13 जुलाई, 2009

27. पादायिक्करै के नंबूरी - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

जब स्नान-पूजा समाप्त करके वे लौटे तो भोजन तैयार था। चार बड़े-बड़े पात्रों में एक-एक सेर चावल रखा हुआ था। एक कलश भर पानी भी रखा हुआ था। इनके अलावा अतिथि के बैठने के लिए एक पटल और उसके बाईं तरफ बिना छिले चार नारियल भी मौजूद थे। जब नंबूर भोजन कक्ष के दरवाजे के पास पहुंचे, तो पास वाले कमरे के अध-खुले द्वार की आड़ से गृहणी ने किसी अन्य व्यक्ति को संबोधित करने के लहजे में कहा, "उनसे कहिए कि भीतर आ जाएं, भोजन तैयार है।" यह सुनकर कोषिक्कोड़ के नंबूरी भोजन कक्ष में जाकर खाने बैठे। उन्होंने सब बर्तन खोलकर देखे। सबमें चावल था। साथ में खाने के लिए दाल, सब्जी, दही कुछ नहीं था। यह देखकर किसी अन्य व्यक्ति से कहने के लहजे में वे बोले, “दाल, सब्जी आदि क्या नहीं बनी हैं?" इसके उत्तर में गृहणी बोलीं, “उनसे कहो कि नारियल रखा हुआ है। यहां दाल-सब्जी, दही आदि का रिवाज नहीं है। यहां सब लोग नारियल के दूध के साथ ही चावल खाते हैं।” तब नंबूरी बोले, “बिना छिले नारियल का दूध कैसे निकालें?” मानो वे अपने आप से ही बोल रहे हों। यह सुनकर गृहणी ने दरवाजा थोड़ा सा खोलकर एक बर्तन बाहर रखा और दोनों हाथों में ही एक-एक नारियल लेकर दो ही बार में उन चार नारियलों को निचोड़कर उनका दूध बर्तन में गिरा दिया, मानो वे बिना छिले नारियल न होकर खूब पके आम हों। यह देखकर उस कोषिक्कोड़ वाले को बहुत ही अधिक आश्चर्य और भय हुआ। बिना छिले नारियल उस गृहणी के हाथों में रुई की तरह हो गए थे और उनमें मौजूद सब दूध निचुड़कर बर्तन में आ गया था। वह सोचने लगा, ‘यदि इस स्त्री में इतनी ताकत है, तो इसके पति और देवर कितने अधिक बलवान होंगे। उन्हें हरा पाना मेरी बस की बात कतई नहीं है। जल्द से जल्द यहां से खिसक लेना चाहिए, इसी में मेरी खैरियत है।‘ यों विचारते हुए उन्होंने किसी तरह भोजन करने का रस्म अदा किया और वहां से चले गए।

पादयिक्करै नंबूरियों के घर के निकट एक देवालय था। वहां हर रोज सुबह ये दोनों नंबूरी जाकर देव-दर्शन कर आते थे। एक दिन बड़े नंबूरी सुबह-सुबह तालाब में स्नान करके और संध्या-वंदन करके देव-दर्शन करने चल पड़े। छोटा नंबूरी अल्प समय बाद नहाने को निकले और फिर वे भी देवालय की ओर चल पड़े। इन नंबूरियों के घर से देवालाय जाने के लिए एक संकरा रास्ता ही था। जब छोटे नंबूरी इस संकरे रास्ते में पहुंचे तो सामने से मंदिर का बड़ा हाथी चला आ रहा था। उस दिन मंदिर में उत्सव था और हाथी उस उत्सव में शरीक होकर लौट रहा था। उस हाथी के पीछे-पीछे बड़े नंबूरी भी आ रहे थे। पर रास्ता संकरा और हाथी की देह विशाल होने के कारण ये दोनों एक-दूसरे को देख नहीं पाए थे। इसलिए बड़े नंबूरी नहीं समझ पाए कि हाथी के सामने छोटे भाई पहुंच चुके हैं, और छोटे नंबूरी समझ नहीं पाए कि हाथी के पीछे बड़े भाई हैं। पादायिक्करै के इन नंबूरियों का एक नियम था कि वे जहां भी जाएं, किसी को भी रास्ता नहीं देते थे। अब उस संकरे रास्ते में हाथी को मोड़ना भी संभव नहीं था। इसलिए छोटे नंबूरी ने महावत को आदेश दिया, "पीछे की ओर चलाओ," और हाथी के मस्तक पर हाथ रखकर उसे पीछे धकेला। इससे हाथी पीछे की ओर जाने लगा। यह देखकर बड़े नंबूरी ने महावत को आदेश दिया, “आगे बढ़ा दो,” और हाथी के पीछे के हिस्से पर हाथ रखकर उन्होंने हाथी को आगे धकेला। पर चूंकि छोटे नंबूरी ने हाथी के मस्तक पर हाथ रखा हुआ था, बड़े नंबूरी के पूरा जोर लगाने पर भी हाथी टस से मस नहीं हुआ। यह देखकर बड़े नंबूरी को संदेह हुआ, और उन्होंने ऊंचे स्वर में पुकार कर कहा, "आगे कौन है, अनुज तुम हो?" छोटा नंबूरी - “हां भैया, मैं ही हूं।” “तब उठा लो,” बड़े नंबूरी ने कहा, और अपनी ओर से हाथी को ऊपर की उठा लिया। छोटे नंबूरी ने भी अपनी ओर से ऐसा ही किया। इससे हाथी सड़क के दूसरी ओर झुक गया और हवा में ऊपर को उठ आया। इस अवस्था में उसे पकड़े-पकड़े ही दोनों नंबूरी झुककर आगे निकल गए। फिर दोनों ने हाथी को नीचे रख दिया और अपने-अपने रास्ते चले गए।

इन नंबूरियों के पराक्रम के संबंध में इस तरह की अनेक कथाएं कहने को हैं। पर ऊपर बताई कई कथाओं से ही आपको अंदाज हो गया होगा कि ये दोनों कितने ताकतवर इन्सान थे, इसलिए बाकी कहानियां रहने देता हूं।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

27. पादायिक्करै के नंबूरी - 1

08 जुलाई, 2009

27. पादायिक्करै के नंबूरी - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

पादायिक्करै नामक घराना अंङाडिप्पुरम नामक देश में स्थित है। इस घराने में एक समय ज्येष्ठ-अनुज इस तरह दो बहुत ही बलवान नंबूरी हुए। वे हर रोज दोनों समय भोजन के लिए सवा बारह सेर पका हुआ चावल खाते थे। वे इसे दाल-सब्जी आदि के साथ नहीं खाते थे, बल्कि नारियल के दूध के साथ खाते थे। उनके यहां सुबह-शाम ज्येष्ठ और अनुज में से प्रत्येक के लिए सवा बारह सेर और ज्येष्ठ की पत्नी के लिए तीन सेर मिलाकर साढ़े सत्ताईस सेर चावल पकता था। पत्नी अपने हिस्से के चावल को अलग करके, बाकी के चावल के दो हिस्से कर देती थी और दोनों भाइयों के समक्ष रख देती थी। वह दोनों के बाईं ओर बिना छीले बारह-बारह नारियल भी रख देती थी। ये दोनों नंबूरी तब बाएं हाथ से एक एक नारियल लेकर चावल के ऊपर निचोड़ लेते थे और भोजन करते थे। जब सारा चावल खत्म हो चुका होता, तो नारियल भी समाप्त हो गए होते। पत्नी भी इसी तरह भोजन करती थी। चूंकि उसे कम चावल मिला होता था, वह केवल एक नारियल से काम चला लेती थी। वह भी उस बिना छिले नारियल को बाएं हाथ से चावल के ऊपर निचोड़ लेती थी। यही भोजन करने की उनकी रीति थी।

एक दिन उस घराने में रोज की भांति चावल तैयार हुआ और दोनों नंबूरी खाने बैठ ही रहे थे कि उनके पड़ौसी और काफी जाने-माने एक नंबूरी दौड़कर उनके घर आ पहुंचे और दोनों भाइयों से बोले, "आज मेरा जन्म दिन है, आप दोनों को मेरे यहां भोजन करने आना होगा। मैंने अपने बेटे से कल ही बोल रखा था कि आप लोगों को निमंत्रण दे आए। आपको अब तक आया हुआ नहीं देखकर मैंने अपने बेटे को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि वह यहां आकर निमंत्रण दे आना तो भूल ही गया है। मैं सोचने लगा, यह तो ठीक नहीं हुआ और अब क्या करें। इतनी देर हुए किसी को भेजूं आपको लिवाने, तो आपको वह असम्मानजनक प्रतीत हो सकता है, यही सोचकर मैं खुद ही आ गया हूं। चलिए हम चलें। वहां सब कुछ तैयार रखा हुआ है। हमारे वहां पहुंचते ही पत्ता बिछ जाएगा।" इस नामी पड़ौसी के निमंत्रण को अस्वीकार करना लोकाचार की दृष्टि से अनुचित होगा यों विचारकर दोनों नंबूरी उस पड़ौसी के साथ चले गए। अब पत्नी ने सोचा कि यह जो चावल पका दिया गया है वह यदि शाम तक रखा जाए तो खराब हो जाएगा, और उसने पति और देवर के हिस्से का चावल और अपने हिस्से का चावल और सब नारियल स्वयं ही खा लिया। शाम को दोनों भाई घर लौटे, और समय होने पर रात के भोजने के लिए आ बैठे। वे यही सोच रहे थे कि सुबह का बासी चावल ही परोसा जाएगा। लेकिन उनके सामने परोसा गया ताजा, गरमा-गरम नया पका चावल। यह देखकर ज्येष्ठ नंबूरी बोले, “सुबह के चावल का क्या किया?” तब उनकी पत्नी बोली, “मैंने सोचा वह शाम तक ठंडा और बासी हो जाएगा, इसलिए उसे मैंने खा लिया।” तब उसके पति बोले, “ऐसा किया क्या? बिलकुल सही किया। तब फिर कल से अपने लिए भी सवा बारह सेर चावल ही पका लेना।” अगले दिन से उस घर में पौने सैंतीस सेर चावल दोनों समय पकने लगा।

