30 अप्रैल, 2009

6. परयी से जन्मा पंदिरम कुल - 4 : नाराणत्तुभ्रांतन

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

नाराणत्तुभ्रांतन (नारण के पागल) की दिव्यताएं कहां तक सुनाएं! उनका मुख्य काम था भारी-भारी पत्थरों को धकेलकर पहाड़ियों के ऊपर चढ़ाना। पत्थर को पहाड़ की चोटी तक पहुंचाने के बाद वे उसे छोड़ देते थे और उसे स्वयमेव नीचे लुढ़कते देखकर ताली बजा-बजाकर हंसते थे। उन्हें ऐसा करते देखकर सबको इस तत्व का बोध हो जाता था कि मनुष्य को आध्यात्मिक ऊंचाइयों की ओर चढ़ाना अत्यंत कठिन होता है, पर उस ऊंचाई से उसका पतन पल भर में हो सकता है। शायद इसी महान सत्य से लोगों को परिचित कराने के लिए वे इतने परिश्रम से यह निरर्थक काम बार-बार दुहराते थे। महात्माओं के मनोगत को कौन जान सकता है!

इनके जीविकोपार्जन का साधन भिक्षा में प्राप्त अन्न ही था। इनके हाथ में तांबे का एक भिक्षा पात्र रहता था। भीख मांगने से इन्हें जो कुछ भी मिलता, उसे शाम होने पर ये जहां होते थे, वहीं रखकर पकाकर खा जाते थे। खा लेने के बाद वहीं लेटकर सो जाते थे। ये दिन में एक ही जून खाते थे। सुबह होने पर वहां से चल देते थे। दुपहर तक पत्थरों को पहाड़ियों के ऊपर चढ़ाते, फिर भीख मांगने निकल पड़ते। बस यही इनकी दिनचर्या थी।

एक दिन शाम होने पर ये एक श्मशान में जा पहुंचे। चूंकि इससे कुछ ही समय पहले कुछ लोग एक शव का दाह करके गए थे, वहां काफी मात्रा में लकड़ी और आग मौजूद थी। यह देखकर नारणत्तुभ्रांतन ने निश्चय किया कि यहीं खाना पकाया जाए और जलती चिता के ही पास तीन पत्थर रखकर चूल्हा बनाया। पास से बहती नदी से तांबे के बर्तन में जल लाकर उसमें चावल डालकर चूल्हे पर रखा और चिता से अंगारे निकालकर लकड़ी सुलगाई। इनके बाएं पैर में गठिया की तकलीफ थी, इसलिए उसे चूल्हे के गरम पत्थरों से सटाकर रखकर आग तापने और कुछ गुनगुनाने लगे। रह-रहकर उनकी आंखें भी मुंद जाती थीं। चूंकि पहाड़ी इलाके में कुहरा छाया हुआ था और ठंड भी पड़ रही थी, इसलिए अलाव के पास बैठने में उन्हें बड़ा सुख मिल रहा था। यों जब आधी रात बीत गई तो भूत-प्रेत-पिशाचों की सेना सहित श्मशान की भद्रकाली का जोर-शोर से वहां आगमन हुआ। उनके अट्टहासों और चीखों को सुनकर भी नाराणत्तुभ्रांतन जरा भी विचलित नहीं हुए। जब भद्रकाली व उनके साथ आए भूत नाराणत्तुभ्रांतन के निकट आए तो वहां प्रतिदिन के विपरीत एक मनुष्य को बैठा देखकर वे अत्यंत क्रुद्ध हुए। तब भद्रकाली ने गरजकर पूछा, "यहां आने की किसने हिम्मत की? वह तुरंत यहां से चला जाए।"

नाराणत्तुभ्रांतनः- क्या आप सब अंधे हैं? आपको दिखाई नहीं देता कि यहां बैठा हुआ मैं एक मनुष्य हूं? यहां से हटने का भी मेरा कोई इरादा नहीं है।

भद्रकालीः- नहीं है? तब हम तुझे डराएंगे।

नाराणत्तुभ्रांतनः- आपके डराने से मैं न डरूं तो?

भद्रकालीः- हमारे डराने पर न डरे, ऐसा भी कोई हुआ है?

