे काफी पहले था, यह तो स्पष्ट ही है।

पूजा के दौरान एक दिन मुंड्यूर नामक एक योद्धा-ब्राह्मण केवल लंगोटी पहने शरीर पर तेल मलकर स्नान करने के इरादे से पद्मतीर्थ के किनारे खड़ा था। तब एक वृद्ध असामी नायर सिर पर घी का घड़ा लिए पास से गुजरा। उस नायर की बगल में एक सुंदर छड़ी दबी हुई देखकर ब्राह्मण ने कहा, 'ऐ, वह छड़ी मुझे देगा?" नायर ने कहा, "मालिक तो जवान हैं, छड़ी मुझ जैसे बूढ़ों के ही काम की है।" "तू अपने लिए दूसरी बना ले" ब्राह्मण ने कहा। नायर ने जवाब दिया, "यह तो मालिक भी कर सकते हैं।" तब ब्राह्मण ने कहा, "नहीं देगा तो छीन लूंगा।" तुरंत नायर ने जवाब दिया, "तो वैसा ही करें," और चल पड़ा। ब्राह्मण ने नायर के पीछे जाकर उसकी बगल में दबी छड़ी के सिरे को एक हाथ से पकड़ कर खींचा। जब एक हाथ से खींचने से काम नहीं बना तो ब्राह्मण ने दोनों हाथों से खींचा। लेकिन छड़ी तब भी हाथ नहीं आई। इतना ही नहीं छड़ी अपनी जगह से तिल भर भी नहीं हिली, न ही नायर की चाल जरा सी भी धीमी हुई। जब नायर ने देखा कि अब भी ब्राह्मण छड़ी नहीं छोड़ रहा है, तो उसने शरीर को दाईं ओर थोड़ा घुमाकर पूजा के मंडप की ओर कदम बढाए। तब न जाने किस कारण से ब्राह्मण को छड़ी पर से अपनी पकड़ छोड़ना असंभव प्रतीत होने लगा और तेल लगे नंगे बदन सहित, चिलचिलाती धूप सहते हुए वह भी छड़ी का सिरा पकड़े-पकड़े नायर के पीछे-पीछे घिसटने लगा। मंडप पर पहुंचकर नायर ने घी का घड़ा उतारकर रखा और खड़ा हो गया। ब्राह्मण भी छड़ी को पकड़े हुए वहीं रुक गया। जब तक नायर घी को मापकर अधिकारियों के हवाले करके उसकी रसीद बनवाकर अपने काम से निवृत्त हुआ, तब तक यह सब समाचार किसी प्रकार से महाराजा रामवर्मा तक पहुंच गया और उन्होंने नायर को अपने पास बुलवाया। छड़ी को छोड़ न सकने के कारण ब्राह्मण भी नायर के साथ गया। जब वे दोनों महाराजा के सामने पहुंचे तो महाराजा ने जरा हंसकर कहा, "अरे मुंड्यूर, यह तुम्हें क्या हो गया है?" यह सुनकर उस ब्राह्मण को बहुत अधिक लज्जा हुई। शस्त्राअभ्यासी नवयुवक होते हुए भी उसे एक वृद्ध नायर के पीछे इस प्रकार दीनतापूर्वक नंगधडंग अवस्था में महाराजा के सामने आना पड़ा, यह सोचकर वह अत्यंत व्यथित हुआ और असह्य लज्जा के कारण सिसक-सिसकर रोने लगा। तब महाराजा ने कहा, "इस साधु ब्राह्मण को मुक्त कर दो।" तुरंत नायर ने कहा, "आपका गुलाम हूं।" और अपने शरीर को बाईं ओर थोड़ा मोड़ा। इससे छड़ी पर ब्राह्मण की पकड़ स्वयं ही ढीली हो गई। नायर ने कहा, "अब मालिक जाकर जल्दी खाना खा आएं!" ब्राह्मण चला भी गया।

नायर ने ब्राह्मण पर कुश्ती का जो दांव चला था, उसके बारे में महाराजा जानते थे। लेकिन वह दांव साधारण मल्लों को ज्ञात न होने से वे समझ गए कि यह नायर कोई असामान्य व्यक्ति है। असल में उसे देखते ही उन्हें यह शंका हुई भी कि मैंने इसे कहीं पहले देखा है। इसलिए उन्होंने नायर से पूछा, "तुम कहां के रहनेवाले हो? कौन हो?" तब नायर ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहाः-"यह गुलाम कायमकुलम का रहनेवाला एक शूद्र है और महाराजा के असामियों में से एक है। मुरजपम के लिए घी अर्पित करने के लिए यह यहां आया है। यदि महाराजा थोड़ा श्रम करेंगे तो उन्हें याद आएगा कि इस गुलाम से उनकी पहले भी एक बार भेंट हुई है।" यह सुनकर महाराजा की स्मृति साफ हो गई और उन्हें स्पष्ट-स्पष्ट याद आया कि उसे पहले कहां देखा था। लेकिन नायर के मुंह से ही सारी बात कहलवाने के इरादे से उन्होंने कहा, "याद आने योग्य प्रसंग क्या है?" तब नायर ने कहा, "जब महाराजा कायमकुलम को जीतने के लिए सेना सहित आए थे तब राजमहल की दीवार के ऊपर से महाराजा ने अपना घोड़ा कुदाया था। तब घोड़े को तलवार की चोट लगने से वह महल के बाहर ही गिरा और महाराजा महल के अंदर कूद पड़े। यह महाराजा को याद होगा। उस दिन घोड़े का पैर छिपकर काटनेवाला आदमी यह गुलाम ही था। इस गुलाम को महाराजा ने उस समय अवश्य देखा होगा।" महाराजा ने कहा, "ठीक कहा, मुझे याद है। तुम्हें पहली बार देखकर ही मैं यह सब समझ गया था। फिर भी यों ही पूछा। तुम कायमकुलम के राजा के सैनिक थे, क्यों?" नायर, "आपका गुलाम हूं।" तब महाराजा ने पूछा, "तब तुम घी का घड़ा यहां किसलिए लाए?" "उन दिनों इस गुलाम के पालनकर्ता वे थे, आज ये हैं।" यों कहकर नायर ने विनयपूर्वक महाराजा की ओर हाथ बढ़ाकर इशारा किया। प्रसन्न होकर महाराजा ने कहा, "यह तुमने ठीक कहा। जिस समय जिसका नमक खा रहे हों, उसी की सेवा करना पुरषों का धर्म है। ऐसा ही होना भी चाहिए।" फिर महाराजा ने शस्त्रविद्या आदि के संबंध में उस नायर के साथ काफी देर तक बातें कीं। तब उन्हें मालूम हुआ कि यह नायर भी आद्य गुरुक्कल का ही शिष्य है और उन्हें उसके प्रति विशेष ममता हुई। अपने गुरु के अन्य शिष्यों के प्रति सभी को विशेष लगाव होता ही है। दुपहर के बाद दुबारा आने को कहकर महाराजा ने नायर को जाने की अनुमति दे दी।

दुपहर के बाद सभी शस्त्राअभ्यासी ब्राह्मण महाराजा के सामने एकत्र हुए। इनमें वह मुंड्यूर नामक ब्राह्मण भी था। कायमकुलम का वह नायर भी आ पहुंचा। तब वहां पड़े हुए एक अंडाकार लौह पिंड को दिखाकर महाराजा ने कहा, "आपमें से कोई इसे उठा सकता है?" यह सुनकर सभी अभ्यासी एक-एक करके आए और उसे उठाने की कोशिश करने लगे। लेकिन उनमें से कोई भी उसे हिला तक नहीं सका। अंत में मुंड्यूर ने बड़ी मुश्किल से उसे घुटने तक उठाया। इसके बाद नायर ने उसे कमर की ऊंचाई तक उठाया। इसके बाद उसे उठानेवाला कोई नहीं था। अंत में महाराजा ने कहा, "बुढ़ापे के कारण अब मैं क्षीण हो गया हूं, फिर भी कोशिश करके देखता हूं।" और उन्होंने उस पिंड को गले तक उठाकर दिखाया। उसे नीचे रखकर वे बोले, "जवानी में जब मैं रोज अभ्यास करता था तब इसे एक हजार बार सिर के ऊपर तक उठाकर फेंकता था। अब मैं अशक्त हो चला हूं।" वहां एकत्र हुए सभी नौजवान यह देखकर अत्यंत लज्जित हुए कि जिस लौह पिंड को वे हिला तक नहीं सके, उसे वृद्ध एवं कमजोर महाराजा ने अनायास ही उठा लिया।

कायमकुलम के नायर को महाराजा ने अनेक पुरस्कार तो दिए ही, उन्होंने यह घोषणा भी की कि सरकार से जो जमीन उसे मिली है, उसके बदले में उसे नकद या जिंस के रूप में सरकार को कुछ भी चुकाना नहीं होगा। नायर के लिए उन्होंने एक छोटी मासिक पेंशन भी बांध दी।

(... जारी)

23 मई, 2009

12. कोल्लेत्ताट्टिल गुरुक्कल -2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

इसके अनंतर शिष्य कुछ समय और गुरु के सान्निध्य में रहकर अपनी शंकाएं दूर करता रहा और तत्पश्चात यथाशक्ति गुरुदक्षिणा अर्पित करके और गुरु का आशीर्वाद लेकर वहां से चल पड़ा। बहुत प्रदेशों में से होते हुए वह अंत में कायमकुलम पहुंचा। तब तक यह राज्य तिरुवनंतपुरम में सम्मिलित नहीं हुआ था और एक स्वतंत्र राज्य था। यहां के राजा से मिलकर वह ब्राह्मण उसके सैनिकों को हथियारों के उपयोग में प्रशिक्षण देने लगा। लेकिन राजा के क्रियाकलाप पसंद न आने से कुछ ही समय में नौकरी छोड़कर वहां से चला गया।

एक बार फिर वह ब्राह्मण कई स्थानों में घूमता रहा और अंत में तिरुवितांकूर के उस समय के महाराजा का निवासस्थल पद्मनाभपुरम के राजमहल में पहुंचा। वह सुप्रसिद्ध मार्त्तांडवर्मा का जमाना था, जिनका स्वर्गवास ९३३ कोल्लम वर्ष में हुआ। महाराजा अपने भानजे महाराजा रामवर्मा को जिनका तिरोधान कोल्लम वर्ष ९७३ में हुआ, शस्त्रविद्या का प्रशिक्षण दिलाने के लिए योग्य गुरु की तलाश में थे। अनेक व्यक्तियों को बुलाकर उन्होंने परखकर देखा पर किसी से भी संतुष्ट नहीं हुए और उन सबको लौटा दिया। वे इसी चिंता में थे कि अब क्या किया जाए। इसी समय वह ब्राह्मण वहां आ पहुंचा।

वहां पहुंचकर ब्राह्मण ने महाराजा से मिलने की इच्छा राजसेवकों के जरिए उन तक पहुंचाई और उन सेवकों से यह भी कहा कि महाराजा को विशेष रूप से यह बताएं कि मैं एक पहुंचा हुआ शस्त्रविद्या-विशेषज्ञ हूं। सेवकों ने महाराजा से जाकर यह सब कहा। तब महाराजा ने उसे अगले दिन सुबह बारह बजे उनसे मिलने का समय दिया। इसके अनुसार अगले दिन ब्राह्मण बारह बजे राजमहल के समीप गया। तब तक महाराजा के आदेशानुसार महल के सभी द्वार बंद कर दिए गए थे और अंदर दीवार से लेकर काफी दूर तक महल के चारों ओर जमीन पर आदमी जितनी ऊंची लोहे की नुकीली कीलें इस प्रकार पास-पास गाड़ दी गई थीं कि दो कीलों के बीच उंगली डालने तक की जगह न रहे। ब्राह्मण ने किले के चारों ओर घूमकर देखा, पर सभी द्वार बंद थे। तब वह समझ गया कि यह सब मेरी परीक्षा लेने के लिए ही किया गया है। वह तुरंत पगड़ी और धोती कसकर और ढाल तलवार संभालकर कुछ करतबों की सहायता से महल की दीवार को लांघकर महल के अंदर कूद पड़ा। पर अंदर जमीन पर कीलें ठुकी होंगी, इसकी उसने कल्पना नहीं की थी। एक छलांग में दीवार लांघकर जब वह दीवार के दूसरी तरफ नीचे आ रहा था तभी उसकी नजर उन कीलों पर पड़ी। अत्यंत बुद्धिशाली और कुशल योद्धा होने के कारण उसने दीवार के ऊपर से जमीन तक पहुंचने से पहले ही एक युक्ति सोच ली और उसका उपयोग किया। युक्ति इस प्रकार थीः- उसने तुरंत ढाल को नीचे की ओर करके उसे एक कील की नोक पर रखा और ढाल पर अपने दोनों पैर टिकाकर तनिक-सा झुककर पुनः हवा में उछाल लगाई और देखते ही देखते महल की दीवार लांघकर महल के बाहर आकर खड़ा हो गया। कोई चाहे कितना ही बड़ा योद्धा क्यों न हो, कूद जाने के बाद पीछे पलटने के लिए उसे पल भर के लिए ही सही, पैर कहीं टिकाने तो पड़ेंगे ही। इसलिए उसे ऐसा करना पड़ा था।