कुछ दिनों बाद इन नंबूरियों को एक जगह दावत में जाने के लिए निमंत्रण मिला। जब वे घर से निकलने ही वाले थे, बड़े नंबूरी ने घर के आंगन में रखे चावल पीसने के बड़े और अत्यंत भारी पत्थर के सिल को उठाकर ऊपर अटारी में रख दिया। उस दिन अमावास का दिन था। अमावास की रात को वे रात का भोजन नहीं करते थे, केवल अल्पाहार ही करते थे। अल्पाहार के लिए भी चावल की मात्रा वही तय थी, प्रत्येक व्यक्ति के लिए सवा बारह सेर। बड़े नंबूरी की पत्नी इतने चावल को उस सिल में पीसकर अल्पाहार तैयार करती थी। यह कहना जरूरी नहीं है कि वह सिल भी इतना बड़ा था कि उसमें तीन गुना सवा बारह सेर चावल को एक साथ पीसा जा सकता था। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह कितना भारी रहा होगा। उस पत्थर को अटारी में रख देने पर पत्नी महोदया क्या करेंगी यह देखने के लिए ही ज्येष्ठ नंबूरी ने ऐसा किया था। जब चावल पीसने का समय हुआ तो वह स्त्री नियमानुसार चावल के साथ आंगन में आई। तब उसने देखा कि सिल गायब है। “इसे कौन ले गया होगा,” यों विचारते हुए वह उसे खोजने लगी। तब उसे वह अटारी में रखा हुआ दिखा। “इसे उठाकर यहां किसने रख दिया?" यों कहते हुए उस स्त्री ने उसे उतारकर जमीन पर रख लिया और चावल पीसने लगी। उसके बाद सिल को धो-पोंछकर वापस अटारी में रख दिया। शाम को दोनों नंबूरी संध्या वंदन आदि पूरा करके खाने बैठे। बड़े नंबूरी की पत्नी ने उनके सामने अल्पाहार परोस दिया। यह देखकर बड़े नंबूरी ने अपनी पत्नी से पूछा, “आज तुमने चावल कैसे पीसा?” उनकी घरवाली बोली, “सिल पर ही। उसे वापस उसी जगह रख भी दिया है। क्या मुझसे कुछ गलती हो गई है?” यह सुनकर बड़े नंबूरी ने जवाब दिया, “नहीं, नहीं, तुमने ठीक ही किया।” वह यह देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए कि मेरी धर्म पत्नि मेरे बिलकुल लायक है।

एक बार पारायिक्करै नंबूरियों के यहां कोष़क्कोड़ का एक नंबूरी आया। वह बड़ा बलशाली और कसरती इन्सान था। उसका ही नहीं उसके सभी देशवासियों का भी (आर्थात कोष़िक्कोड़ के निवासियों का) यही मानना था कि उसके समान बलवान और शक्तिशाली व्यक्ति इस दुनिया में और कोई नहीं है। ये महाशय रोज दोनों टाइम चार सेर चावल खाते थे। पादायिक्करै नंबूरियों की खुराक देखने पर यद्यपि यह अचरज करने की बात नहीं लगती है, फिर भी यह सामान्य बात तो फिर भी नहीं है। इसलिए इस शख्स के और इनके देशवासियों का ऐसा सोचना अनुचित भी नहीं था। इन नंबूरी ने पादायिक्करै नंबूरियों के बारे में सुन रखा था और इसी इरादे से वे उनके यहां आए भी थे कि जेरा इनकी ताकत का परीक्षण तो करके देखूं, और संभव हुआ तो इन्हें हारा भी दूंगा। जब वे पादायिक्करै पहुंचे, दोनों भाई कहीं गए हुए थे। बड़े नंबूरी की पत्नी ने आए हुए नंबूरी से नौकरानी के मुंह से कहलवाया कि पति और देवर कही भोज पर गए हैं और शाम को ही लौटेंगे। तब कोष़िक्कोड के उस नंबूरी ने भीतर जवाब भिजवाया, “मैं उनसे मिलना चाहता हूं और उनसे मिले बगैर नहीं जाऊंगा। इसलिए मैं उनकी प्रतीक्षा करता हूं। आप मेरे भोजन का प्रबंध कर दीजिए।” इसके बाद उन्होंने नौकरानी के जरिए यह सूचना भी भीतर भिजवा दी कि मैं एक समय के भोजन में चार सेर चावल खाता हूं। तब गृह-पत्नी ने जवाब भिजवाया, “कोई बात नहीं। इसका प्रबंध हो जाएगा। आप स्नान करके आ जाइए, मैं चावल तैयार रखूंगी।” यह सुनकर वे नंबूरी नहाने चले गए।

(... जारी।)

07 जुलाई, 2009

26. प्रभाकर - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का वार्तालाप सुनकर प्रभाकर के मन में अपने गुरु के प्रति जो वैर भाव था, वह सब दूर ही नहीं हुआ, बल्कि, उन्हें अपने गुरु के प्रति सीमातीत आदर और भक्ति भी होने लगी, और उन्होंने जो मार्ग अपनाया था उसके बारे में सोचकर बहुत अधिक पश्चाताप भी होने लगा। “कितना गलत हो गया! मेरे प्रति इतना स्नेह और वात्सल्य रखनेवाले गुरु को मार डालने का मैंने इरादा किया। हे भगवान मेरा यह महापाप क्या प्रायश्चित्य करने से दूर होगा,” यों सोचकर रोते-रोते प्रभाकर छत से नीचे उतर आए और गुरु के पैरों पर गर पड़े। गुरु “अरे, यह क्या प्रभाकर!” कहते हुए पलंग से नीचे उतर पड़े और प्रभाकर के सिर को स्पर्श करते हुए आशीर्वाद दिया और उसे जबर्दस्ती उठाकर गले लगाया। यह कहना मुश्लिक हैं कि संताप के कारण या संतोष के कारण, पर दोनों की आंखें आंसुओं से छलक आईं और रोते-रोते दोनों ही बिना कुछ बोले-किए, काफी देर तक वैसे ही खड़े रहे। फिर गुरु बोले - प्रभाकर, क्या मेरे हाथों मार खाने से डरकर यहां छिपकर बैठे थे? तुम्हारी भलाई के लिए और अपने गुस्से को नियंत्रित करने में असफल होने के कारण ही मैं आज तुम्हे सामान्य से अधिक कठोरता से मार बैठा। उसे लेकर अभी तक मुझे बहुत ज्यादा पश्चात्ताप हो रहा है। अब तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब से मैं तुम्हें कभी भी इस तरह परेशान नहीं करूंगा।

प्रभाकर – आपको यह सब कहने या इसे लेकर जरा भी संताप महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। आप मुझे जितना चाहे मार लें और दंडित कर लें, सब कुछ मैं संतोष के साथ सह लूंगा। मार खाने पर जब दर्द असहनीय हो उठा, तबमेरे मन में कुछ दुर्विचार प्रकट हुए। उन्हें लेकर ही मुझे इस समय घोर पश्चात्ताप हो रहा है। मेरी अज्ञानता के कारण और दर्द असहनीय हो उठने के कारण मेरे मन में यह विचार उठा कि आपको मार डालना चाहिए। मैं इसी उद्देश्य से यहां छिपकर बैठा हुआ था। मेरी इस बाल सुलभ चपलता को आप क्षमा करें और इस दुर्विचार के कारण मुझसे जो महापाप हो गया है, उसका क्या प्रायश्चित्य है, यह भी मुझे बताने की कृपा करें।

गुरु – घोर से घोर पाप के लिए भी पश्चात्ताप से बढ़कर कोई प्रायश्चित्य नहीं है। तुम्हें इस समय अत्यधिक पश्चात्ताप हो रहा है, इसलिए तुम्हारा सब पाप धुल गया है। मैंने तुम्हारी गलती भी माफ कर दी। इससे बढ़कर तुम्हें कोई प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं है।

प्रभाकर – मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं। मेरे इस दुर्विचार के फलस्वरूप मुझसे निश्चय ही महापाप हुआ है। उसके लिए मुझे कोई अति कठिन प्रायश्चित्य करना ही होगा। अन्यथा मेरा मन शांत नहीं हो सकेगा।

गुरु – तब फिर कल ब्राह्मण सभा में सर्वकलाविशारदों, वेदज्ञों, शास्त्रज्ञों आदि महाब्राह्मणों से परामर्श लेते हैं और जैसा वे कहें, वैसा ही करो, मुझे इससे भिन्न कोई राह सूझ नहीं रहा है।

इस तरह अत्यंत व्यथा के साथ उन दोनों ने किसी प्रकार वह रात बिताई। सुबह होते ही प्रभाकर ने स्नानादि नित्य कर्म पूरा करके ब्राह्मण सभा में पहुंचे और वहां मौजूद ब्राह्मणों को सब बातें बताईं। उन महाब्राह्मणों ने विचार कर कहा, “गुरु की हत्या करने के बारे में सोचनेवाले व्यक्ति को यदि पाप से मुक्त होना है तो भूसे की आग में जल मरना होगा, अन्यथा यह पाप बना रहेगा।” तुरंत ही प्रभाकर ने एक जगह चुन ली और भूसा मंगवाकर उसे अपने चारों ओर गले तक रख लिया और चारों ओर से उसमें आग लगाने को कह दिया। “जैसा भी हो, मेरा यह जीवन इस तरह समाप्त हो रहा है। मेरा नाम दुनिया में सदा याद रखा जाए, इसे सुनिश्चित करने के लिए और मरते समय भगवान का नाम जीभ पर रहे इसके लिए मुझे भगवत-स्तुति का कोई काव्य रचना चाहिए,” इस संकल्प पर पहुंचकर उन्होंने वहीं खड़े-खड़े ही एक काव्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया। उनके सहपाठियों ने उसे सुनकर लिखना भी शुरू कर दिया। इस तरह भूसे की आग में जलते-जलते उस महान कवि प्रभाकर द्वारा रचा गया काव्य है ‘श्रीकृष्णिविलास’। चूंकि इस काव्य को गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा अब तक जीवित रखा गया है, हम कह सकते हैं कि उसमें गुणों की अधिकता है।