नाराणत्तुभ्रांतनः- अच्छा? तो आप मुझे डराकर देख लीजिए।

यह सुनकर भद्रकाली को अपार क्रोध आया और उसने तथा सभी भूत-प्रेत-पिशाचों ने अपनी अंगारे जैसी आंखें तरेरकर, रक्त चुआती लाल जीभें बाहर निकालर, चांद की कलाओं जैसे घुमावदार खांग उभारकर, दांतों को किटकिटाकर तथा कान के पर्दों को चीरने वाला अट्टाहस करते हुए नाराणत्तुभ्रांतन को डराने उसकी ओर दौड़ पड़े। लेकिन नाराणत्तुभ्रांतन जरा भी विचलित हुए बिना मंद-मंद हंसते हुए वहीं बैठे रहे। तब श्मशान की भद्रकाली व उसके भूत-प्रेतों को असह्य लज्जा की अनुभूति हुई और वे वहां सिर लटकाए खड़े रहे।

नाराणत्तुभ्रांतनः- पूरा हो गया आपका डराना?

भद्रकालीः- हे महानुभाव! आपको साधारण मनुष्य समझकर ही हमने आपसे इस प्रकार बात की थी और आपको कष्ट देने की चेष्टा की थी। आप एक असाधारण व्यक्ति है, यह हम अब जान गए हैं। इसलिए हम आपसे निवेदन करते हैं कि आप कृपा करके यहां से हट जाएं। हम इस श्मशान पर नृत्य करने के लिए आए हैं।

नाराणत्तुभ्रांतनः- आप यहां एक कोने में जी भरकर नृत्य कर लें। इसके लिए मेरा हटना क्यों जरूरी है?

भद्रकालीः- मनुष्य की दृष्टि के सामने नृत्य करना हमें मना है। इसीलिए मैं आपसे जाने का निवेदन कर रही हूं।

नाराणत्तुभ्रांतनः- तब फिर नृत्य कल कर लीजिएगा। आप चाहे जितना निवेदन कर लें, मैं यहां से नहीं जाऊंगा।

भद्रकालीः- कल नहीं हो सकता। आज नृत्य करने का ही नियम है।

नाराणत्तुभ्रांतनः- तब नियम के अनुसार करें। लेकिन मैं नहीं जाऊंगा। मेरे भी कुछ नियम हैं। आग और पानी जहां सुलभ हो, वहां चावल पकाकर खाता हूं। जहां खाता हूं, वहीं लेटकर सोता हूं। यही मेरा नियम है। इसे बदलना संभव नहीं है।

जब भद्रकाली को समझ में आ गया कि ये किसी भी हालत में हटने वाले नहीं हैं, तब उसने कहा, "हे महानुभव! आपके हठ को देखते हुए हमने निश्चय कर लिया है कि हम ही कहीं और चले जाएंगे। लेकिन मनुष्य का सामना होने पर उसे शाप या वर दिए बगैर जाना हमारे लिए उचित नहीं है। आप जैसे दिव्य पुरुष को शाप देने का मेरा कोई इरादा नहीं है। आपको अनुगृहीत करने का ही मेरा मन है। इसलिए आपकी जो कुछ भी इच्छा हो, वह बताएं, उसे मैं पूरी कर दूंगी।

नाराणत्तुभ्रांतनः- मुझे आपका अनुग्रह-वनुग्रह नहीं चाहिए। आप कृपा करके यहां से चली जाइए। मेरे खाने का समय हो रहा है। मैं जरा खा लूं।

भद्रकालीः- लेकिन महानुभव! ऐसा कैसे संभव है? आप ऐसा न कहें। दया करके कोई वर मुझसे मांग लें। वर दिए बगैर मैं यहां से कैसे जा सकती हूं?

नाराणत्तुभ्रांतनः- धत्त तेरे की! ये तो मुसीबत बन गईं। ठीक है, आप वर देना ही चाहती हैं न? आपको तो पता ही होगा कि मेरी मृत्यु कब होने वाली है?