महल के बाहर आ जाने के बाद उसने महल के बुर्ज पर खड़े संतरी से कहा, "मेरे बारे में कोई पूछे तो कह देना कि मैं आया था और सभी द्वार बंद होने से अंदर घुस न सका और लौट गया।" यह कहकर वह जाने को हुआ। अत्यंत चकित होकर यह सब देख रहे महाराजा ने इतने में आदमी भेजकर महल का द्वार खुलवाया और ब्राह्मण को ससम्मान अपने पास बुलवाकर उसी समय यह घोषित कर दिया कि राजकुमार रामवर्मा को शस्त्राभ्यास वही ब्राह्मण कराएगा।

इस प्रकार चूंकि वह ब्राह्मण राजकुमार का गुरु बनाया गया था, इसलिए उसके घराने को "गुरुक्कल" की पुश्तैनी उपाधि प्राप्त हो गई और उसे महाराजा की तरफ से अनेक प्रकार की कीमती वस्तुएं भी मिलीं। "कोल्लंत्ताट्टिल" उसका घर का नाम था। ब्राह्मण आदि उसे गुरुक्कल कह कर और शूद्र गुरुक्कलच्चन (गुरुपिता) कहकर पुकारने लगे।

(... जारी)

22 मई, 2009

12. कोल्लेत्ताट्टिल गुरुक्कल -1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

कोलत्तु देश का एक ब्राह्मण शस्त्रविद्या सीखने की इच्छा से कोषिक्कोड आया। उन दिनों कोषिक्कोड का मून्नाममुरा राजा (तीसरा राजा या राजकुमार) बहुत ही कुशल योद्धा माना जाता था। इसलिए उसने उसी के पास जाकर अपनी इच्छा प्रकट की। राजा ने संतोषपूर्वक उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और अच्छे मुहूर्त में ब्राह्मण ने शस्त्रविद्या का अभ्यास प्रारंभ किया।

यों जब एक साल बीत गया, तब गुरुरूपी राजा ने शिष्यरूपी ब्राह्मण से पूछा, "अब आपको पकड़ने के लिए आनेवाले कितने लोगों से अपना बचाव कर सकेंगे?" तब ब्राह्मण ने कहा, "दस हजार लोग आएं तो मैं आसानी से उन सबको अपने से दूर रख सकता हूं।" "यह काफी नहीं है। आपको कुछ और अभ्यास करना चाहिए," राजा ने कहा और शिष्य की शिक्षा जारी रखी। ब्राह्मण भी अत्यंत जागरूकता से सीखता रहा। यों जब एक साल और बीता, राजा ने फिर से वही सवाल दुहराया। इस बार ब्राह्मण ने कहा, "पांच हजार लोगों से मैं अपनी रक्षा कर सकता हूं" और राजा ने उत्तर दिया, "अब भी काफी नहीं है," और उसकी शिक्षा जारी रखी।

इस प्रकार हर एक साल के बाद राजा वही सवाल पूछता और शिष्य क्रमशः "दो हजार, एक हजार, पांच सौ, दो सौ इत्यादि लोगों से बच सकता हूं," इस प्रकार घटती संख्या बताता गया। यों जब बारह बरस बीत गए तब राजा ने पूछा, "अब क्या लगता है?" शिष्य ने जवाब दिया, "एक व्यक्ति आए तो शायद मैं अपना बचाव कर लूं।" "यह भी काफी नहीं है। लगता है कुछ समय और आपको अभ्यास करना पड़ेगा," राजा ने कहा और उसकी शिक्षा पुनः जारी रखी और शिष्य एकाग्रता से सीखता रहा। गुरु-शिष्य की इस जोड़ी की ऊपर उल्लिखित प्रश्नोत्तरी से स्पष्ट होता है कि अल्पज्ञान अहंभाव को जन्म देता है। शुरू में ब्राह्मण ने निरोधमार्गों के बजाए आक्रमण-प्रत्याक्रमण के सिद्धांत आत्मसात किए थे और बाद में निरोधमार्ग भी समझ लिए, इसलिए उसने ऊपर बताए ढंग से उत्तर दिए।

कुछ समय और बीतने पर यह ब्राह्मण अव्वल दर्जे का योद्धा बन गया और उसे लगने लगा कि अब मैंने काफी शिक्षा प्राप्त कर ली। लेकिन उस शिष्यवत्सल राजा ने कहा, "अभी आपकी पढ़ाई नहीं पूरी हुई है। शरीर को आंखों के समान बनाना अभी बाकी है।" और शिष्य को सिखाना जारी रखा।

एक दिन यह ब्राह्मण सुबह रोज की भांति अभ्यास करके सारे शरीर पर तेल मलकर स्नान करने निकला। ब्राह्मण चारदीवारी के अंदर बैठकर तेल की मालिश करता था। वहां से बाहर निकलने का जो एकमात्र दरवाजा था उसके दोनों ओर राजा ने एक-एक भालाधारी सिपाही खड़ा कर दिया और उनसे कहा, "जैसे ही ब्राह्मण दरवाजा खोलकर बाहर आए, तुरंत तुम दोनों उस पर एक साथ भाले से एक-एक बार प्रहार करना" और स्वयं पास ही कहीं छिप कर दरवाजे पर नजर टिका दी। ब्राह्मण इस सबके बारे में पूर्णतः अनभिज्ञ था और दरवाजे से बाहर निकला। तुरंत दोनों तरफ से उस पर भाले से हमला हुआ। भाले की चोट लगने के बाद ही उसने दोनों सिपाहियों को देखा। लेकिन उसने तुरंत वहां से छलांग लगा दी। गुरुरूपी राजा आड़ से निकल आया और उसने दोनों भालों की नोक का निरीक्षण किया। उन पर जरा भी तेल नहीं लगा था। ब्राह्मण के शरीर पर कहीं भी वार के निशान नहीं थे। यह देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ और अपने शिष्य से कहा, "इसी को शरीर को आंख के समान बनाना कहते हैं। अब आगे अभ्यास करने की जरूरत नहीं है।" शिष्य ने भी जवाब दिया, "यह सब आप ही की कृपा का फल है।" इसके बाद राजा मंदिर की ओर और ब्राह्मण स्नान करने चले गए। राजा ने अपने प्रिय शिष्य के अभ्यासबल की परीक्षा लेने के लिए ही उस पर भालों का वार करवाया था। यह कहना आवश्यक नहीं होगा कि उसे पूरा विश्वास था कि इससे शिष्य को कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचेगा। आंख पर कोई चीज लगने वाली हो तो आंख अत्यंत तीव्रता से अपने को बंद कर लेती है। इसी प्रकार की चपलता शरीर की भी होनी चाहिए। इसी को कहते हैं, "शरीर का आंख के समान होना"। पूरे वेग से और पूर्ण निःशब्दता से दोनों ओर से भाले चलाने पर, उनकी नोक शरीर से टकराने के पहले छलांग लगा देने के लिए किस हद तक की शारीरिक चपलता चाहिए इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। इसे देखकर गुरु समझ गए कि शिष्य ने अपने शरीर को आंख के समान चपल बना लिया है, इसीलिए उन्होंने निर्देश दिया कि आगे अभ्यास करने की जरूरत नहीं है।

(... जारी)

21 मई, 2009

11. पुलियांपिल्ली नंबूरी - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

पुलियांपिल्ली नंबूरी अच्छे ओझा भी थे। झाड़-फूंक करने और भूत-प्रेत-पिशाच उतारने के लिए लोग उन्हें बहुत बार ले जाते थे। ऐसी कोई बाधा नहीं थी जिसे वे दूर न कर सकते हों। जब वे झाड़-फूंक करने या भूतादि उतारने चल पड़ते थे, तब देवी भी प्रत्यक्ष मूर्ति बनकर उनके पीछे-पीछे जाती थी। लेकिन इसे पुलियांपिल्ली नंबूरी के सिवा दूसरा कोई देख नहीं पाता था।

एक दिन पुलियांपिल्ली नंबूरी कहीं से झाड़-फूंक करके लौट रहे थे। आगे-आगे वे चल रहे थे और पीछे-पीछे देवी। काफी दूर जाने पर नंबूरी ने पीछे मुड़कर एक बार देखा तो देवी को कहीं न पाकर वे वहीं रुक गए और विचारने लगे कि वह कहां गई होगी। काफी देर रुकने पर भी देवी के न आने से नंबूरी को चिंता हुई। पता लगाने का निश्चय करके वे पीछे लौटे। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि रास्ते में ही एक परयन अपनी कुटिया में जमीन पर तलवार गाढ़कर और एक ऊंचा आसन बनाकर देवी की पूजा कर रहा है और ढोल बजा-बजाकर कर्कश ध्वनी में देवी की स्तुति में कुछ स्त्रोत गा रहा है। देवी उसकी पूजा को स्वीकारते हुए उसी कुटिया में उस ऊंचे आसन पर बैठी थी। (परयन को देवी दिखाई नहीं दे रही थी।)। उस परयन की पूजा समाप्त होने तक नंबूरी सब कुछ देखते हुए रास्ते पर ही खड़े रहे। पूजा समाप्त होने पर देवी उठी और वहां से चलकर नंबूरी के पास पहुंची। तब नंबूरी ने उससे कहा, "देवी, आपका इस प्रकार परयन आदि नीच लोगों के यहां जाना अनुचित है। आपको उस नीच परयन की मंत्रहीन पूजा स्वीकारते हुए और उसके नैवेद्य खाते हुए देखकर मुझे तो बहुत बुरा लगा। अब आप कृपा करके ऐसी हरकतों से बाज आएं तो अच्छा।" यह सुनकर देवी हंसते हुए बोली, "तो तुमने मेरे स्वभाव को अब तक अच्छी तरह से नहीं समझा है, क्यों? तुममें मनःशुद्धि और भक्ति की अब भी कमी है। मुझमें भक्ति रखनेवाले सभी मेरे लिए समान हैं। चंडाल और ब्राह्मण का भेद मैं नहीं करती। भक्तिभाव से कोई भी पुकारे तो उसके पास गए बिना मैं नहीं रह सकती। मैं मंत्रतंत्रादि से भी अधिक भक्ति को महत्व देती हूं। इस तत्व को न समझनेवाले तुम्हारे साथ मैं नहीं आऊंगी। आज से तुम मुझे देख भी नहीं पाओगे। लेकिन पहले के ही समान तुम भक्तिभाव से मेरी उपासना करते रहोगे, तो मैं पूर्ववत तुम्हारी सहायता करूंगी।" यह कहकर वह ओझल हो गई। इसके बाद नंबूरी ने देवी को चर्मचक्षुओं से कभी नहीं देखा। देवी के अप्रत्यक्ष होने के बाद नंबूरी अधिक समय जीवित भी नहीं रहे।

केरल के अनेक भागों में अनेक जन आज भी कुलदेव के रूप में पुलियांपिल्ली नंबूरी की आराधना करते हैं। चौमासे में पुलियांपिल्ली नंबूरी को पानी पिलाने की मनौती मानने से सब कार्यों की सिद्धि हो सकती है, ऐसा कुछ लोगों का विश्वास है। संतानप्राप्ति, संपत्तिलाभ, रोग-बाधा से मुक्ति आदि के लिए कई स्थानों में लोग पुलियांपिल्ली नंबूरी को जल पिलाने की मनौती मानते हैं। चोरी में गई वस्तुओं का पता लगाने के लिए विशेषरूप से उनकी मनौती की जाती है। बहुतों का यह विश्वास है कि पुलियांपिल्ली नंबूरी को पानी पिलाने की मनौती करने से जिसका पता न चले ऐसी कोई वस्तु इस दुनिया में नहीं है। मनौती मानने के चालीस दिनों के अंदर चोर पैरों पर पड़कर माफी मांगेगा और चुराई हुई वस्तु लौटाकर नमस्कार करेगा। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो कुटुंब सहित वह खून की कै करते हुए मर जाएगा। कार्यसिद्धि के बाद यदि मनौती करनेवाला पुलियांपिल्ली नंबूरी को पानी पिलाने से चूक जाए, तो उसकी भी यही दशा होगी। पुलियांपिल्ली नंबूरी का स्वभाव कायंकुलम की दुधारी तलवार के समान है, जो दोनों तरफ से काटती है। बहुत दिनों पहले हो गुजरे इस व्यक्ति के प्रति लोगों में इतने व्यापक स्तर पर भय और भक्ति का होना यही सिद्ध करता है कि अपने समय में उन्होंने जरूर ही अनेक दिव्यतापूर्ण और अद्भुत चमत्कार किए होंगे।