प्रभाकर द्वारा काव्य के बारहवें सर्ग को पूरा करने से पहले ही अग्नि से उनका पूरा शरीर भस्मीभूत हो जाने से वह काव्य पूर्ण नहीं हो सका। बारहवें सर्ग में ‘पश्यप्रिये! कोंकणः’ यह कहते ही आग उनके गले तक पहुंच गई थी और वे इस श्लोक को पूरा नहीं कर पाए। इस तरह अत्यंत योग्य और मेधावी वह कवि राख के ढेर में बदल गया।

उसके बाद कविकुलशिरोमणि स्वयं कालिदास ने प्रभाकर के श्रीकृष्णविसाल काव्य को पढ़कर देखा और संकल्प किया कि मैं उसे पूरा करूंगा। ‘पश्यप्रिये कोंकणः’ के आगे उन्होंने ‘भूमिभागान’ यह लिखा, पर तभी उन्हें एक अशरीरी सुनाई दी, “यह तो रेशम के धागे से बने वस्त्र में केले के रेशे से पैबंद लगाने के समान है। आप रहने दें।“ इसलिए कालिदास ने उस काव्य को पूरा करने का प्रयास छोड़ दिया। श्रीकृष्णविलास काव्य कितना दिव्य काव्य है इसका प्रमाण इस प्रसंग से ही मिल जाता है।

यह अशरीरि सुनकर कालिदास के मन में थोड़r ईर्ष्या, क्रोध और हठ के भाव भी जागृत हुए। वे मन ही मन बोले, “अगर ऐसा है, तो मैं इसमें कोई जोड़-तोड़ नहीं करूंगा, बल्कि इसी के जैसा दूसरा काव्य ही बना डालूंगा।” इसी हठ के वश में उन्होंने “कुमारसंभव” नाम का काव्य बनाया। प्रभाकर ने अपने श्रीकृष्णविलास काव्य की शुरुआत इस श्लोक से की है, ‘अस्तिश्रियस्सत्मसुमेरुनामा’। इसकी जगह कालिदास ने अपने कुमारसंभव काव्य की शुरुआत ‘अस्त्युत्तरस्याम दिशि देवतात्मा हिमालयौ नाम नगाधि राजः’ यों किया, हालांकि इस वाक्य के कुछ अन्य पाठांतर भी मिलते हैं।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

26. प्रभाकर - 1

05 जुलाई, 2009

26. प्रभाकर - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

संस्कृत भाषा से थोड़ा भी परिचय रखनेवाले लोगों में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं होगा जिसने श्रीकृष्णविलास नामक काव्य के रचयिता प्रभाकर के बारे में नहीं सुना हो। प्रभाकर कवि को सुकुमार, यह एक और नाम भी था। अब यह नहीं मालूम कि इन्हें ये दो नाम क्यों थे। यही सुना है कि ये ब्राह्मण थे।

चूंकि प्रभाकर बुद्धिमान और पढ़ने में ध्यान देनेवाले छात्र थे, उनके गुरु को उनके प्रति अपार स्नेह और वात्सल्य था। पर हर समय वे प्रभाकर को बुरी तरह से मारते रहते थे और कठोर से कठोर सजा देते थे। प्रभाकर के साथ पढ़नेवाले अनेक अन्य बालक भी थे। उनमें से कोई भी प्रभाकर जितना बुद्धिशाली या पढ़ने में कुशल न था। पर गुरु इन्हें कभी भी इतना नहीं मारते थे या इतनी कठोर सजा देते थे। उन सबको गुरु किसी श्लोक का अर्थ सौ बार भी समझाने को तत्पर रहते थे। पर प्रभाकर से वे अपेक्षा रखते थे कि वे जो कुछ भी पढ़ रहे हैं, उसका अर्थ स्वयं ही समझ लें। यदि किसी कठिन अंश समझाना भी पढ़े, तो वे केवल एक बार ही समझाते थे। कठिन से कठिन श्लोक का अर्थ भी एक बार समझा दिए जाने पर प्रभाकर समझ जाते थे और फिर कभी नहीं भूलते थे। फिर भी गुरु उनसे यही कहते थे कि तुम जड़ मूर्ख हो और पढ़ने में जरा भी ध्यान नहीं लगाते हो, और कभी भी उनकी प्रशंसा नहीं करते थे। हर समय गुरु प्रभाकर के सामने कुपित भाव ही जाहिर करते थे और कभी भी प्रभाकर को लेकर अपने चेहरे पर संतोष के भाव प्रकट होने नहीं देते थे। गुरु की इस क्रूरता के कारण प्रभाकर को बहुत अधिक संताप होता था। पर उन्होंने इसे बाहर जहिर नहीं होने दिया और विनय और आदर के साथ गुरु से शिक्षा ग्रहण करते रहे। कुछ ही समय में प्रभाकर काव्य, नाटक अलंकार आदि में और वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि में पारंगत हो गए। फिर भी न तो उन्हें, न ही उनके गुरु को पढ़ाई समाप्त करने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने एक बार फिर सब शास्त्रों का अध्ययन और भी विस्तार से शुरू कर दिया। इस तरह प्रभाकर एक अच्छे खासे विद्वान और सुंदर युवक में बदल गए। पर फिर भी गुरु ने उन्हें डांटना-फटकारना-मारना पहले जैसे ही जारी रखा। जैसे-जैसे प्रभाकर उम्र में बड़ा होता गया उसी अनुपात में गुरु द्वारा उसे मारने-फटकारने की मात्रा भी बढ़ती गई।

एक दिन जब प्रभाकर पढ़ रहे थे, तो उन्हें कुछ संशय हुआ और उसके संबंध में उन्होंने अपने गुरु से पूछा। तब गुरु “अरे मूर्ख! अब तक भी तुझे यह समझ में नहीं आया?” यों डांटते हुए उसे मारने लगे। मार लगने से प्रभाकर की जांघ फट गई और खून बहने लगा। पर इस पर भी गुरु ने उसे मारना नहीं रोका। आखिर पीड़ा असह्य हो उठने से प्रभाकर को वहां से भाग जाना पड़ा। उस दिन प्रभाकर को सामान्य से अधिक पीड़ा और व्यथा हुई। इसलिए उन्होंने मन में निश्चय कर लिया, “जैसा भी हो आज इस गुरु का काम तमाम करना ही होगा। अब और किसी को इस तरह इस गुरु के हाथों मार नहीं खानी पड़ेगी।“ जब गुरु संध्या वंदन के लिए बाहर गए हुए थे, प्रभाकर ने एक बड़ा और भारी पत्थर उठाकर गुरु के शयन कक्ष की छत के ऊपर चढ़कर बैठ गया। उनकी योजना यह थी कि जब गुरु सोने के लिए आएंगे और पलंग पर लेटेंगे, तो छत की कुछ खपड़ियों को हटाकर उनकी छाती पर यह पत्थर गिराकर उन्हें मार डालूंगा।

जब गुरु संध्यावंदन आदि नित्य कार्य पूरा करके घर लौटे, तब तक रात के भोजन का समय हो चुका था। लेकिन वे बोले, “आज मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है, और भोजन करने की इच्छा भी नहीं हो रही है। इसलिए मुझे भोजन नहीं चाहिए,“ और बिना खाए ही सोने के कमरे में चले गए। वहां पहुंचते ही वे पलंग पर लेट गए और गहरी सोच में डूब गए। जब गुरु ने रात का भोजन नहीं खाया, तो गुरु पत्नी ने भी नहीं खाया। पतिव्रता स्त्रियों में यही परिपाटि थी कि यदि पति न खाए तो वे भी नहीं खाती थीं। शयन-कक्ष में पति को बिना सोए विचार-मग्न अवस्था में लेटे देखकर वह श्रेष्ठ स्त्री बोली, “क्या बात है, लगता है आज आपको कोई बहुत बड़ी मानसिक व्यथा सता रही है। खाना भी नहीं खाया, यह भी कहा कि तबीयत ठीक नहीं है।“

गुरु – मुझे कुछ नहीं हुआ है। आज मैंने अपने प्रभाकर को सामान्य से कुछ ज्यादा ही मारा, और गुस्से में उसे मारता ही गया। बाद में इसके बारे में सोचकर मुझे बहुत ज्यादा व्यथा हुई। यह व्सथा अब भी मेरे मन से नहीं उतर रही है। मैं जितना भी मारूं, वह बेचरा उसे अब तक चुपचाप सहता ही रहता था। आज वह उठकर भाग गया। पीड़ा अहस्य हो उठने के कारण ही उसे ऐसा करना पड़ा होगा। मेरी क्रूरता के बारे में सोच-सोचकर मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। इसीलिए मैंने आज खाना नहीं खाया। आज मुझे नींद भी नहीं आएगी। कल जब तक उसे मैं देख न लूं मेरी तकलीफ दूर नहीं होगी।

गरु पत्नी – यह सचमुच एक बड़ा संकट है। मैंने कई बार मन बनाया था कि इसके बारे में आपसे कुछ कहूं। पर यह सोचकर कि मेरा ऐसा कहना आपको रुचिकर नहीं लगेगा, मैं चुप रही। प्रभाकर जैसा बुद्धिशाली, पढ़ने में ध्यान लगानेवाला, उच्च धारणा शक्तिवाला, सुशील और सुंदर छात्र यहां पढ़ रहे छात्रों में ही नहीं, सारी दुनया में और कोई होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। फिर भी उसे आप जितना मारते और दंडित करते हैं, उतना किसी अन्य छात्र को नहीं। उसके सुंदर शरीर को देखकर हर कोई यही कहता है कि वह सुकुमार शब्द को चरितार्थ करता है। इस प्रकार आकृति और प्रकृति में समान रूप से सुंदर और श्रेष्ठ बालक के साथ आप ऐसा कठोर बर्ताव क्यों करते हैं? अपने बच्चों को भी, जब वे बच्चे बड़े हो जाएं, मारना और दंडित करना अनुचित है। दूसरों के बच्चों के साथ तो ऐसा बिलकुल ही नहीं करना चाहिए।