भद्रकालीः- हां, बिलकुल! आज से ३१ वर्ष, ६ महीने, १२ दिन, ५ घंटे और ३ पल बाद आपका निधन हो जाएगा।

नाराणत्तुभ्रांतनः- तब मैं चाहता हूं कि इससे एक दिन अधिक जीवित रहूं। ऐसा ही वर देकर मुझे अनुगृहीत करें।

भद्रकालीः- यह मेरे बस की बात नहीं है। एक दिन तो क्या एक पल भी किसी की आयु बढ़ाना मेरी शक्ति के बाहर है।

नाराणत्तुभ्रांतनः- तब वह न सही, आपने मेरे निधन का जो समय बताया है, उससे एक दिन पहले मैं मरूं, ऐसा अनुग्रह कीजिए।

भद्रकालीः- यह भी मेरे बस की बात नहीं है।

नाराणत्तुभ्रांतनः- फिर आपका अनुग्रह लेकर मैं क्या करूंगा? मैं पहले ही जानता था कि आपसे कुछ नहीं हो सकता। इसीलिए मैंने वर मांगने से इन्कार किया था।

भद्रकालीः- कृपया आप दया करके कोई ऐसी चीज मांग लें जो मैं दे सकूं।

नाराणत्तुभ्रांतनः- तो ठीक है। मैं भी आपसे पिंड छुड़ाना चाहता हूं। मेरे इस बाएं पैर में गठिया की तकलीफ है। इसे दाएं पैर में बदलकर यहां से चली जाइए। यह आपके बस की बात है।

यह सुनकर भद्रकाली प्रसन्न हो उठी और नाराणत्तुभ्रांतन के कहे अनुसार करके वहां से चली गई। उसके बाद नाराणत्तुभ्रांतन भोजन करके वहीं लेट कर सो गए। सूर्योदय होने पर उठकर पत्थर चढ़ाने भी चले गए। इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर द्वारा कल्पित बात को टालना किसी के लिए भी संभव नहीं है।

एक बार यह जानकर कि नाराणत्तुभ्रांतन एक नीच जाति के व्यक्ति के यहां श्राद्ध का भोजन करने जा रहे हैं, एक अन्य व्यक्ति भी उनके साथ हो लिया। दोनों ने डटकर खाया फिर तुरंत दोनों साथ ही वहां से चल पड़े। रास्ते में नाराणत्तुभ्रांतन ने कहा, "मुझे बहुत जोरों की प्यास लगी है।" दूसरे व्यक्ति ने भी कहा, "मुझे भी असह्य प्यास सता रही है।" तब नाराणत्तुभ्रांतन ने कहा, "ठीक है, मैं कुछ उपाय करता हूं।" दोनों कुछ दूर और आगे बढ़े तब उन्हें एक धातुकर्मी के यहां एक बहुत बड़े पात्र में कांसा आग पर रखा उबलता दिखाई दिया। नाराणत्तुभ्रांतन ने वहां जाकर खौलते कांसे को अंजली में भर-भरकर पीना शुरू किया और दूसरे व्यक्ति से भी ऐसा करने को कहा। तब उसने कहा, "हे भगवान! यह कैसे संभव है, मेरा हाथ जलकर कोयला हो जाएगा।" तब नाराणत्तुभ्रांतन ने कहा, "तब तुम भ्रष्ट हो गए। यदि जहां मैं खाता हूं, वहां तुम्हें भी खाना है, तो जहां मैं पीता हूं, वहीं तुम्हें पीना भी चाहिए।" यों कहकर नाराणत्तुभ्रांतन अकेले ही चले गए।

दूसरों द्वारा प्रवर्तित आचारों के मूल में निहित तत्वों को समझे बगैर उनका अनुसरण करने से विपरीत असर होने की संभावना रहती है। उपर्युक्त प्रसंग इसी बात का एक उज्ज्वल द्रष्टांत है।

नाराणत्तुभ्रांतन कभी-कभी जमीन पर एक पंक्ति में रेंग रहे मकोड़ों को बड़े मनोयोग से गिना करते थे। जब एक दिन वे ऐसा कर रहे थे तब एक व्यक्ति ने उनके पास जाकर पूछा, "कितने हुए?" तुरंत नाराणत्तुभ्रांतन ने उत्तर दिया,"दस हजार जा चुके हैं, दस हजार बाकी हैं। जब वे भी चले जाएंगे तो चैन है।" नाराणत्तुभ्रांतन से उपर्युक्त सवाल करनेवाला व्यक्ति बहुत दिनों से पेट की एक बीमारी से पीड़ित था। उसके इलाज में उसने अब तक दस हजार रुपए खर्च कर दिए थे। इसके अलावा उसने दस हजार रुपए और एक जगह बचाकर रखा था। नाराणत्तुभ्रांतन के कथन का तात्पर्य यह था कि जब वह आदमी वह बचाई हुई रकम भी खर्च कर देगा, तब उसकी व्याधि मिटेगी। यह बात उस आदमी की समझ में आई और उसने तुरंत ही बचाई हुई रकम भी अपनी चिकित्सा व दान आदि में खर्च कर डाली और उसके तुरंत बाद उसके पेट का दर्द भी दूर हो गया।