मैंने सुना है कि इनका घराना कोषिक्कोड में था और आज से चार-पांच सौ वर्ष पूर्व इनका निधन हुआ था।

(समाप्त। कल ऐदीह्यमाला की एक और कहानी।)

20 मई, 2009

ऐदीह्यमाला से संबंधित कुछ और चित्र और रोचक जानकारियां

इन कहानियों के लेखक कोट्टारत्तिल शंकुण्णि का एक और चित्र यहां दे रहा हूं। यह मुझे केरल पुराण के नियमित पाठक श्री पी एन सुब्रमण्यन द्वारा बताए गए एक अन्य ब्लोग से प्राप्त हुआ है। वहीं से मूल मलयालम ग्रंथ के आवरण पृष्ठ का चित्र भी मिला। दोनों को यहां दे रहा हूं। मलयालम ग्रंथ को डीसी बुक्स ने प्रकाशित किया है। यदि आपको मलयालम आती हो, तो इसे ओनलाइन ही उनके जाल स्थल से खरीद सकते हैं।
कोट्टारत्तिल शंकुण्णि (1855 - 1937)। इनका असली नाम वासुदेवन उण्णी था। कोट्टरत्तिल शंकुण्णि उनका कलम नाम था।

मूल मलयालम ग्रंथ का आवरण पृष्ठ।

11. पुलियांपिल्ली नंबूरी - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

ये एक उत्तम ब्राह्मण और एक निष्ठावान शाक्त थे। बरसों से ये प्रतिदिन देवी की उपासना करते आ रहे थे और मंगलवार, शुक्रवार, अमावास आदि को मद्यमांस आदि द्रव्यों से विधिपूर्वक शक्तिपूजा करते थे। पूजा के बाद जी भरकर मद्य का सेवन करने की भी इन्हें आदत थी। देवी इनके सामने प्रत्यक्ष होती थी।

अन्य ब्राह्मणों को मालूम था कि ये मद्यमांस का सेवन करके शक्तिपूजा करते हैं और खूब शराब भी पीते हैं, लेकिन इनके दिव्यत्व के कारण लाख कोशिश करने पर भी वे इसके बारे में कोई ठोस प्रमाण नहीं जुटा पाए और इनको भ्रष्ट घोषित करने में असफल रहे। इनकी गैरहाजिरी में नंबूरी लोग एकत्र होकर कहते, "यह आदमी बेहद नीच है। क्या यह सब किसी ब्राह्मण को शोभा देता है? अब से हमें इस मद्यप को अपने घरों में किसी भी अवसर पर निमंत्रित नहीं करना चाहिए। बिन बुलाए आ जाए तो मार-मारकर बाहर निकाल देना चाहिए। हम सबको इसके घर जाना भी बंद कर देना चाहिए, अवसर चाहे जो हो।" लेकिन इनके सामने ऐसा बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। जब ठोस सबूत ही न हो तो किसी को भ्रष्ट किस आधार पर घोषित किया जाए? इसलिए सबूत इकट्ठा करने का निश्चय करके उस देश के सभी नंबूरी सतर्क रहने लगे।

एक दिन नंबूरियों को सूचना मिली कि पुलियांपिल्ली नंबूरी शुक्रवार की शक्तिपूजा के लिए मद्य खरीदने निकले हैं। तुरंत बहुत से नंबूरी मिलकर रास्ते में इस इरादे से खड़े हो गए कि पुलियांपिल्ली नंबूरी को मद्य लेकर लौटते समय रंगे हाथों पकड़ लेंगे। कुछ समय बाद पुलियांपिल्ली नंबूरी मद्य का कलश सिर पर रखकर आते दिखाई दिए। पास आने पर सबने उन्हें घेर लिया। अपनी योजना को सफल मानकर वे सब उत्साह से पुलियांपिल्ली नंबूरी से पूछने लगे, "इस कलश में क्या है?" पुलियांपिल्ली नंबूरी समझ गए कि मुझे भ्रष्ट घोषित करने के लिए ही सबने मुझे इस प्रकार रोका है। उनकी यह चाल निश्चय ही खाली जाएगी, यह वे जानते थे। लेकिन उन्होंने तय किया कि उन सबको थोड़ा और उत्तेजित करके, बाद में उन्हें एक ही झटके में मूर्ख बनाऊंगा और वे चुपचाप अपराधी का सा भाव करके खड़े हो गए। यह देखकर अन्य नंबूरियों का जोश आसमान चढ़ने लगा और वे सब शोर करने लगे, "कलश में क्या है? कलश में क्या है?" पुलियांपिल्ली नंबूरी मुंह लटकाकर, किसी से भी नजरें न मिलाते हुए, नीचे की ओर देखते हुए यों खड़े रहे मानो उनसे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो, और धीमी आवाज में बोले, "इसमें खास कुछ नहीं है।" तब कुछ लोगों ने कहा, "तब कलश उतारकर उसे खोलकर हमें दिखाइए।" कुछ लोगों ने जबर्दस्ती कलश को नीचे उतार भी दिया। उतारते समय कलश में से शराब की गंध-सी आई तो उन सबका उत्साह और भी अधिक बढ़ गया, और वे सब कलश को खोलकर देखने की जिद करने लगे। तब पुलियांपिल्ली नंबूरी ने कहा, "देखकर क्या करेंगे? इसमें बस कुछ सुपारियां हैं। मेरी पत्नी ने आज खाने के लिए सुपारी ले आने को कहा था"। तब नंबूरियों ने जवाब दिया, "हम भी देखेंगे यह सुपारी।" अब ज्यादा क्या कहें, कलश को खोलकर दिखाने में वे जितना अधिक हिचकिचाए, उतना ही अन्य नंबूरियों का विश्वास दृढ़ होता गया कि इसमें शराब ही है, और उन्होंने जिद ठान ली कि कलश खुलवाकर ही रहेंगे। जब पुलियांपिल्ली नंबूरी समझ गए कि कलश खोले बगैर काम नहीं चलेगा, तब उन्होंने कहा, "ठीक है, जैसी आप की इच्छा," और कलश खोल दिया। जब नंबूरियों ने उसके अंदर झांककर देखा तो उसमें अव्वल दर्जे की सुपारी भरी हुई थी। कहने की जरूरत नहीं कि यह देखकर वे सब झेंपते हुए वहां से खिसक गए। सबके जाने के बाद पुलियांपिल्ली नंबूरी कलश को पुनः ढक कर उसे उठाकर घर आ गए। पूजा के समय वह सुपारी पुनः मद्य में बदल गई।

इस तरह के अनेक षडयंत्रों के बाद भी नंबूरी लोग उनके शराब पीने के संबंध में रत्ती भर सबूत भी इकट्ठा नहीं कर पाए। पूजा की क्रियाएं और शराब पीना सब घर के भीतर बंद किवाड़ों के पीछे चलता था, वह भी रात के वक्त। शराब के नशे में चूर होकर वे घर के अंदर ही बेहोश पड़े रहते थे। अपने नौकरों से उन्होंने कह रखा था कि ऐसे समय मुझसे कोई मिलने आए तो कह देना, "अभी मालिक को फुरसत नहीं है, सुबह आएं।" इसलिए रात के समय बंद दरवाजे के पीछे उन्हें नशे में द्युत्त पड़ा कोई देखे भी कैसे? सुबह जब वे घर से बाहर निकलते थे तब तक शराब का नशा उतर चुका होता था और तब वे पिए हुए भी नहीं होते थे।

इस प्रकार उन्हें मद्यप सिद्ध करने के लिए बेकार में काफी परेशान होने के बाद सब नंबूरियों ने राजा से शिकायत की। राजा ने कहा, "शक्तिपूजा के दिन का ठीकठीक पता लगाकर मुझे बताएं तो मैं कोई उपाय करूंगा।" फिर सभी नंबूरियों ने मिलकर पता लगाया कि चौमासे की पहली अमावस की रात को पुलियांपिल्लि नंबूरी शक्तिपूजा करने वाले हैं और यह जानकारी राजा तक पहुंचा दी गई। पुलियांपिल्ली नंबूरी ने हर बार की तरह उस अमावस की रात को पूजा की और मद्य पीकर बेहोश हो गए। जब वे इस हालत में थे तब कुछ राजकर्मचारी उन्हें राजा के पास ले जाने के लिए उनके द्वार पर आए। दासियों के माध्यम से उन्होंने अपने आगमन का कारण नंबूरी की पत्नी को कहलवाया। पत्नी ने नंबूरी के कान में यह सब समाचार कह सुनाया। तब बेहोशी की हालत में नंबूरी बड़बड़ाए, "चांद निकल आने पर मैं आ जाऊंगा। अभी इस अंधकार में आना जरा मुश्किल होगा।" पत्नी ने यह बात राजकर्मचारियों को कहलवा दी और वे यह समाचार लेकर राजा के पास लौट गए।

राजा के बुलाने पर पुलियांपिल्ली नंबूरी किस हालत में आते हैं, यह देखने के लिए असंख्य नंबूरी राजमहल में एकत्र हो गए थे। तब तक वे राजकर्मचारी वहां आ गए और उन्होंने राजा से निवेदन किया, "नंबूरी ने कहलवाया है कि वे चांद उग आने पर आ जाएंगे।" यह सुनकर सबने समझ लिया कि यह असंगत बात नंबूरी ने शराब के नशे में कही है। अमावस की रात को चांद कैसे उग सकता है? यह तो असंभव है। तब तक काफी रात हो चुकी थी। इसलिए नंबूरी लोग अपने-अपने घर नहीं गए। राजा के अपने शयन-कक्ष में चले जाने के बाद वे सब राज महल में ही इधर-उधर लेट गए।

जब लगभग आधी रात हो गई, तब पुलियांपिल्ली नंबूरी को होश आया। तब उन्हें धुंधली-सी याद आई कि राजकर्मचारी आए थे और उनसे मैंने कुछ उल्टी-सीधी बात कह दी थी। पत्नी से पूछने पर उसने सब कुछ सही-सही बता दिया। जब नंबूरी ने सुना कि उन्होंने राजा से कहलवाया है कि चांद निकलने पर आऊंगा, तो पल भर के लिए वे दहल गए।

लेकिन उन्हें यह दृढ़ विश्वास भी था कि समस्त लोकों की माता देवी का वरदहस्त मुझ पर होने से मेरा किसी प्रकार का नुक्सान या अपमान नहीं हो सकता। इसलिए वे बिना संकोच के घर से निकल पड़े। बाहर निकलकर उन्होंने देखा कि आकाश में पूर्णचंद्र विराजमान है और चारों ओर चांदनी छिटकी हुई है। यह चमत्कार देखकर वे खुशी-खुशी राजमहल की ओर बढ़े और वहां पहुंच कर राजा के शयनकक्ष का दरवाजा जोर से खटखटाया। तुरंत राजा की नींद टूटी और उन्होंने पूछा, "कौन है?" "मैं हूं, पुलियांपिल्ली नंबूरी," नंबूरी ने कहा। तब राजा ने कहा, "क्यों, चांद उग आया?" "हां, बाहर आएंगे तो दिखाई देगा।" नंबूरी ने उत्तर दिया। तुरंत राजा बाहर आ गए और उन्होंने आसमान में पूर्णिमा के चंद्र को चमकते पाया। चारों ओर चांदनी छाई हुई थी। यह देखकर उन्हें अतीव विस्मय हुआ और उन्होंने राजसेवकों को भेजकर सभी नंबूरियों को वहां बुलवाया। वे सब भी आश्चर्यचकित रह गए। राजा ने पुलियांपिल्ली नंबूरी को असंख्य पुरस्कारों से लाद दिया और आदरपूर्वक घर भिजवाया। जब पुलियांपिल्ली नंबूरी अपने घर पहुंच गए तब आकाश से चांद गायब हो गया और चारों ओर अमावस का घोर अंधकार छा गया। उस अमावस की रात जो चांद और चांदनी दिखाई दिए थे वह वास्तविक नहीं थे यह कहना अनावश्यक है। भक्तवत्सला देवी ने अपने प्रिय भक्त नंबूरी को अपमान से बचाने के लिए अपने कानों का एक कुंडल उतारकर उसे उंगली में थाम लिया था। इसे देखकर लोगों को चांद का और उसकी चमक से चांदनी का भ्रम हो गया था।

इस प्रकार बहुत लोगों ने बहुत प्रकार से पुलियांपिल्ली नंबूरी को अपमानित करने का तथा उन्हें मद्यप सिद्ध करने का प्रयत्न किया, लेकिन सफल न हो सके। जिन्हें देवी का संरक्षण प्राप्त हो, उन्हें कोई जीत कैसे सकता है?