गुरु – भागवान, तुमने जो कुछ कहा, वह सब सही है। लेकिन मैं अपने प्रभाकर को कोई साधारण बालक नहीं मानता हूं। वह जितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए एक छोटा बालक ही रहेगा। यह भी नहीं है कि मैं उसके गुणों से अपरिचित हूं। न ही ऐसा है कि मुझे उसके प्रति स्नेह और वात्सल्य नहीं है। सच कहता हूं, मुझे उससे अपने सीमंत-पुत्र से भी ज्यादा स्नेह और वात्सल्य है। पर वह सब मैं जाहिर नहीं करता, तो केवल इसलिए कि उसका विकास ठीक-ठाक हो। यदि उसे पता चले कि मैं उसे बुद्धिमान और समर्थ समझता हूं, तो वह अहंकारी हो जाएगा और पढ़ाई में कम ध्यान दने लगेगा, यह सोचकर ही मैं उसके प्रति स्नेह नहीं दर्शाता। और कोई बात नहीं है। मेरे कठोर शासन का अच्छा प्रभाव आखिर उसमें रंग लाएगा। इसमें कोई संदेह ही नहीं है कि मेरा प्रभाकर दुनिया का अन्यतम विद्वान बनेगा। फिर भी आज मैंने उसके साथ जो किया, वह कुछ ज्यादा ही हो गया। अब कभी भी मैं उसे इस तरह वेदना नहीं पहुंचाऊंगा, यह मेरा निश्चय है। उफ! आज मेरे प्रभाकर को मेरे हाथों जो झेलना पड़ा, उसके बारे में सोचकर मेरा हृदय कांप उठता है।

(... जारी)

04 जुलाई, 2009

25. वाग्भटाचार्य -2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

एक दिन रात को गुरु ने अपने शिष्य से कहा, “मेरे पैरों में पीड़ा है। तुम पलंग पर बैठ जाओ और मेरे पैरों को जरा दबाकर दे दो।“ वाग्भटाचार्य ने बिना संकोच ऐसा ही किया। रात बहुत बीत जाने के कारण कुछ ही देर में वैद्य को नींद आ गई। तब वाग्भटाचार्य के मन में विचार उठा, “अहो दुर्भाग्य! मेरी कैसी गत हो गई है! मैंने एक उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास सब भली प्रकार पढ़ा है। इतना सब होने के बाद भी मुझे इस नीच का पांव दबाना पड़ रहा है।” यह सोचने पर उनका मन दुख और संताप से इतना व्याकुल हो उठा कि उनकी आंखों से आंसुओं की बूंदें टपकने लगीं। इनमें से तीन-चार बूंदें वैद्य के पैरों पर भी गिरीं। इससे उसने तुरंत आंखें खोलकर देखा। शिष्य का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ देखकर वैद्य को सब बातें समझ में आ गईं। “इसने धोखा दे दिया। यह हमारी जाति का नहीं है। इसे छोड़ना नहीं चाहिए। इसका काम यहीं तमाम कर देना होगा,” यों सोचकर वह वैद्य पलंग से कूद पड़ा और पास ही रखी तलवार हाथ में उठा ली। यह देखकर वाग्यभटाचार्य मन ही मन बोले – “काम बिगड़ गया। यह अभी मुझे मार देगा। इस नीच के हाथों मरना नहीं है। चार वेद, छह शास्त्र और ईश्वर नाम का व्यक्ति अगर है, तो मेरा बाल भी बांका नहीं होना चाहिए,” और उन्होंने उस सात मंजिले इमारत के एक झरोखे से छलांग लगा दी। नीचे पहुंचने पर उन्होंने देखा कि उनके पैरों में जरा सी मोच आई है बस, अनयस्था उन्हें कुछ नहीं हुआ है। वे वहां से उठकर चल पड़े और नदी के उस पार ब्राह्मणों की पाठशाला में आ पहुंचे। वाग्भटार्च को थोड़ा सा लंगड़ाते हुए देखकर वहां मौजूद ब्राह्मणों ने इसका कारण पूछा। तब वाग्भटाचार्य ने अपने साथ जो कुछ भी घटा था, वह सब विस्तार से कह दिया। यह सुनते ही ब्राह्मणों ने पूछा, ”क्या संकल्प करके आपने महल से नीच कूदा था?” इसके उत्तर में वाग्भटाचार्य ने कहा, “ ‘चार वेद, छह शास्त्र और ईश्वर नाम का व्यक्ति अगर है, तो मेरा बाल भी बांका नहीं होना चाहिए’, इस संकल्प के साथ ही मैं नीचे कूदा था।“ यह सुनकर ब्राहणों ने कहा, “तब इसमें आश्चर्य नहीं कि आपको चोट लगी। ’अगर’ शब्द किस लिए? यही न कि इनमें आपको उतना विश्वास नहीं है? ‘चार वेद, छह शास्त्र और ईश्वर नाम का व्यक्ति होने के कारण...’, यों होना चाहिए था, तब आपको जरा भी चोट नहीं लगी होती। आपको यह नहीं सूझा, इसलिए आप भ्रष्ट हो चुके हैं। हमारी संगत में बैठने योग्य आप नहीं रह गए हैं। कृपा करके बाहर निकल जाएं।” यह सुनकर वाग्भटाचार्य ने कहा, “आप ठीक ही कह रहे हैं, अब मैं आपकी संगत में नहीं बैठूंगा।” और तुरंत ही वहां से चले गए। इसके बाद वे सोचने लगे, "अब क्या किया जाए। वैसे भी इस प्रदेश में रहना अब सुखकर नहीं रह गया है। पर यदि इसी समय कहीं और चला जाऊं तो इतने दिनों की मेरी मेहनत बेकार हो जाएगी। अब कोई दूसरा व्यक्ति संकल्प करे तो भी इस मुसलमान वैद्य से वैद्यशास्त्र की जानकारी चोरी से सीख नहीं सकेगा। इसलिए मैंने अपने प्रयत्न से जो सीखा है उसे ऐसे रूप में लाना होगा जिसका ये लोग आसानी से उपयोग कर सकें, उसके बाद ही मुझे यहां से जाना चाहिए।“ इस निश्चय पर पहुंचकर वे कुछ समय और वहीं रहे। अन्य ब्राह्मणों से उन्होंने किसी भी प्रकार का संपर्क नहीं रखा। वे एक अलग स्थान पर रहने लगे और स्वयं ही खाना पकाकर खाने लगे।

इस तरह रहते हुए वाग्भटाचार्य ने पहले ‘अष्टांगसंग्रह’ नाम की वैद्यशास्त्र के एक ग्रंथ की रचना की। उसमें उन्होंने बड़े ही संक्षेप में बाकी सब वैद्यशास्त्रीय ग्रंथों की सामग्री दे दी। फिर भी उन्हें उसे लेकर संतोष नहीं हुआ। यद्यपि वह अन्य सभी वैद्यशास्त्रीय ग्रंथों से संक्षिप्त था, उन्हें लगा कि इतना संक्षिप्तीकरण पर्याप्त नहीं है। इतना ही नहीं, उसमें गद्य और पद्य दोनों थे, इसलिए उसके अध्येताओं को उसे कंठस्थ करने में कठिनाई होगी। अतः उन्होंने निश्चय किया कि अब ऐसा ग्रंथ रचना चाहिए जिसमें अष्टांगसंग्रह की सब बातें हों, सब कुछ पद्य में हो, और अष्टांगसंग्रह से वह छोटा भी हो। इस निश्चय का परिणाम था ‘अष्टांगहृयम’ नाम का वैद्यशास्त्रीय ग्रंथ। उसकी रचनापूर्ण होने के बाद उन्होंने जन हितार्थ ‘अमरकोष’ नामक अभिधा-ग्रंथ की भी रचना की। उसमें भी अन्य अभिणआ-ग्रंथों का सारांश दिया गया है। इस तरह तीन ग्रंथ रचकर और उन्हें ब्राह्मण सभा को अर्पित करके वाग्भटाचार्य वहां से चले गए। उसके बाद उन ब्राह्मणों में से किसी ने भी उन्हें नहीं देखा। इसलिए यह बताना संभव नहीं है कि वाग्भटाचार्य कहां गए, कैसे रहे, और उनका देहांत कैसे हुआ।

वाग्भटाचार्य के चले जाने के बाद ब्राह्मणों के सामने एक विकट दुविधा की स्थिति पैदा हो गई, जो यह थी, "क्या एक भ्रष्ट व्यक्ति द्वारा रचे गए ग्रंथों को स्वीकार करना ठीक होगा? यदि न स्वीकारें, तो इस तरह के अन्य श्रेष्ठ ग्रंथ तैयार करवाना असंभव ही नहीं होगा, तब फिर क्या करना उचित होगा?” इस विषय के निराकरण के लिए सभी गण्यमान्य ब्राह्मणों ने सभा बुलाई और खूब विचारने के बाद यही मंतव्य दिया, “इन ग्रंथों को स्वीकार किया जाए, लेकिन यह याद रखने के लिए कि इनके रचयिता एक भ्रष्ट ब्राह्मण थे, इन ग्रंथों का पठन-पाठन एकादशी के दिन न किया जाए।“ इसलिए आज भी एकादशी के दिन अष्टांगसंग्रह, अष्टांगहृदय और अमरकोष, इन तीन ग्रंथों के पठन-पाठन की परिपाटी नहीं है।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