4 Comments:

PN Subramanian said...

बहुत ही सुन्दर कथा है. हमारा आपसे एक आग्रह है. आप अनुवाद न करें. अनुवाद करने पर भाषा अप्राकृतिक हों जाती है. सरल और सहज रूप से कथा को हिंदी में लिख दें. पढने वाले को बहुत अच्छा लगेगा.

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

सुब्रमण्यम जी, आपके सुझाव के लिए धन्यवाद।

इस साहित्यिक रचना का अनुवाद करते समय मैंने अपने सामने ये दो लक्ष्य रखे हैं -

1. मूल रचना की साहित्यिक भंगिमाओं को जहां तक हो सके अनुवाद में लाया जाए।

2. ग्रंथ का पूर्ण अनुवाद दिया जाए, और उसका कोई अंश दुरूह, अप्रासंगिक या आजकल की मान्यताओं, मूल्यों आदि की दृष्टि से अमान्य होने पर भी अनुवाद से छूटने न पाए।

इसलिए कथा को अपनी ओर से सरलीकृत करना, या कुछ अंशों को छोड़ देना या कुछ अंशों को आजकल की मान्यताओं के अनुरूप बनाना मेरा लक्ष्य नहीं रहा है।

मैं चाहूंगा कि आप थोड़े धीरज से इन कहानियों को पढ़ें। यदि आप इस बात को ध्यान में रखें कि भाषा की क्लिष्टता मूल ग्रंथ में भी है,और यह ग्रंथ डेढ़-दो शताब्दी पहले लिखी गई थी, तो आपको इन कथाओं की 'अप्राकृतिक' भाषा में भी रस मिलेगा।

भाषा की विचित्रता इस ग्रंथ की एक मूल विशेषता है। यदि इन कथाओं को सपाट भाषा में लिख दिया जाए, तो आधा प्रभाव नष्ट हो जाएगा।

मैंने इन कथाओं को कई हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में पहले प्रकाशित कराया है। वहां से अच्छे ही प्रतिकार आए हैं। इसलिए हिंदी अच्छी तरह जाननेवालों को भाषा की क्लिष्टता के कारण कथा का आनंद लेने में बाधा नहीं पहुंचती है।

अनुवाद पूरा होने के बाद मैंने पुनरीक्षण के लिए इसे दो विद्वानों को भेजी थी, जिनमें से एक श्री नारायण दत्त हिंदी के विद्वान हैं; वे उस समय मुंबई में पीटीआई में हिंदी संपादक थे। दूसरे मलयालम के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर विश्वनाथन हैं, जो उस समय तिरुवनंतपुरम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे।

दोनों से जो टिप्पणियां प्राप्त हुईं, उन्हें ग्रंथ में शामिल कर लिया गया है।

आपकी टिप्पणी के बाद मैंने पूरे ग्रंथ को एक बार फिर पढ़कर देखा, पर मुझे ऐसा कोई अंश नजर नहीं आया जहां भाषा को सरल बनाने से फायदा हो सकता हो।

यदि आपको मलयालम आती हो, तो मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि मूल मलयालम ग्रंथ को पढ़कर इन अनूदित कथाओं की तुलना उससे करें। इससे आप मेरी उपर्युक्त बात को सराह सकेंगे।

businessvartha said...

fantastic effort, U really need some pat on ur back.

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इष्ट देव सांकृत्यायन said...

आप जो भी कर रहे हैं अच्छा कर रहे हैं. सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें इस कथा का कहानीपन और कहानी कहने की जो मलयाली शैली है, वो दोनों सजीव दिखाई देती हैं. अपने ही ढंग से जारी रहें.

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