(... जारी)

19 मई, 2009

10. मुट्टस्सु नंबूरी - 4

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

एक बार जब ये एक मंदिर में गए तब वहां उत्सव चल रहा था। किसी कारण से वहां नृत्य के लिए आए हुए नंबियार से उनका मन-मुटाव हो गया। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि इस नंबियार को सबक सिखाना ही होगा। उत्सव का संचालन करनेवाला तहसीलदार मंदिर के रीति-रिवाजों से पूर्णतः अनभिज्ञ और मंदिर की चारदीवारी के अंदर कदम रखने से भी हिचकिचाने वाला सरल मनुष्य था। नंबूरी ने उसके समीप जाकर उसे यह झूठी जानकारी दी कि मंदिर में उत्सव के समय नंबियार मिषाव वाद्य (ढोलक जैसा एक भारी साज) को उठाकर दीपक की प्रदक्षिणा किया करते हैं। इस बार यह रस्म नहीं निभाई जा रही है। यह वाद्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। हुजूर को कुछ फर्क नहीं मालूम पड़ेगा, यही सोचकर नंबियार इस रस्म को छोड़ रहे हैं। इस रस्म का पालन न होना हुजूर की प्रतिष्ठा के लिए बहुत ही बुरा है।"

नंबूरी के इन झूठे वचनों पर विश्वास करके उस सीधे स्वभाव वाले तहसीलदार ने अगले दिन बेचारे नंबियार से महामेरु के समान भारी मिषाव वाद्य को उठवाकर दीपक की प्रदक्षिणा करवाई। केवल एक दिन ऐसा करने पर ही नंबियार के प्राण सूखने लगे। उसे हारकर नंबूरी की शरण में जाना पड़ा। तब नंबूरी ने तहसीलदार को दूसरे प्रकार से फुसलाकर नंबियार की दुर्दशा का अंत करवाया।

फिर एक बार यात्रा के दौरान मुट्टस्सु नंबूरी एक प्रतिष्ठित नंबूरी के घराने में भोजन करने के लिए गए। मुट्टस्सु नंबूरी जानते थे कि यह नंबूरी पथिकों को पीने के लिए पानी तक न देनेवाला महाकंजूस है। इसलिए उन्होंने यहां भी एक तरकीब से ही काम लिया। बरामदे में खड़े होकर उन्होंने धीमी-सी आवाज में खांसा तो घर के अंदर देवाराधना कर रहे गृहस्थ नंबूरी बुरा-सा मुंह बनाकर और लाल-लाल आंखें दिखाते हुए धीमे से बाहर आए और पूछा, "किसलिए आए हो?"

मुट्टस्सु नंबूरीः- मैं यहां से कुछ दूर एक जगह गया था और अब लौट रहा हूं। हमारी पूज्य माताजी का आज श्राद्ध है। यदि संभव हो तो मैं चाहता हूं कि यह श्राद्ध बिना रुकावट के आपके यहां हो जाए। पैसा चाहे जितना खर्च हो, कोई बात नहीं। मेरा आपसे यह भी अनुरोध है कि पुरोहित का स्थान भी आप ही ग्रहण करें। कृपा करके आप यह श्राद्ध करवा दें।

यह सुनकर गृहस्थ नंबूरी ने सोचा कि दक्षिणा और द्रव्य के रूप में काफी माल हथियाया जा सकता है और कहा, "तो क्या आप चतुर्विधि से श्राद्ध कराना पसंद करेंगे?

मुट्टस्सु नंबूरीः- मां का श्राद्ध हर साल इसी विधि से होता आया है। इसलिए इस बार भी चतुर्विधि श्राद्ध ही हो ऐसा मेरा आग्रह है। पैसे की कोई चिंता नहीं है।

गृहस्थः- तब सब प्रबंध हो जाएगा।

मुट्टस्सु नंबूरीः- तब आप कृपा करके तेल आदि लगाकर सुखपूर्वक स्नान करके आएं। तेल का खर्चा जो भी हो, वह मैं दूंगा।

गृहस्थ तुरंत राजी हो गया। फिर अंदर जाकर सब चीजों को यथाशीघ्र तैयार करने का आदेश देकर तेल लेकर मुट्टस्सु नंबूरी के साथ स्नान करने चला गया। मुट्टस्सु नंबूरी क्षणभर में ही स्नान पूरा करके बाहर आ गए और गृहस्थ से बोले, "मैं जाकर सब प्रबंध देखता हूं। आप इत्मीनान से स्नान करके आएं", और गृहस्थ के घर लौट आए। तब तक गृहस्थ की पत्नी ने श्राद्ध के भोजन के लिए आवश्यक सभी व्यंजन तैयार करवाकर उन सबको एक कमरे में रखकर दरवाजा भिड़ाया और अपनी नौकरानी से यह कहते हुए रसोईघर चली गई कि "जरा कह आ कि अब अंदर आया जा सकता है।" यह सुनकर मुट्टस्सु नंबूरी तुरंत कमरे में घुस गए और सभी खिड़की-दरवाजे बंद करके वहां बैठकर स्वयं ही परोसकर श्राद्ध का भोजन करने लगे। कुछ समय बाद गृहस्थ स्नान करके लौटा और दरवाजा खटखटाकर मुट्टस्सु नंबूरी को बुलाने लगा। तब मुट्टस्सु नंबूरी ने कहा, "बस मैं अभी आया। कृपा करके आप दो पल इंतजार करें। यह काम जरा पूरा कर लूं।" और इत्मीनान से खाते रहे। खाना खाकर दाएं हाथ को मोड़कर रखते हुए, बाएं हाथ से जब उन्होंने दरवाजा खोला तो गृहस्थ ने नंबूरी को देखकर कहा, "यह क्या, मां का श्राद्ध है बताकर सब तुम्हीं ने खा डाला?"

मुट्टस्सु नंबूरीः- आप क्रोध न करें। अपनी असावधानी से मुझसे एक गलती हो गई। यहां आने पर ही मुझे इसके बारे में पता चला। आज मेरी मां का श्राद्ध नहीं, मेरा जन्मदिन है। लेकिन इसमें परेशानी की कोई बात नहीं है। भोजन सब अव्वल दर्जे का था। अडप्रदमन (एक प्रकार की खीर) तो लाजवाब थी। सभी व्यंजन अच्छे बने थे।

यह सुनकर गृहस्थ नंबूरी को ऐसा क्रोध चढ़ा कि लाल-लाल आंखें तरेरने के सिवा उससे कुछ बोलते न बना। वह अभी यह सोच ही रहा था कि इसका उत्तर किन शब्दों में दिया जाए कि मुट्टस्सु नंबूरी हाथ धोकर वहां से चलते बने।

ये एक बार आराट्टुप्पुषा का उत्सव देखने गए। इस उत्सव में लोग अपने पास मौजूद सभी पूंजी और जितना भी पैसा उधार मिल सके, उससे सोने-चांदी-हीरे के तरह-तरह के आभूषण बनवाकर, उनसे सिर से पैर तक सजकर जाते थे। लेकिन मुट्टस्सु नंबूरी इस प्रकार नहीं गए। उनके घराने में जितनी कीमती चीजें थीं, उन सबको एक संदूक में डालकर उस संदूक को लिए वे उत्सव में पहुंचे। उत्सव के मैदान में एक पीपल के पेड़ के नीचे इस संदूक को सिर पर रखकर वे खड़े हो गए और उत्सव की गतिविधियां देखने लगे। कुछ लोगों ने उनसे उनकी इस असाधारण व्यवहार का कारण पूछा। तब मुट्टस्सु नंबूरी ने कहा, "प्रत्येक व्यक्ति के पास कितनी धन-दौलत है, यह प्रदर्शित करना ही यहां उद्देश्य है न? नहीं तो ये सब लोग इतने सोने के गहने का बोझ ढोते हुए यहां क्यों आए हैं? मैं भी अपनी कमाई हुई कुछ चीजें यहां लाया हूं। मैंने सोना नहीं वस्तुएं कमाई हैं। इसलिए मुझे उन्हें संदूक में डालकर यहां लाना पड़ा।

जितना वे उठा सकते थे, उससे भी अधिक वजन के आभूषणों के बोझ के बावजूद इतराते बहुत से "योग्यों" की अकड़ यह सुनकर कुछ दूर हो गई, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है।

जब ये पहली बार तिरुवनंतपुरम गए तब मंदिर की घोषयात्रा के दौरान धोती से सिर को पूरा ढक कर मंदिर के चबूतरे में बने पत्थर के एक बड़े हौज में बैठ गए और वहां के राजा पोन्नुतंबुरान को सिर्फ अपना चेहरा दिखाने का यत्न करने लगे। जब राजा की नजर उस हौज की ओर गई तो उन्होंने इस चेहरे को देखकर पूछा, "पत्थर के हौज में कौन बैठा है, उसे पकड़कर यहां लाओ।" फौरन राजसेवकों ने मुट्टस्सु नंबूरी को राजा के सामने हाजिर किया। तब राजा ने उनसे पूछा, "हौज में किस लिए बैठे थे?"

नंबूरीः- यहां आने पर आपको चेहरा दिखाना चाहिए, ऐसा मैंने सुना था। हौज में बैठने पर ऐसा करने में तकलीफ नहीं होगी, यह सोचकर मैं उसमें बैठ गया।

यह वक्रोक्ति सुनकर राजा नाराज होने के बदले अत्यंत प्रसन्न हुए और नंबूरी को इनाम दिया। यह सब इनके खाए मूकांबिका के त्रिमधुर प्रसाद का माहात्म्य था। ये चाहे जो कहें या करें, उससे इन्हें कोई हानि नहीं होती थी। ये हर साल त्रिप्पूणित्तरा के पूरम (उत्सव) में भाग लेने जाते थे। आट्टम (नाटक), ओट्टम तुल्लल (नृत्य-नाटिका), ञाणिन्मेलक्कलि (तनी हुई रस्सी पर नृत्य), वालेरु (तलवार फेंकने की स्पर्धा), चेप्पडिविद्या (बाजीगिरी), अम्मानाट्टम (एक प्रकार का खेल जिसमें गेंद को फेंककर पकड़ा जाता है), कुरत्तियाट्टम (मदारियों का एक खेल), आंडियाट्टम (एक प्रकार का धार्मिक नृत्य) आदि सभी में ये भाग लेते थे। कभी-कभी ये अपने स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति को भाग लेने को कहते और बदले में उसे पैसे देते। नाटक के संवाद चूंकि दूसरों से नहीं बुलवाए जा सकते, इसके लिए मुट्टस्सु नंबूरी को स्वयं आना पड़ता। वे नाटक के पात्र का वेष धारण करके दीपक के सामने आकर खड़े हो जाते, बोलते कुछ नहीं, क्योंकि उन्हें पात्र के संवाद याद नहीं होते थे। इसलिए उनके नाटकों को देखने कोई नहीं जाता था। एक बार उन्होंने तय किया कि सभी लोगों को अपनी ओर खींच कर ही रहूंगा। जो तरीका उन्होंने अपनाया वह बहुत सरल था। दोनों हाथों से सिर को थामकर वे जोर से चिल्ला उठे, "हाय, मेरे भाई!" यह सुनकर लोग सब यह जानने के लिए उनके पास दौड़े आए कि माजरा क्या है। तब उन्होंने कहा, "यों चिल्लाते हुए शूर्पणखा अपने भाई खर के पास दौड़ी", और झट से अपना संवाद पूरा कर दिया। यह कहने की जरूरत नहीं कि इस प्रकार छकाए जाने से सभी लोग बहुत झल्लाए।

एक दिन एक अच्छा विद्वान नंबूरी को धिक्कारने के उद्देश्य से उनके पास गया। वह नंबूरी के संवादों को सुनकर उनमें गलती निकालना चाहता था। तब नंबूरी ने
घडा पडा घडपडा घडपाड पाडा
भाडा चडा चड चडा चड चाड चाडा
मूढा कडा कडकडा कडकाड काडा
कूडा कुडा कुडुकडा कडियाडि कूड

इस प्रकार का एक श्लोक कहा और मनमाने ढंग से मूढ़तापूर्ण बातें बताकर उसकी व्याख्या की। इसके तुरंत बाद उस विद्वान ने कहा, "अरे, यह श्लोक किस काव्य का है? इसका अर्थ एक बार और बताएं तो अच्छा।"

नंबूरीः- ऐ, धोबी! तेरे कहने पर सब अर्थ बताने के लिए मैं क्या तेरा शिष्य हूं? काव्य के बारे में जानना है तो ग्रंथों के जानकार किसी पुरुष से जाकर पूछ। मुझे बताने के लिए फुरसत नहीं है। लगता है कि यहां मेरे सिवा कोई और विद्वान आया ही नहीं है।

मुट्टस्सु नंबूरी ने अनेक अवसरों पर अनेक श्लोक मलयालम भाषा में रचे हैं। वे सब कुछ-कुछ अश्लील होने से यहां दिए नहीं जा सकते। ये सभी श्लोक खासे अच्छे बन पड़े हैं।