25. वाग्भटाचार्य - 1

01 जुलाई, 2009

25. वाग्भटाचार्य -1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

एक समय मुसलमानों के आक्रमणों और उनके प्रमुखता ग्रहण कर लेने से वैद्यशास्त्र के सभी ग्रंथ उनके अधीन चले गए। ब्राह्मणों के हाथों में कोई भी ग्रंथ बचा न रह जाने से इस शास्त्र के अध्येता और अध्यापक भी निश्शेष हो गए। और कुछ समय बीत जाने पर ब्राह्मणों में वैद्यों का होना भी समाप्त हो गया। हालत इस कदर विषम हो गई कि यदि कोई बीमार पड़ जाए, तो उन्हें मुसलमान वैद्यों के पास जाकर उनसे इलाज पूछने और उनके बताए अनुसार करने की नौबत आ गई। मुसलमानों में वैद्यक शास्त्र के कुछ अत्यंत निपुण लोग भी हो गए। यह ब्राह्मणों के लिए बहुत ही आपत्तिजनक था। तब परदेश के एक स्थान में इकट्ठा होकर सब ब्राह्मणों ने विचार किया कि इस अप्रिय स्थिति से पार पाने के लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए। सोच-विचारकर वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि, "मुसलमानों को युद्ध में हराकर उनसे वैद्यशास्त्र के ग्रंथ छीनना उनकी प्रबलता को देखते हुए अब संभव नहीं रह गया है। उनके पास जाकर वैद्यशास्त्र के गुर सीख आना भी संभव नहीं है क्योंकि वे मुसलमानों के अलावा और किसी को वैद्यशास्त्र नहीं सिखाते हैं। इसलिए किसी को मुसलमानों का वेष धारण करके किसी अच्छे मुलमान वैद्य के पास जाकर चुपके से उससे वैद्यशास्त्र सीख आना होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।“ इस निर्णय पर पहुंचने के बाद वे सब यह विचार करने लगे कि मुसलमानों से वैद्यशास्त्र सीख आने के लिए कौन सर्वाधिक उपयुक्त है। सभी ने एक मत से यही कहा कि, “इसके लिए वाग्भट्ट के जितना बुद्धिशाली और सामर्थ्यशाली व्यक्ति और कोई नहीं है।” तब उसी सभा में बैठे वाग्भटाचार्य बोले, “यदि मुझे आप सबका अनुग्रह और आशीर्वाद प्राप्त हो, तो मैं यह कार्य सिद्ध करके आऊंगा।” उस समय वाग्भटार्च्य की आयु बहुत कम थी, यही बीस-एक वर्ष। उम्र कम होने के बावजूद वे वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि के प्रकांड पंडित थे।

ये ब्राह्मण नदी किनारे स्थित एक पाठशाला में इकट्ठे हुए थे। उसी नदी के दूसरे किनारे पर ही वैद्यशास्त्र का एक पहुंचा हुआ निष्णात, और वैद्यशास्त्र की शिक्षा देने में अति निपुण और अत्यंत धनी मुसलमान रहता था। वाग्भटाचार्य ने तय किया कि मैं इसी से वैद्यशास्त्र सीखूंगा। उसके बाद वाग्भटाचार्य मुसलमानों का लिबास, टोपी आदि का बंदोबस्त करनें में जुट गया। जब यह सब सामग्री इकट्ठी हो गई, एक दिन वाग्भटाचार्य सुबह-सुबह स्नान, नित्यकर्म और नाश्ता करके ब्राह्मण श्रेष्ठों की एक बार फिर वंदना करके वेष बदलकर उधर को निकल पड़े। बाकी ब्राह्मण उनकी कार्यसिद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने के इरादे से पाठशाला में ही रुक गए।

मुसलमान के वेष में उस मुसलमान वैद्य के पास जाकर वाग्भटाचार्य ने उसकी वंदना की। उस समय वह वैद्य अपने अनेक शिष्यों को पास बैठाकर वैद्यशास्त्र पढ़ा रहा था। वाग्भटाचार्य की वेष-भूष से उस वैद्य ने यही समझा कि यह भी अपनी ही जाति का कोई व्यक्ति है, और कहा, “तुम कहां से आए हो? क्या चाहते हो?”

वाग्भटाचार्य – मैं उत्तर दिशा से कुछ दूर से आया हूं। आपकी ख्याति हमारे इलाके में भी खूब फैली हुई है। वहां सब यही कहते हैं कि आपके जैसे निपुण वैद्य सारी दुनिया में दूसरा कोई नहीं है। इसलिए यही सोचकर यहां आया हूं कि यदि आपके पास से वैद्यशास्त्र की कुछ बातें सीख सका तो उत्तम रहेगा। आपसे अनुरोध है कि आप इसकी सहमति देकर मुझे कृतार्थ करें।

वैद्य – अरे, यह जानकर तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। मैं तुम्हारी योग्यता की परीक्षा लेकर देखूंगा। मैं केवल उन्हें ही पढ़ाता हूं जिनमें इस विषय को ठीक से समझने के लिए आवश्यक बुद्धि-सामर्थ्य हो। यदि तुममें वह क्षमता हो, तो मैं तुम्हें जरूर पढ़ाऊंगा। मंद बुद्धि वाले आलसियों के साथ सिर फोड़ने का धैर्य मुझमें नहीं है। यहां जो भी पढ़ने आता है, उन सबका खर्चा मैं ही उठाता हूं। उन्हें जेब खर्च के लिए भी मैं कुछ देता हूं। यहां का नियम ऐसा ही है। इसलिए पहले तुम भीतर जाकर भोजन करके आओ, बाकी उसके बाद देखेंगे।

वाग्भट्ट – मैं भोजन कर चुका हूं, इसलिए अभी उसकी आवश्यकता नहीं है।

वैद्य – जैसी तुम्हारी इच्छा। मुझे जो कहना था वह मैंने कह दिया। यदि भोजन नहीं करना हो, तो अभी ही तुम्हें पढ़ाकर देख लेता हूं। क्या तुम्हारे पास कोई ग्रंथ-व्रंथ है?

वाग्भट्ट – मेरे पास कोई भी ग्रंथ नहीं है।

यह सुनकर वह वैद्य ही भीतर जाकर एक ग्रंथ लेकर आया और उसी से कुछ पाठ वाग्भट्ट को पढ़ाने लगा। थोड़ी ही देर में वैद्य को पूर्ण संतुष्टि हो गई, इतना ही नहीं वह काफी विस्मित भी हुआ। इतना बुद्धिशाली, पढ़ने में रुचि रखनेवाला और ध्यान देनेवाला छात्र वैद्य ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए उसने कहा, “तुम बहुत होशियार हो। तुम्हें पढ़ाने में मुझे खुशी होगी। तुम यहीं रह सकते हो। सब खर्चे मैं ही दे दूंगा। तुम्हें एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। केवल ठीक से पढ़ते रहना होगा।”

वाग्भट्ट – इस नदी के उस पार मेरा एक रिश्तेदार रहता है। मैं उसके घर ही रह लूंगा। आपको खर्चे के लिए भी मुझे कुछ भी नहीं देना होगा। केवल कृपा करके मुझे अच्छी तरह सिखा भर दें।“

वैद्य - वह तो मैं कह ही चुका हूं कि करूंगा। बाकी सब तुम्हारी इच्छा। मुझे जो कहना था, कह दिया।

शाम होने तक पढ़ने के बाद वाग्भटाचार्य घर लौट आए। संध्या वंदन आदि करके रात का भोजन किया और लेटकर सो गए। सुबह होने पर स्नान, जप और भोजन कर लेने के बाद मुसलमान का वेष धारण करके एक बार फिर वे वैद्य के सामने उपस्थित हो गए। पूरा दिन पढ़ लेने के बाद फिर घर लौट आए। इस तरह कई दिन बीत जाने पर उस गुरु को अपने इस कुशाग्रबुद्धि शिष्य को पढ़ाने में असामान्य रूप से रुचि, संतोष और उत्साह होने लगा। इसलिए एक शाम जब वाग्भटाचार्य उस दिन की पढ़ाई बंद करने का उपक्रम कर रहे थे, उनके गुरु ने कहा, “यदि तुम्हें रुचि हो, तो रात के भोजन के बाद भी मैं तुम्हें पढ़ाने के लिए तैयार हूं। जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे।” वाग्भटाचार्य भी यही सोच रहे थे कि जितनी जल्दी हो सके अपने रहस्य का उद्घाटन किए बिना सब कुछ सीखकर वहां से निकला जाना चाहिए। इसलिए गुरु का यह वचन उन्हें अत्यंत मनोनुकूल लगा और उन्होंने कहा, “तब फिर मैं भोजन करके अभी आ जाता हूं। जो कुछ भी सीखने को है, उसे जल्द से जल्द सीखकर स्वदेश लौट जाना ही मेरा भी उद्देश्य है। घर के लोग मुझे अपने समीप न पाकर बहुत चिंतित हो रहे हैं।“ यह कहकर वाग्भटाचार्य जल्दी घर जाकर भोजन कर आए। तब तक वैद्य ने भी खाना खा लिया था और वह अपने शिष्य का इंतजार कर रहा था। रात की पढ़ाई वैद्य के शयनकक्ष में होना था। उसका घर एक सात मंजिला महल जैसा ही था। रात के वक्त वह गुरु इस एक शिष्य के अलावा किसी और को नहीं पढ़ाता था।

एक बार पढ़ाई शुरू होने पर वैद्य पढ़ाता ही गया, पढ़ाता ही गया यही सोचकर कि जब तक शिष्य न कहे तब तक पढ़ाऊंगा, और शिष्य भी यही सोचता रहा कि जब तक गुरु चाहें पढ़ूंगा। इस तरह दोनों दिन रात बहुत देर तक पढ़ते-पढ़ाते रहे। कभी-कभी तो रात की पढ़ाई सुबह मुर्गी के बांग देने पर रुकती थी। पढ़ने-पढ़ाने में दोनों को जो उत्साह और संतोष हो रहा था, उसके चलते उन्हें समय के बीतने का अंदाजा ही नहीं रहता था। इस तरह कुछ समय बीत जाने पर वैद्यशास्त्र की लगभग सब ग्रंथ वाग्भटाचार्य ने पढ़ लिए। फिर भी गुरु को तृप्ति नहीं हुई। जब सब ग्रंथ सीख लिए जा चुके थे, गुरु मौखिक रूप से विभिन्न चिकत्सकीय प्रयोगों के बारे में अपने शिष्य को बताने लगा। वाग्भटाचार्य ने भी उन सब बातों को ध्यानपूर्वक ग्रहण कर लिया। रात के समय गुरु पलंग पर लेटे-लेटे एक-एक बात बताते जाते थे और शिष्य फर्श पर बैठकर उन सबको सीखता जाता था। यही पढ़ने-पढ़ाने की उनकी रीति थी।


(... जारी।)

29 जून, 2009

24. भवभूति

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

उत्तररामचरित, मालतीमाधव आदि नाटक और अन्य कई साहित्यिक ग्रंथों के रचयिता महाकवि भवभूति के बारे में संस्कृत से थोड़ा भी परिचय रखनेवाले सभी लोगों ने सुना होगा। उनका असली नाम 'श्रीकंठन‘ था। उन्होंने एक बार

तपस्वी काम गतोवस्थामिति स्मेराननाविव ।
गिरिजाया स्तनौ वंदे भवभूतिसिताननौ ।।

इस तरह का एक श्लोक रचकर सहृदय समाज के सामने पेश किया था। इस श्लोक में जो ‘भवभूति’ शब्द आया है उसके शब्द-चमत्कार से प्रसन्न होकर सहृदयों ने उन्हें भवभूति नाम से विभूषित कर दिया और इसी नाम से उनकी भावी प्रसिद्धि हुई।

एक बार पार्वती देवी ने शिव भगवान से कहा, “कवित्व कला में कालिदास अधिक योग्य हैं या भवभूति?” इसका उत्तर शिव भगवान ने यों दिया, “दोनों में इस मामले में कोई खास अंतर नहीं है। कविता के पद ठीक किस तरह होने चाहिए, इस संबंध में कालिदास को पूर्ण निश्चय रहता है, लेकिन भवभूति इस संबंध में उतने पक्के नहीं हैं, यही फर्क है दोनों में।” इतना ही नहीं, शिव भगवान ने पार्वती को एक तरकीब भी बता दिया, जिससे इसका परीक्षण किया जा सकता था।

भगवान के उपदेशानुसार पार्वती ने एक बूढ़ी ब्राह्मण स्त्री का रूप धारण कर लिया और उनका बेटा सुब्रमण्य एक मृत बालक में बदल गया। पार्वती बालक के शव को गोदी में लेकर भोज राजा के प्रासाद के द्वार पर पहुंच गई और शव को वहीं लिटाकर स्वयं उसके पास खड़ी हो गई। जब राजा की सभा विसर्जित हुई कविगण एक-एक करके द्वार से निकलने लगे। उनमें से प्रत्येक से पार्वती इस प्रकार कहती, "अरे इस ओर जरा धयान दीजिए। मेरा बेटा एक शाप के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गया है। यदि कोई ‘पुरोनिस्सरणे रण:’ इस पद की ठीक प्रकार से समस्या पूर्ति कर दे, तो यह बच्चा जीवित हो सकता है। आप जरा मेरी मदद कर दीजिए।" यह सुनकर सभी कवियों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार समस्या-पूर्ति कर दी। तब पार्वती ने कहा, “लेकिन मेरा बेटा तो जीवित नहीं हुआ।” उन सबने यही जवाब दिया, “वह सब हम नहीं जानते” और चले गए। तब भवभूति द्वार से बाहर निकले। उनसे भी पार्वती ने वैसे ही कहा। भवभूति ने उस काव्य समस्या की पूर्ति इस तरह की –

यामीति प्रियपृष्ठायाः प्रियायाः कंठसक्तयोः ।
अश्रुजीवितयोरासील पुरोनिस्सरणे रण: ।।

तब पार्वती ने कहा, “मेरा बेटा तो जीवित नहीं हुआ।”

“इसका कारण मैं नहीं जानता। मैं जितनी अच्छी तरह से इस समस्या को पूरा कर सकता था, पूरा कर दिया। इससे बेहतर श्लोक रचना मेरे लिए संभव नहीं है। मेरे बाद एक और श्रेष्ठ कवि आएंगे, उनसे यदि आप अनुरोध करें, तो वे इसे और भी अच्छी तरह से पूरा करके देंगे,” यह कहकर भवभूति भी वहां से चले गए।

अंत में कालिदास द्वार से बाहर आए। उनसे भी पार्वती देवी ने उसी प्रकार कहा और कालिदास ने तुंरत ही उस समस्या को पूरा करके दे दिया। कालिदास ने समस्या को जिस तरह पूरा किया और भवभूति ने जिस तरह पूरा किया, उन दोनों में एक अक्षर का भी अंतर नहीं था। कालदिस से भी पार्वती ने कहा, "लेकिन मेरा बेटा तो जीवित नहीं हुआ।" यह सुनकर कालिदास बोले, “तब आपका बेटा जिंदा हो ही नहीं सकता, अथवा वह मरा ही नहीं है। इससे अधिक सुंदर रीति से इस समस्या की पूर्ति कोई भी नहीं कर सकता।” यों कहकर वे भी चले गए।

भवभूति और कालिदास द्वारा रचा गया श्लोक हूबहू एक जैसा था। कालिदास को पूरा भरोसा था कि उनकी समस्या-पूर्ति श्रेष्ठतम है, भवभूति को उतना भरोसा नहीं था। इस तरह पार्वती को बोध हो गया है कि शिव भगवान ने इन दोनों के संबंध में जो कहा था, वह सही है, और वे सुब्रमण्य को लेकर कैलास लौट आई और शिव को जो कुछ भी घटा था, कह सुनाया।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

28 जून, 2009

23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 3

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

तिरुनक्करा देव का चैतन्य और ख्याति आशातीत रूप से बढ़ जाने से वहां अनेक रीती से पूजा-अर्चना होने लगी। हर रोज पांच-छह चतुर्श्शतम और आठ-दस पंदिरुनाष़ी पूजा होने लगीं। इसलिए पुजारी के लिए इन सबको अकेले संभालना असंभव हो गया। तब पारेप्परंबू नंबूरी ने तिरुनक्करा से तीन कोस दूर पूर्व में स्थित ‘माङानम’ नाम के देश से ‘मडिप्पल्ली’ नामक घराने के एक नंबूतिरी को भी अधीनस्थ पुजारी के रूप में रख लिया। इस तरह वे दोनों मिलकर कुछ वर्षों तक मंदिर में पुरोहिताई करते रहे। इन दो व्यक्तियों में आमदनी के बंट जाने के बावजूद पारेप्परंबु नंबूतिरी के हिस्से में इतना सारा धन आ गया कि उसकी सारी गरीबी दूर हो गई। इतना ही नहीं, वे अच्छे खासे संपन्न व्यक्ति बन गए। इसलिए मंदिर में पुरोहिताई का काम मडिप्पल्ली नंबूतिरी के हाथों में पूर्णतः सौंपकर वे अपने देश वैक्कम लौट गए और वहीं स्थायी रूप से रहने लगे। लेकिन महीने में एक दिन वे तिरुनक्करा मंदिर आकर वहां की पूजा का नेतृत्व करते रहे। उनके गुजर जाने के बाद उनके घराने का सबसे वरिष्ठ सदस्य यह दायित्व पूरा करने लगा। आज भी ऐसा ही हो रहा है।

जब मडिप्पल्ली नंबूतिरी तिरुनक्करा मंदिर की पुरोहिताई संभाले हुए थे, तब भी मासिक उत्सव की घोषयात्रा का संचालन पूर्व-निश्चित परिपाटी के अनुसार पारेप्परंबू घराने का वरिष्ठ व्यक्ति ही करता था। एक बार इस वरिष्ठ व्यक्ति और तेक्कुमकूर राजवंश के बीच किसी कारण को लेकर वैर ठन गया और राजा ने उसे गोली मार देने का आदेश जारी कर दिया। पर जिसे यह आदेश मिला था, उस भृत्य ने मडिप्पल्ली नंबूतिरी को ही पारेप्परंबु का वरिष्ठ सदस्य समझकर उसे गोली से उड़ा दिया। इससे संत्रस्त होकर मडिप्पल्ली नंबूतिरी की पत्नी ने तिरुनक्करा देव के सामने ही आत्म हत्या कर ली। उसके इस तरह प्राण त्याग देने के साथ ही उस नंबूतिरी का खानदान भी निश्शेष हो गया। इस दुखद घटना के बाद से इस मंदिर में ऐसा नियम बना दिया गया कि उसकी दीवारों के भीतर स्त्रियों को प्रवेश नहीं दिया जाएगा। एक अन्य नियम भी बना दिया गया कि मंदिर के उत्सव की घोषयात्रा का संचालन पुजारी के परिवार का ज्येष्ठ सदस्य नहीं करेगा, बल्कि कोई कनिष्ठ सदस्य ही करेगा। इन दोनों नियमों का पालन आज भी इस मंदिर में होता है।

ऐसा कहा जाता है कि तिरुनक्करा देव के सांड़ के शरीर पर कुछ वर्षों में फोड़े फूट निकलते थे, और इन वर्षों में तेक्कुमकूर देश में कोई न कोई बड़ी विपत्ति आ जाती थी। सुना है कि जिन वर्षों में तेक्कुमकूर के राजाओं का स्वर्गवास हुआ था, यथा 933, 973, 986, 990, 1004,1022, 1036, और 1055 के वर्ष, उन सब वर्षों में सांड़ के शरीर पर फोड़े निकले थे। जिन वर्षों में सांड़ के फोड़े निकल आते थे, उन वर्षों में कुछ निराकरणात्मक पूजाएं मंदिर में कराई जाती थीं, और लोगों का मानना था कि इससे विपत्ति टल जाती थी। इन पूजाओं के लिए तेक्कुमकूर की सरकार की ओर से हजारों रुपए खर्च किए जाते थे। शायद आजकल लोगों में पहले जैसी परिष्कृतता न होने से और उनमें इस तरह की बातों में आस्था कम हो जाने से अथवा अन्य कारणों से अभी हाल के वर्षों में सांड़ के फोड़े निकलने की घटनाएं देखने में नहीं आ रही हैं और ऐसा ही लगता है कि अब आनेवाले वर्षों में भी इसकी कोई संभावना नहीं है।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 1
23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 2