यात्रक्कली (एक प्रकार का देशी नाटक) के दौरान ये कोंगिणी (बनजारी स्त्री) आदि का वेष धारण करते थे। सुना है कि इनके सब वेष काफी अच्छे होते थे। इनके वचन हमेशा हास्यरसपूर्ण होते थे। वेष धरकर जब ये मंच पर आते थे तब इनके जाने तक कोई अपनी हंसी रोक नहीं पाता था। इनका वेष देखनेवाले बहुत से लोग आज भी जीवित हैं। ये नंबूरी कुछ समय के लिए तिरुवारप्पु में बड़े मेनोन (मंदिर के मुख्य प्रबंधक) के रूप में भी रहे थे।

(समाप्त)

18 मई, 2009

10. मुट्टस्सु नंबूरी - 3

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

फिर एक बार वे शाम के वक्त अंबलप्पुषा नदी में जाकर स्नान आदि के बाद संध्यावंदन करके मंदिर में गए। उस दिन किसी व्रत-उपवास के कारण वे रात का भोजन न करके केवल कुछ अल्पाहार ही ग्रहण करनेवाले थे। इसका प्रबंध कैसे हो यह विचारते समय उन्होंने मंदिर के एक पुजारी को रात की पूजा के नैवेद्य के अप्पम (एक प्रकार का मिष्टान्न) लेकर अपने रहने के भवन की ओर जाते देखा। नैवेद्य के अप्पम को सुपात्र पथिकों को देने का इस मंदिर का नियम था, लेकिन अर्से से उसे पुजारी ही हड़प लेते थे। यदि पथिकों को देते भी तो दो-एक अप्पम से ज्यादा नहीं। इन सब प्रपंचों की जानकारी मुट्टस्सु नंबूरी को थी। इसलिए वे पुजारी के पीछे लग गए और उसके निवासगृह पहुंच गए।

नंबूरीः- अजी पुजारी जी, इधर के अप्पम यदि कोई खाना चाहे तो एक बार में ज्यादा से ज्यादा कितने खा सकता है?

पुजारीः- बीस से अधिक एक भी अप्पम खाना असंभव होगा।

नंबूरीः- जाइए, जाइए, सौ तक खाना किसी के लिए भी मामूली बात होगी। मेरे जैसा कोई हो तो दो सौ भी गटक जाएगा।

पुजारीः- किसी भी हालत में ऐसा नहीं हो सकता। इतने समर्थ लोग अब भूलोक में पैदा नहीं होते। तीस के ऊपर कोई नहीं खा सकता, इसमें संदेह नहीं।

नंबूरीः- आपको भारी गलतफहमी है। दो सौ तो मैं खाकर दिखा सकता हूं। सच कहता हूं।

यों वे दोनों जोर-जोर से बहस करने लगे। बात यहां तक बढ़ गई कि दोनों में पांच-पांच रुपए की शर्त ही लग गई। "इसका अभी फैसला हो जाएगा," यह कहकर पुजारी ने दो सौ अप्पम निकालकर एक कड़ाही में डाल दिए और कड़ाही नंबूरी के सामने रख दी। नंबूरी वहीं बैठकर धीरे-धीरे अप्पम खाने लगे। दस-पंद्रह अप्पम खा लेने पर उनका पेट भर गया। तब उन्होंने कहा, "अरे पुजारी जी, मैंने नहीं समझा था कि तुम इतने होशियार हो। मैं ही मूर्ख ठहरा। अपने पेट की क्षमता के बारे में मुझसे भी अधिक तुम्हें मालूम है। देखो, मेरा पेट बिलकुल भर गया है। अब एक अप्पम भी मुझसे नहीं खाया जाएगा।

पुजारीः- तब रुपए गिन दो। मैंने तो पहले ही कहा था यह असंभव है।

नंबूरीः- अबे धतूरे के बीज! मंदिर प्रबंधकों ने जो अप्पम राहगीरों के लिए निश्चित किए हैं, उन्हें तू रोज हड़पता है। उनके मूल्य में से वे पांच रुपए काटकर बाकी रुपए मुझ राहगीर के यहां भिजवा दे।"

यों कहकर नंबूरी ने अपनी राह पकड़ी।

फिर एक बार वे एक मंदिर में जा पहुंचे। सुबह का समय था। उस मंदिर का प्रबंध सरकार द्वारा होता था, लेकिन सब अधिकार वहां के वारियर के हाथों में थे। यह वारियर बड़ा धनवान और गर्वीला व्यक्ति था। नंबूरी स्नान करने जब तालाब के किनारे गए, तो वारियर धोती उतारकर बैठा अपने शरीर पर तेल मल रहा था। नंबूरी को देखकर वारियर ने किसी भी प्रकार का शिष्टाचार प्रदर्शित नहीं किया। उस प्रदेश का एक प्रधान व्यक्ति और मंदिर का अधिकारी होने के कारण वारियर सब लोगों के साथ ऐसे ही पेश आता था। नंबूरी इन सब बातों से परिचित थे, इसलिए वे वारियर के पास जाकर बोले, "तेल मालिश हम दोनों साथ मिलकर करते हैं। मुझे भी तेल लगाकर स्नान किए बहुत दिन हो गए।" यह कहकर वे भी वारियर की तरह उनके पात्र से तेल निकालकर अपने शरीर पर मलने लगे। वारियर को बड़े जोरों का गुस्सा आया लेकिन वह उस समय चुप रहा। जल्दी-जल्दी तेल मलकर और वारियर के इंज और ताली (बाल और शरीर धोने के लिए औषधों से बने साबुन जैसे साधन) लेकर क्षणभर में स्नान करके नंबूरी बाहर आए और मंदिर पहुंचे। तब तक दोपहर की पूजा भी समाप्त हो गई थी। देवाराधना सब समाप्त होने पर पुजारी ने सूचना दी कि नमस्कार करने का समय हो गया है। तुरंत नंबूरी खाना खाने बैठ गए। इस मंदिर में दोपहर की पूजा में सरकार की तरफ से खीर का नैवेद्य चढ़ाया जाता था। पूजा के बाद उसे राह चलते किसी योग्य ब्राह्मण को भोजन खिलाते समय परोसा जाता था। लेकिन अर्से से उसे हर रोज वारियर स्वयं अपने घर ले जाकर खा जाता था। यह सब भी मुट्टस्सु नंबूरी को पता था। इसलिए जब भोजन आधा समाप्त हुआ तो परोसनेवाले ब्राह्मण से उन्होंने कहा कि खीर ले आइए। "वारियर की आज्ञा के बिना खीर नहीं परोसी जा सकती," उस ब्राह्मण ने कहा। तब नंबूरी ने कहा, "वारियर ने ही कहा है, निस्संकोच ले आइए।" यह सुनकर उस ब्राह्मण ने खीर परोसा और नंबूरी ने यथेष्ट मात्रा में खीर खाई। पेट भर जाने पर नंबूरी मंदिर के ही चबूतरे पर जाकर लेट गए।

फिर वारियर स्नान-जप आदि समाप्त करके खाना खाने बैठे। भोजन आधा हो जाने पर उन्होंने खीर मांगी। तब परोसने वाली स्त्री ने कहा, "खीर तो उस राहगीर नंबूरी को दे दी गई, ऐसा पाकशाला के ब्राह्मणों ने कहलवाया है।"

वारियरः- अच्छा? उसे किसके कहने पर दिया गया?

स्त्रीः- उस नंबूरी ने हमसे कहा था, वारियर ने ऐसा कहा है।

वारियरः- ओह! शैतान ने झूठ बोलकर खीर साफ कर दी! इस धूर्त से दो सवाल पूछने ही पड़ेंगे। बाकी सब भोजन उसके बाद ही होगा।

यह कहते हुए वारियर झूठे हाथों को टेढ़ा करके परे रखते हुए गुस्से से मंदिर के चबूतरे पर पहुंचा। "खीर लेकर खाने मैंने ही तुमसे कहा था, क्यों?" वारियर ने नंबूरी से कहा।

नंबूरीः- अबे धोबी! तू भी कोई वारियर है! तुझमें है अष्टांगहृदय? पागल कहीं के! मोनपल्ली के महायोग्य शंखुवारियर एक सच्चे अष्टांगहृदयी वारियर हैं। उन्हीं ने मुझसे कहा कि तेल मलकर नहाने के बाद खीर खानी चाहिए। नहीं तो तेरी बात कोई क्यों सुनता। मैं क्या तेरा नौकर लगता हूं?"

नंबूरी की हेकड़ी सुनकर वारियर अवाक रह गया। इससे पहले किसी ने भी उसे यों बेइज्जत नहीं किया था। उसके लिए यह अपमान बिलकुल असहनीय हो गया। कहीं यह अक्खड़ नंबूरी सबके सामने और भी कुछ अंड-बंड बककर मेरी रही-सही इज्ज्त भी मिट्टी में न मिला दे, यह सोचकर बहुत लज्जा के साथ वह अभिमानी व्यक्ति क्षण भर में ही वहां से सरक गया। नंबूरी भी थोड़ी देर बाद उठकर चले गए।

(... अगले लेख में जारी)

17 मई, 2009

10. मुट्टस्सु नंबूरी -2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

एक बार ये नंबूरी कहीं गए थे। वहां उन्होंने एक शास्त्री को कुछ बालकों से संस्कृत महाकाव्यों का पाठ कराते देखा। शास्त्री की पढ़ाने की रीति और बच्चों के पढ़ने आदि को देखते हुए ये नंबूरी वहीं कुछ देर रुक गए। इस बीच शास्त्री लघु-शंका निवारण के लिए तालाब के किनारे गए। उस समय एक बालक जो रघुवंश पढ़ रहा था, एक शब्द का अर्थ समझ न सकने से पढ़ते-पढ़ते रुक गया। यह देखकर नंबूरी ने उससे पूछा, "क्या बात है, चुप क्यों हो गए?"

बालकः- एक शब्द का अर्थ समझ नहीं पड़ रहा है।

नंबूरीः- किस शब्द का?

बालकः- "करी" वाला यह शब्द।

नंबूरीः- वह मैं बताए देता हूं। "कोयले का टुकड़ा" यों कह दो बस। (मलयालम शब्द "करी" का अर्थ होता है "कोयला")।

माघ का पारायण करनेवाला दूसरा बालकः- "अच्छस्फटिकाक्षमला" इसका तात्पर्य मुझे भी नहीं मालूम पड़ रहा।

नंबूरीः- "अच्छस्फटिकाक्षमाला", यानी अच्छन (मलयलाम के इस शब्द का अर्थ होता है पिता) की स्फटिकाक्षमाला। अच्छन यानी मां का जार, नायर। स्फटिकाक्षमाला क्या है, यह मुझे भी नहीं मालूम। शास्त्री से ही पूछ लेना।

चूंकि नंबूरी ने यह सब एकदम गंभीर मुख मुद्रा बनाकर कहा था, बच्चे उनकी बात मानकर वैसा ही पढ़ने लगे। तब तक शास्त्री लौट आए और बच्चों को इस प्रकार की बेरसिरपैर की बातें बकते हुए देखकर बहुत नाराज हुए। तब बच्चों ने कहा कि नंबूरी ने उन्हें इस प्रकार कहने को कहा है। यह सुनकर शास्त्री और नंबूरी में नोक-झोंक शुरू हो गई।

शास्त्रीः- यह क्या नंबूरी! तुमने बच्चों को इस प्रकार की ऊटपटांग बातें क्यों सिखाई?

नंबूरीः- तेरी अपढ़ता के कारण ही तुझे यह सब ऊटपटांग लग रहा है। अपने आपको बहुत बड़ा शास्त्री बताने और अध्यापक बनकर इतराने से कुछ नहीं होता, प्यारे। थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर ही दूसरों को पढ़ाने बैठना चाहिए। नहीं तो कम से कम जानकार लोगों की सलाह मान लेने की तमीज होनी चाहिए।

शास्त्रीः- अच्छा! तब तू अपने आपको मुझसे बड़ा विद्वान समझता है, क्यों?

नंबूरीः- इसमें तुझे इतना संदेह क्यों हो रहा है, रे? अभी मैं एक सवाल पूछूं तो तारे नजर आने लगेंगे।

शास्त्रीः- ऐसी बात है? तब पूछ कर ही देख ले।

नंबूरीः- तूने अमरकोश पढ़ा है कि नहीं ?

शास्त्रीः- पढ़ा है, उससे तुझे क्या लेना-देना है?

नंबूरीः- उसी में से एक सवाल करता हूं। "इंदिरालोकमाता मा... भार्गवीलोकजननी" वाले श्लोक में "लोकमाता" और "लोकजननी" इन दोनों का एक-साथ प्रयोग क्यों हुआ है? क्या केवल एक से ही काम नहीं चल जाता?