27 जून, 2009

23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

जब ये नंबूरी तलियल में रह रहे थे, एक दिन वे राजा को सूचित करके तिरुनक्करा स्वामियार के मठ को चल पड़े। उन्होंने ऐसा यही सोचकर किया कि यदि स्वामियार से मिलकर उनसे अपनी स्थिति के बारे में बताऊं तो वे शायद मेरी कुछ मदद कर सकेंगे। मठ में पहुंचकर पेरप्परंबु नंबूरी ने स्वामियार से अपने कष्टों की कथा सुनाई। चूंकि चौमासा शुरू हो चुका था, स्वामियार ने उनसे अनुरोध किया कि बारिश का मौसम समाप्त होने तक वे मठ में ही रुकें। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि मैं आपकी कुछ मदद करूंगा। इसलिए पेरेप्परंबु नंबूरी वहीं रुक गए।

आज जिस प्रदेश में तिरुनक्करा का देवालय है वह उन दिनों घना जंगल था। उसे नक्कराक्कुन्नु (नक्करा की पहाड़ी) ही कहा जाता था। वहां देव सान्निध्य और देवालय के बन जाने के बाद ही नक्करा तिरुनक्करा बना (मलायालम में तिरु का मतलब श्री होता है)। स्वयं नक्करा भी मूल शब्द नलक्करा का संक्षिप्त रूप है। स्वामियार के नौकर उस पहाड़ी की जमीन पर सूरण, अरबी आदि कंद-मूलों की कृषि करते थे। चौमासे की समाप्ति पर मठ में एक भोज होता था, और चूंकि इस भोज का समय निकट आ रहा था, इसलिए दो नौकर हाथ में खुरपी लिए सूरण आदि खोदकर निकालने के लिए चल पड़े। जब उन्होंने खुरपी से जमीन पर आघात किया तो वे यह देखकर भयभीत और विस्मित हुए कि जमीन से खून की धारा बह निकली है। भागकर वे मठ में लौट आए और स्वामियार को सब बातें बता दीं। तब स्वामियार तुरंत उस जगह पर पहुंचे और उन्होंने सावधानीपूर्वक मिट्टी हटाकर देखा। तब उन्हें वहां एक शिवलिंग उगा हुआ मिला। चूंकि इस तरह स्वयंभू प्रकट हुए शिवलिंग को कोई देख लेने पर, तुंरत ही उसे नैवेद्य अर्पित न किया जाए तो वह अदृश्य हो जाता है, इसलिए स्वामियार ने मठ से पुष्प, चंदन आदि नैवेद्य की सारी सामग्री मंगवाई और पारेप्परंबु नंबूरी के हाथों से ही शिवलिंग को नैवेद्य दिलवाया और वहां एक पूजा भी करवाई। उसके बाद स्वामियार ने इस सबका विवरण पत्र में लिखकर उस पत्र को तेक्कुमकूर के राजा को भिजवा दिया।

पत्र मिलने पर राजा समझ गए कि उन्हें तृश्शिवपेरूर में जो स्वप्न हुआ था, वह घटित हो गया है, और वे अत्यंत प्रसन्न हुए और तुरंत ही नक्कराक्कुन्नु चल पड़े। वहां पहुंचकर राजा ने देखा कि शिवलिंग के आगे एक वृषभ है और उससे कुछ उत्तर दिशा में एक सफेद पुष्प वाली चेत्ती का पौधा भी उगा हुआ है। अब राजा को विश्वास हो गया कि स्वयं तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन ही यहां प्रकट हुए हैं।

उसके बाद तेक्कुमकूर राजा ने वहां चार गोपुरोंवाले, अनेक मंजिलों, नाट्यशाला, पाकशाला आदि से परिपूर्ण एक विशाल देवालय बनवा दिया तथा नित्य दान, हर महीने के लिए प्रमुख दिवस, घोषयात्रा का दिवस, उत्सव का दिवस आदि निश्चित कर दिए और इन सबके लिए आवश्यक धन-वस्तुओं, देवस्वम, आदि का भी इंतजाम कर दिया। तदनुसार मंदिर में नित्य पांच बार पूजा, तीन शिवेली, नवकम, पंचगव्यम आदि होने लगे, और हर साल, तुला, मीन, मिथुन, इन तीन महीनों में उत्सव भी आयोजित किया जाने लगा। एक महा देवालय में जो सब गतिविधियां होनी चाहिए, उन सबकी व्यवस्था उस राजा ने यहां भी कर दी। इस कारण से तिरुनक्करा का वह देवालय कुछ ही समय में अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो गया। राजा ने उस देवालय के मुख्य पुजारी के रूप में पेरेप्परंबु के नंबूतिरी को ही नियुक्त भी कर दिया। चेंगष़श्शेरी और पुन्नश्शेरी इन दो घरानों के वरिष्ठ व्यक्ति को देव के परिचारक के रूप में उन्होंने नियुक्त कर दिया। स्वामियर मठ के जिन दो भृत्यों ने शिवलिंग की खोज की थी, उनके परिवार को राजा ने क्रमशः देवालय के दीपों की व्यवस्था करने और मंदिर की पाकशाला में चावल पहुंचाने का काम सौंप दिया।

यह सब हो जाने के कुछ ही समय बाद इस प्रदेश के लोग एक विकट उपद्रव का शिकार होने लगे। तिरुनक्करा में या उसके अड़ोस-पड़ोस में यदि कोई चावल या अन्य धान-तरकारी की खेती करे, तो रात के समय उन खेतों का बाड़ा तोड़कर एक सफेद सांड़ खेतों में घुस आ जाता था और सारी फसल चट कर जाता था। यह सांड़ किसका है, कहां से आता है, और रात बीतने के बाद कहां चला जाता है, यह सब किसी को भी ठीक-ठीक पता नहीं चल सका। न ही कोई उसे पकड़ने में ही सफल हो पाया। जब चांदनी खिली हो, तब दूर से देखने पर खेतों में वह सफेद सांड़ दिखाई दे जाता था, लेकिन जब कोई उसके निकट जाने की कोशिश करता, वह किसी तरह बचकर भाग निकल जाता था। उससे वहां की जनता खूब परेशान रहने लगी।

जब परिस्थितियां इस तरह की थीं, एक अच्छी चांदनी वाले दिन तिरुनक्करा से दो कोस पश्चिम में स्थित 'वेलूर' में एक परयन (एक निम्न जाति का व्यक्ति) ने उस सांड़ को खेतों में देखकर उस पर पत्थर फेंककर मारा। उसी रात राजा को एक सपना दिखा जिसमें एक सांड़ ने आकर उनसे इस प्रकार कहा, “आपने देव के लिए तो सब इंतजाम कर दिया, पर मेरे लिए कुछ भी नहीं किया। क्या मैं उनका वाहन नहीं हूं? मुझे दूसरों के खेतों से चुराकर अपना पेट भरना पड़ रहा है। इतना ही नहीं आज मैं एक परयन द्वारा फेंके गए पत्थर से घायल भी हो गया हूं। यह बहुत ही खेदजनक स्थिति है।” अगले दिन जब राजा ने इस स्वप्न के बारे में ज्योतिषियों को बुलाकर प्रश्न विचारकर देखा, तो पता चला कि यह सांड़ तिरुनक्करा देव का ही है और उसके लिए मंदिर में कोई व्यवस्था न किए जाने के कारण ही यह सब उपद्रव हो रहा है, तथा मंदिर के नैवेद्य में सांड़ के लिए भी एक अंश निर्धारित करना चाहिए। राजा ने ऐसा ही किया। वेलूर के जिस खेत में उस सांड़ को पत्थर फेंका गया था, उसे सांड़ के नाम करके देवस्वम को सौंप दिया ताकि उसकी उपज से सांड़ के नैवेद्य की सामग्री नियमित रूप से प्राप्त हो सके। आज भी उस खेत का नाम 'कालक्कंडम' (मलयालम में काला मने सांड़ और कंडम मने खेत होता है) चला आ रहा है।

इस प्रकार उस राजा ने तिरुनक्करा देव के मंदिर के लिए सब व्यवस्थाएं कर दीं और वहीं अपना तिंगल पूजा नियमित रूप करने लगे। इस तरह कई वर्ष बीत जाने पर तिंगल पूजा का अपना नियम बिना भंग किए ही वे एक दिन इस संसार से कूच कर गए।

(... जारी।)

23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 1

26 जून, 2009

23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

बहुत से लोगों ने तिरुवितांकूर के कोट्टयम नगर के मध्य स्थित तिरुनक्करा देवालय के बारे में सुना होगा। मुझे विश्वास है कि पाठकों को वहां के स्वयंभू शिव और सांड से संबंधिय ऐतीह्य सुनने में रुचि होगी।

पुराने समयों में एक तेक्कुमकूर राजा हुए जो नियमित रूप से तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन देवालय में तिंगल पूजा (हर महीने एक बार आकर देवालय में पूजा करना) करते थे। यदि एक महीने के अंतिम दिन देवालय पहुंचा जाए तो उस महीने की पूजा और अगले दिन अगले महीने की पूजा इस तरह दो महीने की पूजा एक साथ संपन्न की जा सकती है, और साल में केवल छह बार ही देवालय की यात्रा करना पर्याप्ता होता है। ये राजा भी यही करते थे। यों कई बरस बीत गए और एक बार भी बिना चूके ये देवालय में हर महीने तिंगल पूजा के लिए आते रहे। कुछ और वर्षों में राजा अत्यंत वृद्ध और रोग-ग्रस्त हो गए और शिव के इस अनन्य भक्त के लिए तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन के देवालय की यात्रा कर पाना अत्यंत कठिन हो गया। फिर भी तिंगल पूजा में व्यवधान न पड़े इसका उन्होंने यथासंभव प्रयास किया।