शास्त्रीः- एक से भी काम चल जाता।

नंबूरीः- इसीलिए तो कहता हूं कि तुझे कुछ नहीं आता। अत्यंत संक्षिप्त रूप से लिखे गए इस ग्रंथ के प्रत्येक पद में अति गंभीर तात्पर्य कूट-कूटकर भरा है। इसलिए रचयिता ने अकारण इसमें कोई भी शब्द नहीं रखा है।

शास्त्रीः- तब इन शब्दों के प्रयोग का करण तू ही बता डाल।

नंबूरीः- (ऊपर की ओर और नीचे की ओर बारीबारी से उंगली से इशारा करते हुए) उस लोक की माता और इस लोक की जननी, यही इस पद में कहा गया है। इस प्रयोग से यह पता चलता है कि महालक्ष्मी इहलोक की जननी और परलोक की माता हैं। इनमें से केवल एक शब्द रखा जाता तो उसका यह अर्थ निकलता कि वे केवल एक लोक की ही माता हैं। समझ आया उल्लू? लेकिन समझ में कैसे आता? कुछ पढ़ा-वढ़ा हो तब न?

यों कहकर नंबूरी वहां से उठकर चले गए।

(... अगले लेख में जारी)

16 मई, 2009

10. मुट्टस्सु नंबूरी - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

सरस्वती के क्रीड़ास्थल जिह्वा के बल पर अत्यंत कीर्तिशाली हुए ब्राह्मणों का यह घराना तिरुवितांकूर राज्य के प्रसिद्ध वैक्कम मंदिर के पास रहता था। इतना ही नहीं, वैक्कम मंदिर में आम भोज के प्रबंध का ठेका भी इसी घराने के ब्राह्मणों को मिलता था। आज भी मंदिर की सबसे बड़ी पाकशाला में मुट्टस्सु नंबूरी की अनुपस्थिति में चूल्हा सुलगाना मना है। यहां मैं इस घराने में लगभग पचास साल पूर्व जीवित एक नंबूरी के बारे में कुछ बताने वाला हूं।

इस प्रसिद्ध नंबूरी का असाधारण वाग्विलास किस प्रकार विकसित हुआ, इसके संबंध में सबसे पहले बता दूं। जब ये नंबूरी दीक्षा ग्रहण करके विद्यार्थी के रूप में रह रहे थे, तब उन्होंने एक बार मूकांबिका जाकर वहां के मंदिर में एक मंडलपूजा की थी। उस समय इस मंदिर के दिव्य त्रिमधुर नैवेद्य का सेवन करने का अवसर प्राप्त होने से ही उन्हें यह सिद्धि हुई। मूकांबिका का यह दिव्य प्रसाद मलयालियों को सुलभ न था, यह तो प्रसिद्ध ही है। इस त्रिमधुर के माहात्म्य के बारे में भी कुछ जान लेना आवश्यक है।

मूकांबिका में शाम की पूजा के बाद गर्भगृह का द्वार बंद करते समय शक्कर, केला, शहद आदि मधुर पदार्थों को एक बर्तन में डालकर प्रतिमा के सामने रखने का रिवाज है। चूंकि हर रोज रात होने पर देवी-देवता वहां आकर भगवती की पूजा करते थे, इसलिए उस त्रिमधुर नैवेद्य का सेवन भी वे ही करते थे। इसी कारण से उस त्रिमधुर को असाधारण दिव्यता प्राप्त है और उसे खानेवाले को वाणी का असामान्य विलास प्राप्त होता था। इसीलिए परदेशियों के प्रति, विशेषकर मलयालियों के प्रति, अत्यंत ईर्ष्या भाव रखने वाले वहां के पुजारी यह नैवेद्य किसी को भी न देकर, एक गहरे कुंए में फेंक देते थे। क्योंकि प्रतिदिन सवेरे गर्भगृह का द्वार खोलने पर पिछले दिवस देवी-देवताओं द्वारा भगवती की आराधना में अर्पित पारिजात आदि दिव्य पुष्प वहां पड़े मिलते थे, इसलिए मंदिर में यह नियम-सा बन गया था कि रात की पूजा करने वाला पुजारी अगले दिन सुबह पूजा न करे। इतना ही नहीं, "गर्भगृह में जो कुछ भी मैंने देखा है, उसके बारे में किसी से नहीं कहूंगा," यह प्रतिज्ञा कराकर ही पुजारियों को प्रतिदिन गर्भगृह में जाने दिया जाता था।

मुट्टस्सु नंबूरी ने मुकांबिका पहुंचकर कुछ ही दिनों में वहां के रीति-रिवाजों के बारे में सब जान लिया। जैसे भी हो इस दिव्य त्रिमधुर का सेवन करना ही है, यह निश्चय करके वे मौके की ताक में रहने लगे। एक दिन प्रभातवेला में प्रतिदिन की तरह स्नान आदि करके नंबूरी मंदिर के मंडप में पहुंचे और वहां आंखें मीचकर जप करने लगे। तब पुजारी ने आकर गर्भगृह का द्वार खोला। पिछले दिन के त्रिमधुर को कुंए में फेंकने से पहले एक घड़ा पानी लाने के विचार से पुजारी कुंए की जगत की ओर चल पड़ा। मौका देखकर नंबूरी ने गर्भगृह में घुसकर थोड़ा त्रिमधुर निकालकर अपने मुंह में डाल लिया। यह देखकर पुजारी दौड़कर आया और नंबूरी के गले पर अपना पंजा जमा दिया। फिर दोनों में वहीं द्वंद्व युद्ध ही छिड़ गया। लेकिन नंबूरी ने अपने मुंह में पड़ा त्रिमधुर किसी प्रकार पेट में भी डाल लिया। पुजारी की पुकारें सुनकर असंख्य जन वहां इकट्ठे हो गए। सभी ने मिलकर नंबूरी को पकड़कर मारना शुरू कर दिया। उनके सिवा वहां कोई और मलयाली आदमी मौजूद नहीं था। ऊपर से वे एक अपरिचित स्थल पर भी थे। जब वे सोच रहे थे कि हे ईश्वर, प्राण रक्षा के लिए क्या करूं? तब भगवती के अनुग्रह से उन्हें एक उपाय सूझा। श्वास खींचकर, आंखें मूंदकर वे यों लेट गए मानो मर ही गए हों। यह देखकर उन्हें मारनेवाले लोगों को डर लगा और वे नंबूरी को उठाकर मंदिर के बाहर ले गए। फिर भी श्वास के चलने का कोई संकेत न मिलने पर उन्होंने समझा कि यह तो मर गया और उन्हें उठाकर एक बड़े वन में ले जाकर डाल दिया। जब सब लोग चले गए, तब नंबूरी सावधानी से उठे। मार खाकर उनके शरीर का पोर-पोर दुख रहा था और हड्डी-पसली एक हो गई थी। फिर भी प्राणभीति के कारण वे किसी प्रकार वहां से लंगड़ाते हुए चल पड़े और कुछ ही दिनों में अपने घर पहुंच गए। फिर इलाज से वे पहले के जैसे स्वस्थ-तंदुरुस्त हो गए। इसके बाद ही उनमें एक-एक करके अनेक दिव्यताएं प्रकट होने लगीं। लेकिन इनके अधिकांश क्रियाकलाप असभ्यतापूर्ण होने से, कुछ निर्दोष प्रसंगों की ही यहां चर्चा संभव हो सकेगी।

(... अगले लेख में जारी)

15 मई, 2009

9. काक्कश्शेरी भट्टतिरी - 3

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

शक्तन तंबुरान की सभा में सभी पुरसकार जीत लेने के बाद भट्टतिरी लगातार वर्षों तक इसी प्रकार सभी पुरस्कार जीतते रहे। उन्हें हरा सकने वाला केरल ही में नहीं परदेशों में भी कोई नहीं रहा। चूंकि भट्टतिरी की बुद्धि और ज्ञान में निरंतर वृद्धि होती रही, वयस्क होते-होते वे अद्वितीय हो गए। दीक्षांत के बाद वे अपने घर पर ही स्थायी रूप से रहने लगे और बहुत-से स्थलों का भ्रमण करते रहे। एक बार उन्हें परदेश की किसी यात्रीशाला में रहना पड़ा। वहां अनेक देशों और जातियों के यात्री एकत्र थे। कुछ समय बाद किसी कारण से उनमें झगड़ा छिड़ गया और मारपीट तक की नौबत आ गई। सभी एक-दूसरे को गालियां भी दे रहे थे। तब उनमें से एक ने जाकर राजकर्मचारियों से शिकायत की। उन्होंने सभी यात्रियों को पकड़वा लिया। तब दोनों विरोधी दलों ने अपने-अपने संगठनों को सूचित किया और उनसे मदद मांगी और कहा कि हम निर्दोष हैं। तब राजकर्मचारियों ने कहा, "क्या आप किसी प्रत्यक्षदर्शी को पेश कर सकते हैं?" तुरंत दोनों पक्षों के लोगों ने कहा, "हां, वहां केरल का एक ब्राह्मण मौजूद था। उसने सब कुछ सुना और देखा-समझा होगा।" कर्मचारियों ने भट्टतिरी को भी पकड़वाकर मंगवाया और उनसे पूछा। तब भट्टतिरी ने वहां घटी सभी घटनाओं का सच्चा विवरण प्रस्तुत किया। कर्मचारियों ने कहा, "इन दोनों दलों ने क्या-क्या असभ्य बातें कहीं, यह भी आप बताएं।" इसके उत्तर में भट्टतिरी ने कहा, "मुझे इन सबकी भाषाओं का ज्ञान नहीं है। इसलिए इनके शब्दों का अर्थ मैं नहीं जानता। लेकिन इन्होंने क्या-क्या कहा था, वह मैं आपको बताए देता हूं।" यह कहकर भट्टतिरी ने दोनों पक्षों के लोगों ने जो-जो शब्द कहे थे, वे सब यथाक्रम कह डाले। कन्नड, तेलुगु, मराठी, हिंदी, तमिल आदि अनेक अपरिचित भाषाओं में अनेक लोगों द्वारा झगड़े में कहे गए सभी शब्दों को क्रमानुसार याद रखना और दूसरे स्थान पर यथाक्रम बिना एक अक्षर भी चूके कह पाना उनके अद्भुत स्मरण शक्ति का परिचायक था।

भट्टतिरी छुआछूत, शुद्धि-अशुद्धि आदि अंधविश्वासों को नहीं मानते थे। वे किसी के भी बुलाने पर उनके यहां जाकर भोजन कर आते थे। वे सभी मंदिरों और ब्राह्मणालयों में जाते थे और सभी से हिलते-मिलते थे। स्नान भी सुख और स्वच्छता के लिए ही करते थे, न कि शुद्धि के विचार से। यह सब देखकर केरल के अन्य ब्राह्मणों को बहुत परेशानी होने लगी। वे सब भट्टतिरी के पीठ पीछे कहते कि शुद्धाशुद्ध का विचार न करनेवाले और देश के रीति-रिवाजों का पालन न करनेवाले इस व्यक्ति को हमारे घरों और मंदिरों में घुसने नहीं देना चाहिए। लेकिन उनके आगे कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी। वे सब जानते थे कि भट्टतिरी के आगे युक्ति एवं शास्त्र के प्रमाणों से अपनी बात सिद्ध करने की योग्यता उनमें से किसी में भी नहीं है।

एक बार जब तलियिल मंदिर की ब्राह्मणसभा में हर बार की तरह भट्टतिरी पुरस्कार की सभी थैलियां जीतकर जा रहे थे, तब कुछ ब्राह्मणों के साथ उनका इस प्रकार संभाषण हुआः-

ब्राह्मण लोगः- आपदि किं करणीयम्?

भट्टतिरीः- स्मरणीयं चरणयुगलम्बायाः।

ब्राह्मण लोगः- तत्स्मरणं किं कुरुते।

भट्टतिरीः- ब्रह्मादीनपि च किंकरीकुरुते।

भट्टतिरी उन सबके लिए मुसीबत बन गए थे और भट्टतिरी से छुटकारा पाना उनके लिए बहुत आवश्यक हो गया था। इसीलिए ब्राह्मणों ने उनसे पूछा था, "मुसीबत में क्या करना चाहिए?" भट्टतिरी ने उत्तर दिया, "देवी के चरणों का स्मरण करना चाहिए" ब्राह्मणों ने फिर पूछा, "देवी के चरणों के स्मरण से क्या होगा?" भट्टतिरी ने उत्तर दिया। "वह ब्रह्मा तक को आपका सेवक बना सकता है।" इसके बाद वे सब चले गए।

अगले ही दिन सभी ब्राह्मणों ने मिलकर पद्म का चिह्न बनाया और उस पर दीपक रखकर देवी की पूजा अनेक प्रकार के मंत्रों और पुष्पों से करने लगे। यों जब चालीस दिन की भगवती सेवा पूरी हुई और इकतालीसवें दिन भट्टतिरी वहां आए तो बाहर ही खड़े होकर उन्होंने ब्राह्मणों से पीने के लिए पानी मांगा। तुरंत एक व्यक्ति एक बर्तन में पानी लेकर आया और उसे भट्टतिरी को दिया। भट्टतिरी ने उसे लेकर पिया और बर्तन को उलटकर रखते हुए कहा, "मैं भ्रष्ट हो गया हूं। मैं अंदर नहीं आऊंगा और आप सबको नहीं छुऊंगा।" यह कहकर वे वहां से चले गए। इसके बाद किसी ने भी उन्हें नहीं देखा। इसलिए उनका निधन कहां और कब हुआ इसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। उनके जीवनकाल के बारे में भी कोई मजबूत सबूत उपलब्ध नहीं है। लेकिन अनुमान किया जा सकता है कि वे कोल्लम संवत के ६००-७०० के मध्य विद्यमान थे। उनकी कोई संतान न होने से और उनके घराने में कोई अन्य पुरुष न होने से उनके बाद उनका घराना भी निश्शेष हो गया।

(समाप्त)

14 मई, 2009

9. काक्कश्शेरी भट्टतिरी - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

काक्कश्शेरी भट्टतिरी दीक्षांत से पहले ही सर्वज्ञ, वागीश तथा तार्किक हो गए थे। इसलिए केरल के सभी ब्राह्मणों ने उनसे प्रार्थना की कि शक्तन तंबुरान की सभा में जाकर वे शास्त्रार्थ में उद्दंडशास्त्री को हराएं। वे तुरंत राजी हो गए। सभा जुड़ने के दिन वे तलियिल देवालय में पहुंचे। उद्दंडशास्त्री के पास एक तोता था जो वाद-विवादों में उनका प्रतिनिधि बनकर भाग लेता था। शास्त्रार्थ के लिए जाते समय शास्त्री इस तोते को भी साथ ले जाते थे। काक्कश्शेरी भट्टतिरी उनकी इस आदत से परिचित थे। इसलिए उन्होंने सेवक द्वारा एक बिल्ली भी उठवा ली। उस सेवक को सभागृह के बाहर खड़ा करके वे स्वयं अंदर प्रविष्ट हुए। सभागृह में शक्तन तंबुरान, उद्दंडशास्त्री व अनेक विद्वान एकत्र थे।

तंबुरान ने भट्टतिरी को देखकर कहा (उस समय भट्टतिरी ब्रह्मचारी ही थे):- "बेटे, यहां किस लिए आए हो? शास्त्रार्थ में भाग लेना चाहते हो?" भट्टतिरी ने उत्तर दिया, "हां"। तब शास्त्री ने टोका, "आकारो ह्रस्वः!" तुरंत भट्टतिरी ने जवाब दिया, "नहि, नह्याकारो दीर्घः। अकारो ह्रस्वः" (अर्थात, नहीं, आकार दीर्घ है ह्रस्व तो अकार है)। शास्त्री ने भट्टतिरी के छोटे कद (आकार) को देखकर आकारो ह्रस्वः यानी छोटे आकार का--बौना, इस अर्थ में कहा था। भट्टतिरी ने "आकार" का अर्थ "आ" अक्षर लेते हुए उत्तर दिया और पासा शास्त्री पर पलट दिया। शास्त्री को हार स्वीकार करनी पड़ी, और वे बहुत लज्जित हुए।

इस नोंक-झोंक के बाद सभा जुड़ी और वाद-विवाद शुरू हुआ। शास्त्री ने अपने तोते को सामने रख दिया। तुरंत भट्टतिरी ने अपनी बिल्ली को मंगवाकर तोते के सामने बैठा दिया। बिल्ली को देखकर तोते को मानो सांप सूंघ गया और वह कुछ न बोल सका। इसलिए स्वयं शास्त्री को सामने आना पड़ा। शास्त्री जो कुछ भी कहते, उस सबको भट्टतिरी गलत बताते और युक्तिपूर्वक अपनी बात की पुष्टि करते। जब यह स्पष्ट हो गया कि लाख कोशिश करने पर भी शास्त्री भट्टतिरी को हरा नहीं सकते, तब शक्तन तंबुरान ने कहा, "अब अधिक शास्त्रार्थ व्यर्थ है। रघुवंश काव्य के प्रथम श्लोक का आपमें से जो अधिक संख्या में अर्थ बताएगा, उसी को विजयी मान लिया जाएगा।" तंबुरान को विश्वास था कि शास्त्री के समान कोई भी इस श्लोक का अर्थ नहीं बता सकता। वे उस योग्य ब्राह्मण को इस प्रकार एक नौसिखिए से हारते हुए देखना नहीं चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उद्दंडशास्त्री के अनुकूल बात कही थी। दोनों प्रतिद्वंद्वियों ने राजा की बात मान ली। शास्त्री ने पहले अर्थ बताना शुरू किया और श्लोक की चार प्रकार से अर्थ निष्पत्ति की। यह सुनकर राजा तथा सभा के सभी सदस्यों ने यही सोचा कि इससे अधिक अर्थ इस श्लोक के हो ही नहीं सकते और सभी १०८ पुरस्कार शास्त्री के हिस्से में जाएंगे। लेकिन भट्टतिरी ने उस श्लोक के आठ अर्थ शास्त्री से भी अधिक स्पष्टता से, सरलता से, पूर्णता से तथा अक्लिष्ट रूप से बताए। यह सुनकर स्वयं शास्त्री ने अपनी हार मान ली। सभी १०८ पुरस्कार भट्टतिरी को मिले। तब शास्त्री ने कहा, "सबसे अधिक आयु वाले व्यक्ति के लिए निश्चित पुरस्कार मुझे मिलना चाहिए। यहां इकट्ठा हुए लोगों में मुझसे अधिक आयु वाला कोई नहीं है।" तुरंत भट्टतिरी ने कहा, "यदि उम्र ही मुख्य अर्हता है तो इस थैली का हकदार मेरा यह सेवक है जो पूरे पचासी वर्ष का है। मुझसे अधिक विद्यावृद्धता किसी की नहीं है, यह तो आप सब मान ही चुके हैं। इसलिए यह आखिरी पुरस्कार भी मुझे ही मिलना चाहिए।" क्यों कहानी व्यर्थ बढ़ाएं! युक्ति से भट्टतिरी को पराजित करनेवाला कोई और न होने से १०९वां पुरस्कार भी उन्हीं को देना पड़ा। उद्दंडशास्त्री व अन्य सभी परदेशी ब्राह्मणों का सिर लज्जा से नत हो गया और केरल के ब्राह्मण खुशी से फूले न समाए।

इसके बाद भी अनेक स्थानों पर और अनेक अवसरों पर उद्दंडशास्त्री और भट्टतिरी के बीच शास्त्रार्थ हुए। सभी में भट्टतिरी विजयी रहे। इन सभी मौकों पर काफी असभ्यतापूर्ण बातें कही गई थीं, इसलिए तथा विस्तार भय से मैं उन सबका विवरण यहां नहीं दे रहा हूं।

(... अगले लेख में जारी)

13 मई, 2009

9. काक्कश्शेरी भट्टतिरी - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

कोषिक्कोड के शक्तन (मानविक्रमन) तंबुरान के समय वेदशास्त्रपुराणों के मर्मज्ञ महाब्राह्मणों की एक सभा हर साल कोषिक्कोड के तलियिल देवालय में राज-संरक्षण में जुड़ती थी। इस सभा में वेद, शास्त्र, पुराण आदि के संबंध में ब्राह्मण शास्त्रार्थ करते थे और विजयी ब्राह्मणों को पुरस्कार-स्वरूप स्वर्णमुद्राओं की थैलियां मिलती थीं। वेदशास्त्रपुराणों की विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं को राजा ने १०८ विभागों में बांटकर प्रत्येक के लिए अलग स्पर्धा और पुरस्कार की राशि निश्चित की थी। इनके अलावा सभा के सबसे वयोवृद्ध ब्राह्मण के लिए १०९वीं थैली रखी जाती थी।

इस परंपरा के आरंभ हुए कुछ ही समय में केरल के ब्राह्मणों में सभी वेदों और सभी शास्त्रों को जानने वाले योग्य पुरुषों की संख्या निरंतर कम होने लगी और तंबुरान की यह प्रतिस्पर्धा परदेशों में भी विख्यात हो जाने से परदेशों से भी योग्य ब्राह्मण इसमें भाग लेने आने लगे। इससे पुरस्कार की थैलियां केरल के और परदेशों के ब्राह्मणों में बंटने लगीं। कुछ और समय बीतने पर वाद-विवादों में विजयी होने की क्षमता रखनेवाले ब्राह्मण केरल में दुर्लभ हो गए और पुरस्कार जीतने वालों में केरल के ब्राह्मणों की गिनती होनी बंद हो गई।

जब स्थिति इस प्रकार थी तब सर्वज्ञ, वागीश और कविशिरोमणि उद्दंड नामक एक शास्त्री ब्राह्मण इस सभा में हिस्सा लेने और शास्त्रार्थ करने परदेश से केरल आए। वे बहुत ही विज्ञ पुरुष होते हुए भी महा अभिमानी थे। उन्होंने निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करते हुए ही केरल में पदार्पण कियाः-

पलायध्वं पलायध्वं रे रे दुष्कविकुंजराः!
वेदांतवनसंचारी ह्यायात्युद्दंडकेसरी॥

यानी, "हे दुष्कविरूपी कुंजरो (हाथियो)! तुम लोग भाग जाओ, भाग जाओ, वेदांतरूपी इस वन में विहार करने उद्दंड नामक सिंह पधार रहे हैं।"

उन्होंने सभा में आकर सभी विभागों में शास्त्रार्थ किया और केरल के और परदेशों के सभी योग्य ब्राह्मणों को हराकर सबके सब पुरस्कार जीत लिए। उनके इस पराक्रम को देखकर शक्तन तंबुरान ने उनका बहुत आदर किया और उन्हें स्थायी रूप से राजप्रासाद में निवास करने का निमंत्रण दिया। साल दर साल ये ही शास्त्री सभा में आकर सभी को हराकर सभी थैलियां जीतकर ले जाने लगे।

ऐसी परिस्थिति में केरल के ब्राह्मणों को बहुत अधिक लज्जा और निराशा होने लगी। "हमारे बीच योग्य पुरुषों का अकाल पड़ गया है और परदेश से आया एक व्यक्ति राजसान्निध्य में आदर पा रहा है," यह सोचकर वे दुखी रहने लगे। इस दुखद परिस्थिति से छूटने का कोई उपाय करने के उद्देश्य से केरल के सभी प्रधान ब्राह्मण गुरुवायूर के मंदिर में इकट्ठे हुए। फिर उन सबने मिलकर विचार किया कि उद्दंडशास्त्री को हराने की क्षमता रखने वाले प्रतिभासंपन्न विद्वान हमारे मध्य कैसे पैदा हो। उन दिनों काक्कश्शेरी भट्टतिरी के घराने की एक स्त्री गर्भवती थी। यह समाचार जानकर वे सब ब्राह्मण मिलकर प्रसव होने तक प्रतिदिन उस स्त्री को एक दिव्य मंत्र जप कर मक्खन खिलाने और साथ-साथ गुरुवायूरप्पन से भी संकट-मोचन की निरंतर प्रार्थना करने लगे। इस प्रकार मंत्रबल और ईश्वरानुग्रह से उस स्त्री ने एक बालक को जन्म दिया, जो काक्कश्शेरी के भट्टतिरी के रूप में विश्वविख्यात हुआ।

काक्कश्शेरी भट्टतिरी बाल्यावस्था से ही प्रखर बुद्धि वाले थे। जब वे तीन साल के हुए तो उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। तब साल भर के लिए शोक मनाना आवश्यक हुआ। शोकावधि के दौरान कौओं के लिए बलि का अन्न रखकर ताली बजाते समय जो कौए आते थे, उनमें से किसी-किसी पक्षी की ओर इशारा करके यह ब्राह्मण शिशु अपनी माता से कहता था, "यह कौआ कल भी आया था।" उन्हें "काक्कश्शेरी" उपनाम इसी अद्भुत क्षमता के कारण प्राप्त हुआ। उनका असली नाम कुछ और था। कौए तक को एक बार देख लेने पर दोबारा पहचान सकने की विलक्षण क्षमता हर किसी में तो नहीं होती। चूंकि इस बालक के लिए यह मामूली बात थी, इससे उसकी बुद्धि की अति सूक्ष्मता का सहज ही अंदाजा हो जाता है।

ब्राह्मणों में जनेऊ धारण का समय आठवां वर्ष माना गया है। कहा भी गया है, "आठवें वर्ष में उपनयन विप्रों के लिए उत्तम है।" उपनयन के बाद नित्यकर्मानुष्ठान तथा वेद मंत्र आदि का अध्ययन करना पड़ता है। इसलिए बालक के इन सबके योग्य हो जाने के बाद ही उसके उपनयन करने की परंपरा है। लेकिन कुशाग्रबुद्धि वाले काक्कश्शेरी भट्टतिरी को तीसरे साल ही अक्षरज्ञान करा दिया गया और साढ़े पांच की आयु में उसका उपनयन संस्कार हुआ। इससे उसे उपनयन के बाद सीखने के लिए निर्धारित विषयों को पढ़ने में या नित्यकर्मानुष्ठानों को विधिवत करने में किसी प्रकार की भी कठिनाई नहीं हुई। उनके बाल्यकाल की एक घटना का उदाहरण मैं यहां देता हूं जिससे उनकी बुद्धि के माहात्म्य का परिचय मिलता है।

काक्कश्शेरी भट्टतिरी को बचपन से ही प्रतिदिन निकटस्थ मूक्कट्टथु (इस मलयालम शब्द का अर्थ है "नाक के सिरे पर") भगवती के मंदिर में भगवती-दर्शन के लिए ले जाया जाता था। एक दिन जब वे एक नौकर के साथ मंदिर जाकर लौट रहे थे, तब रास्ते में किसी ने पूछा, "कहां से आ रहे हैं महाशय?" तब पांच साल के उस बालक ने कहा, "मैं भगवती के दर्शन के लिए मंदिर गया था।" तब उस व्यक्ति ने कहा, "भगवती ने आप से क्या कहा?" इसके उत्तर में उस बालक ने निम्नलिखित श्लोक कहाः-

योगिमार सततं पोत्तुं तुंबत्तेत्तल्लयारहो ।
नाषियिलप्पादियाडील्ला पलाकाशेन वा न वा ॥

श्लोक का अर्थ न समझ आने से वह व्यक्ति थोड़ा लज्जित हुआ फिर उसने उस बालक से ही उसका अर्थ पूछा। तब बालक ने श्लोक का अर्थ इस प्रकार से समझायाः-

योगिमार सततं पोत्तुं- योगी लोग जिसे हर समय पकड़े रहते हैं (यानी नाक)

तुंबत्ते- पास वाली

तल्लयार- माता (यानी भगवती)

(इन तीनों पदों का सम्मिलित अर्थ बनता है- मूक्कट्टथु भगवती)

नाषी- समय की एक माप

पादी- आधा

नाषियिलपादी- नाषी का आधा (जिसे मलयालम में "उरी" कहते है।)

नाषियिलपादियाडिल्ला=उरियाडिल्ला=उरियाडियिल्ला (मलयालम में "उरियाडियिल्ला" का मतलब है "चुप रहीं")
(यानी कि भगवती बोलीं नहीं)।

पला- बहु

आकाशेन- मानेन (मलयालम में आकाश को "मानम" भी कहते हैं।)

पलाकाशेन- बहुमानेन (यानी अभिमान के कारण)

न वा- अन्यथा

कुल मिलाकर, "अभिमान के कारण या अन्य किसी कारण से भगवती नहीं बोलीं!"

बालक की यह व्याख्या सुनकर पूछनेवाले व्यक्ति ने आश्चर्य से सिर हिलाकर कहा, "निश्चय ही यह बालक सामान्य नहीं है" और अपनी राह पकड़ी।

(..अगले लेख में जारी)

12 मई, 2009

8. स्वामी विल्वमंगल

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

देवी-देवताओं को चर्मचक्षु से देखने की क्षमता रखनेवाले स्वामी विल्वमंगल के संबंध में जो न जानते हों ऐसे व्यक्ति कम से कम केरलवासियों में तो मेरे विचार से अधिक संख्या में नहीं होंगे। इन स्वामी जी के कारण केरल में अनेक देवालयों और रीतिरिवाजों का उद्भव हुआ है। इन सबके संबंध में न जाननेवाले कुछ लोग हो सकते हैं। उनकी जानकारी के लिए मैं इन स्वामी जी से संबंध रखनेवाले कुछ प्रसंगों का विवरण यहां देता हूं।

जब एक बार वृच्चिक माह में कार्ती के दिन स्वामी विल्वमंगल तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन देवालय में भगवद-दर्शन के लिए गए तो उन्होंने पाया कि भगवान गर्भगृह से गायब हैं। भगवान की अनुपस्थिति में उनकी आराधना कैसे करें, यों सोचकर वे बाहर आकर गर्भगृह की प्रदक्षिणा करने लगे। तब उन्होंने देखा कि भगवान देवालय की उत्तरी दीवार पर चढ़कर बड़े ध्यान से उत्तर की ओर देख रहे हैं। स्वामी तुरंत उनके पास गए और उनकी वंदना करके विनीत स्वर में पूछा, "यह क्या, आप यहां पधारे हुए हैं!" तब भगवान ने कहा, "अपनी परम प्रिय कुमारनेल्लूर कार्त्त्यायनी को स्नान आदि के बाद बड़े आडंबर और आघोष के साथ जाते हुए देखने के लिए ही मैं यहां आया हूं।" (उत्सव के अंतिम दिन सभी मंदिरों में मूर्ति का प्रक्षालन रात को ही होता है, लेकिन कुमारनेल्लूर में उत्सव के दिन प्रतिदिन सुबह भी मूर्ति का प्रक्षालन होता है और उसके बाद उसे सजाकर बड़ी धूम-धाम से घोषयात्रा में निकाला जाता है। यह घोषयात्रा नौवें दिन कार्ती के पर्व पर बहुत महत्वपूर्ण और दर्शनीय होती है।) उस दिन से प्रति वर्ष वृच्चिक महीने में कार्ती के दिन तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन देव की एक पूजा उत्तरी दीवार पर भी करने की परिपाटी चल पड़ी। इस रस्म के पीछे यही मान्यता है कि हर साल इस दिन भगवान कुमारनेल्लूर भगवती की घोषयात्रा देखने के लिए उत्तरी दीवार पर चढ़ते हैं। भगवान की इस आदत की जानकारी लोगों को स्वामी विल्वमंगल के कारण ही मिली, यह कहना जरूरी नहीं है।

एक अष्टमी के दिन जब स्वामी भगवद-दर्शन हेतु वैक्कम देवालय गए, तो देवालय भोजन करते ब्राह्मणों से भरा हुआ था। उनकी भीड़ को पार करके भीतर जाने पर स्वामी ने देखा कि भगवान गर्भगृह से नदारद हैं। यह कैसे हो गया, यों विचारते हुए जब उन्होंने सारे देवालय में खोजा तो भगवान को एक वृद्ध ब्राह्मण के वेष में उत्तरी दिशा में स्थित एक भोजनालय में एक खंभे के पास अन्य ब्राह्मणों के साथ बैठकर भोजन करते पाया। यद्यपि भगवान ब्राह्मण के वेष में थे, लेकिन स्वामी तो एक दिव्य पुरुष थे ही, उन्होंने भगवान को क्षण भर में ही पहचान लिया और उनके पास जाकर उनकी वंदना की और जनसाधारण को इस असाधारण घटना की सूचना दे दी। उस दिन से वैक्कम देवालय में आम भोजन के अवसरों पर उस खंभे के पास एक पत्तल भगवान के लिए भी बिछाई जाने लगी और उस पर भोजन के सभी व्यंजन परोसे जाने लगे। इतना ही नहीं वैक्कम में अष्टमी के दिन उत्तरी भोजनालय में भोजन करना अत्यंत विशिष्ट बात है, ऐसी एक मान्यता ब्राह्मणों में पैदा हो गई।

इसी प्रकार उत्सव के समय स्वामी भगवद-दर्शन के लिए अंबलप्पुषा गए। वहां भी देवालय में भगवान गर्भगृह में मौजूद नहीं थे। जब स्वामी गर्भगृह की प्रदक्षिण करने लगे तो उन्होंने देखा कि भगवान एक परदेशी ब्राह्मण का वेष धारण करके नाट्य मंडली के मारारों को भोजन परोस रहे हैं। भगवान के पास जाकर स्वामी ने उनकी स्तुति की और पूछा, "यहां भोजन बनाने-परोसने के लिए बहुतेरे लोग हैं। आप क्यों कष्ट कर रहे हैं?" तब भगवान ने कहा, "इन लोगों ने (मारारों ने) हमारे उत्सव को बड़े भव्य ढंग से संपन्न करने के लिए बहुत परिश्रम किया है। इन्हें पेट भर रुचिकर भोजन कराने में मुझे बहुत संतोष होता है। इसलिए उत्सव का भोजन पकाने-परोसने के लिए मैं हर साल नियमित रूप से यहां आता हूं।" उस दिन से अंबलप्पुषा के उत्सव के दौरान नाट्यशाला में जो आम भोज दिया जाता है, वह मारार लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया। आज भी लोग यही मानते हैं कि इस आम भोज को पकाने और परोसने के लिए स्वयं भगवान आते हैं।

विल्वमंगल स्वामी के संबंध में इस प्रकार की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। तिरुवनंतपुरम, तितवारप्पु आदि देवालयों के उद्भव का मूल कारण ये स्वामी ही थे, ऐसा वहां के स्थलपुराणों से ज्ञात होता है। चेरत्तला की कात्यायनी देवी की प्रतिष्ठा भी विल्वमंगल स्वामी के हाथों से हुई है, ऐसा सुना है। एक बार विल्वमंगल स्वामी चेरत्तला के तट मार्ग से कहीं जा रहे थे। जब वे एक वन प्रदेश में पहुंचे तो उन्होंने सात कन्याओं को स्नान करते हुए देखा। उन्हें शंका हुई कि ये कोई साधारण स्त्रियां नहीं हैं बल्कि देवियां हैं और वे उनके पास गए। तब वे सब वहां से भागने लगीं। स्वामी भी उनके पीछे भागे। इन सातों कन्याओं ने सात अलग-अलग तालाबों में छलांग लगा दी। स्वामी ने भी इनके पीछे इन तालाबों में छलांग लगाकर एक-एक को पकड़ कर अलग-अलग स्थानों पर बैठाया। सातवीं कन्या ने एक कीचड़ भरे तालाब में छलांग लगाई थी। इसलिए उसके सिर पर कीचड़ लग गया। उस कन्या को पकड़कर ले जाने से पहले थके हुए स्वामी कुछ देर तालाब में ही दम लेने के लिए रुके और दौड़ने के परिश्रम से हांफते हुए उस कन्या से बोले, "क्यों री, सिर पर कीच़ड़ लग गया? पुंश्चली! यहां बैठ।" यह कहकर उन्होंने उस कन्या को भी किनारे ले जाकर बैठाया। चूंकि इस कन्या के सिर पर कीचड़ लग गया था, इसलिए इस देवी का नाम "चेरत्तला भगवती" ("चेर" यानी कीचड़, "तला" यानी सिर--ये मलयालम भाषा के शब्द हैं।) हो गया और उस प्रदेश का नाम चेरत्तला पड़ गया। इस प्रकार चेरत्तला की भगवती विल्वमंगल स्वामी द्वारा स्थापित सात भगवतियों में से एक बनीं। इन सात भगवतियों में से सातवीं देवी साक्षात कात्यायनी थीं। चूंकि इनको प्रतिष्ठित करते समय स्वामी ने अपशब्द ("पुंश्चली" अर्थात छिनाल) कहा था, इसलिए इस देवी को असभ्य गीत एवं गाली-गलौज सुनना अत्यंत प्रीतिकर लगता है। चेरत्तला के उत्सव में गाए जानेवाले अश्लील गीत तो प्रसिद्ध ही हैं।

इस प्रकार विल्वमंगल स्वामी के अद्भुत कारनामों और उनके बारे में कथा-प्रसंगों का अंत नहीं है। यदि ये सारी कथाएं सच हैं तो इन सबके नायक स्वामी विल्वमंगल एक नहीं अनेक व्यक्ति रहे होंगे। अथवा उन्हें सामान्य मनुष्य से कहीं अधिक लंबी आयु प्राप्त हुई होगी। इसका कारण यह है कि तिरुवनंतपुरम, तिरुवारप्पु, ऐट्टुमानूर, चेरत्तला आदि स्थलों में जो अनेक देवालय इनके करकमलों से स्थापित बताए जाते हैं, उन सबका निर्माण लगभग सौ सालों के अंतराल में हुआ होना चाहिए। लेकिन इन सब मंदिरों का निर्माण इससे काफी लंबे कालखंड में हुआ है। इसी प्रकार अनेक कथाओं में तुंचेत्तेषुत्तच्चन, तलक्कुलत्तूर भट्टदिरी आदि महात्माओं को इन स्वामी का समकालीन बताया जाता है। यदि ये कथाएं सच हैं तो इन महात्माओं का जीवनकाल भी एक ही होना चाहिए। लेकिन इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि ये सब व्यक्ति अलग-अलग समय में जिए। इन सब विषयों की सूक्ष्म जानकारी रखनेवाले विद्वान पत्रादि से अपना मंतव्य स्पष्ट करें तो मैं उनका आभार मानूंगा।

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