जब स्थिति इस तरह थी, एक बार महीने के अंतिम दिवस ये राजा नियमानुसार परिवार समेत तृश्शिवपेरूर आ पहुंचे। तब तक वे बहुत वृद्ध हो चुके थे और बड़ी मुश्किल से उन्होंने किसी तरह स्नानादि पूरा करके दूसरों की मदद से वडक्कुमनाथन के सामने पहुंचे और हाथ जोड़कर इस तरह प्रार्थना की, " हे भक्तवत्सल भगवान! मेरा यह नियम टूटने से पहले मुझे यहां से उठा ले और अपने पादारविंदों में स्थान दे दे! तिंगल पूजा न कर सकूं तो मैं जीवित भी नहीं रहना चाहता, और अब मैं इतना अशक्त हो गया हूं कि मेरे लिए यह यात्रा कर पाना संभव नहीं रह गया है, इसलिए जितनी जल्दी हो सके मुझे अपने पास बुला ले।" उस दिन रात का भोजन समाप्त करके जब राजा सो रहे थे, तो उन्हें लगा कि कोई उनके निकट आकर इस तरह बोल रहा है, “अब मेरे दर्शन करने के लिए यहां आने का कष्ट उठाने की जरूरत नहीं है। मैं ही 'नक्करा' की पहाड़ी पर आ जाऊंगा। मेरे आगे वृषभ होगा और पीछे सफेद चेत्ती का एक पौधा।“ तुरंत राजा ने आंखें खोलकर देखा, पर वहां कोई नहीं था। राजा ने मान लिया कि यह वडक्कुमनाथन ही थे जिन्होंने इस प्रकार कहा है, और वे फिर सो गए।

अगले दिन देव-दर्शन और भोजन करने के बाद राजा तृश्शिवपेरूर से चल पड़े।

यह सोचकर कि लौटते हुए वैक्कम के पेरुमतृक्कोविलप्पन के भी दर्शन करते जाना चाहिए, वे वहां की ओर मुड़े। जब वे देवालय में दाखिल हुए, उन्हें वहां एक ब्राह्मण दिखाई दिया जिसकी दाड़ी-मूछें और सिर के बाल खूब बढ़े हुए थे, शरीर पर भस्म लगा हुआ था, और गले में रुद्राक्ष की माला थी। राजा ने वहां मौजूद लोगों से पूछकर पता लगाया कि ये ब्राह्मण कौन हैं। तब उन्हें पता चला कि ये एक नंबूरी हैं जिनका घराना वैक्कम में ही है, और उसका नाम पेरेप्परंबु है। गरीबी अहस्य हो उठने से ये घर छोड़कर वैक्कम के देव की आराधना करने आए हैं और इन्होंने अभी दो-तीन दिन हुए संवत्सर-जप पूरा किया है। इन्हें कोई नित्यवृत्ति नहीं है और इनके घर में तीन चार बेटियां शादी के लिए तैयार हैं, पर इनके पास धन न होने से वे अभी अविवाहित हैं। तब राजा ने इन नंबूरी को अपने पास बुलवाया और उनसे यों कहा, “यदि आप मेरे साथ चलें, तो मैं आपकी एक-दो बेटियों के विवाह का बंदोबस्त करके दे सकता हूं।” यह सुनकर ये नंबूरी अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले, “जैसी आपकी इच्छा” और जब राजा भगवद-दर्शन के बाद लौटे, तो वे भी उनके साथ चल दिए।

उन दिनों तेक्कुमकूर के राजाओं पर राज्य संचालन का कार्यभार था। उनकी राजधानी आज तिरुनक्करा देवालाय जहां स्थित है उससे एक कोस उत्तर में ‘तलियल’ नामक जगह में स्थित थी। इसलिए पेरेप्परंबु के वे नंबूतिरी राजा के साथ वहीं जा पहुंचे और वहीं रहने लगे।

(... जारी)

24 जून, 2009

22. कुमारनेल्लूर भगवती - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

उन दिनों केरल भर के एकछत्र राजा चेरमानपेरुमाल का यह विचार था कि भगवती का एक देवालय बनवाना चाहिए, और वैकम के उदयनाथपुरम में भी सुब्रमण्यम के लिए एक मंदिर बनाना चाहिए। तदनुसार उन्होंने आजकल कुमारनेल्लूर कहे जानेवाले स्थान में भगवती के लिए और वैकम के उदयनाथपुरम में सुब्रमण्यम के लिए एक-एक भव्य मंदिर बनवा दिया और उनके भरण-पोषण के लिए विपुल व्यवस्था करने के बाद वे उनमें प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए शुभ मुहूर्त का इंतजार कर रहे थे। जिस मंदिर में वह पुजारी जाकर सोया था, वह चेरमान पेरुमाल द्वारा कुमारस्वामी (सुब्रमण्यम) की प्रतिष्ठा करने के लिए बनवाया गया मंदिर ही था। जब सुबह पुजारी की नींद खुली तो चारों ओर के नजारे से वह बहुत विस्मित हुआ और मंदिर की भव्यता देखकर बोल पड़ा, “यह कैसा आश्चर्य है!” तब उसकी नजर गर्भगृह की ओर गई और उसने देखा कि कल रात उसके आगे-आगे जो दिव्य स्त्री भागी चली गई थी, वह सुब्रमण्यम के लिए बनाए गए चबूतरे पर विराजमान है। वह साक्षात मुदुरैमीनाक्षी देवी ही थी, यह कहना तो आवश्यक नहीं है।

तब उस ब्राह्मण ने मंदिर से बाहर निकल आकर वहां उसे मिले सभी लोगों को बुला बुलाकर कहा कि देखो इस देवालय में मदुरै मीनाक्षी आ गई हैं। यह सुनकर सब लोग मंदिर के गर्भगृह में जाकर देख आए। उन्हें वहां कुछ नहीं दिखा। वे सब यही पूछने लगे, “कहां बैठी हैं वह?” तब उस पुजारी ने उंगली से इशारा करते हुए कहा, “यह तो रही वह, गर्भगृह के चबूतरे पर।“ पर देवी केवल उस ब्राह्मण को दिखाई दे रही थी, और बाकी सबके लिए वह अदृश्य थी। इसलिए उन सबने कहा, “लगता है यह ब्राह्मण सठिया गया है, बे सिर पैर की हांक रहा है,” और वे उसे चिढ़ाने लगे। यह सब समाचार कानों-कान चेरुमान पुरमाल तक पहुंच गया और वे अपनी आंखों से सब कुछ देखने परखने के लिए वहां आ गए। उन्हें भी देवी नहीं दिखी, और वे ब्राह्मण से बोले, "यहां तो कुछ भी नहीं दिख रहा।“ तब ब्राह्मण ने कहा, “मुझे छूते हुए देखिए।“ जब चेरुमान पेरमाल ने उस ब्राह्मण को छूते हुए देखा, तो उन्हें सचमुच देवी गर्भगृह के अंदर चबूतरे पर बैठी हुई दिखी। उसके बाद चेरुमान पेरुमाल ने देवी के इस तरह वहां आ धमकने का कारण सब उस ब्राह्मण से पूछा और उस ब्राह्मण ने जो कुछ भी उसके साथ घटा था, वह सब राजा को विस्तार से बता दिया। जब राजा को सब बातें मालूम हो गईं, तो उन्हें आश्चर्य और विस्मय तो हुआ ही, ब्राह्मण पर पूर्ण विश्वास भी हो गया। लेकिन उन्हें थोड़ा क्रोध और इच्छाभंग की अनुभूति भी हुई। वे सोचने लगे, “मैंने सुब्रमण्यम की प्रतिष्ठा के लिए जो मंदिर बनवाया उसमें सुब्रमण्यम की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी और यह देवी बिन बुलाए ही उसमें आ जमी। इस बत्तमीज देवी के लिए मैं कुछ भी नहीं करूंगा, न ही उसके देवालय के रखरखाव के लिए ही कुछ व्यवस्था करूंगा। यदि उसमें इतना ही पराक्रम है, तो वह स्वयं ही इन सबका बंदोबस्त कर ले। मैंने जो मुहूर्त निश्चय किया है उसमें मैं सुब्रमण्यम की प्रतिमा की प्रतिष्ठा अवश्य करूंगा, लेकिन अब मुझे वह देवी प्रतिष्ठा के लिए जो स्थल चुना था, वहां करना पड़ेगा। यह लो, मैं अभी ही वैकम के लिए प्रस्थान करता हूं। यह यहीं बैठी रहे।" यों सोचते हुए वे राजा उसी वक्त वहां से चले भी गए।

अभी चेरुमान पेरुमाल उत्तर दिशा में पांच कोस भी नहीं गए थे कि वह सारा प्रदेश अत्यंत घने और भीषण कुहरे से ढंक गया। राजा को और उनके साथ मौजूद व्यक्तियों को कुछ भी दिखना बंद हो गया। चूंकि उन्हें यह समझ नहीं पड़ रहा था कि रास्ता कहां है, उन सबको वहीं रुक जाना पड़ा। तब चेरुमान पेरुमाल के एक सहायक ने कहा, "हम पर यह जो विपत्ति आ पड़ी है, लगता है वह उस देवी की माया वैभव के ही कारण है। अन्यथा इस समय ऐसे कोहरे के आने का कोई वजह नहीं है। उस देवी का माहात्म्य बहुत अधिक प्रतीत होता है। उस देवी और उस ब्राह्मण के यहां आ पहुंचने के प्रसंग से ही यह बात स्पष्ट है। इसलिए मुझे लगता है कि हम सबको लौट जाना चाहिए और वहां सब व्यवस्था कर देनी चाहिए।“ यह सुनकर चेरुमान पेरुमाल बोले, “यदि यह सचमुच उस देवी के माया वैभव का फल है तो इसी क्षण हमें दिखने लगे, यदि ऐसा होता है, तो यहां से जो सब प्रदेश दिखाई देता है, वह सब प्रदेश मैं उस देवी को दे देने को तैयार हूं। इतना ही नहीं वहां जो कुछ भी जरूरी हो, वह सब भी कर दूंगा।" तुरंत ही कुहरा छंट गया और सब लोगों को सब कुछ पहले जैसे ही दिखने लगा। यह देखकर चेरुमान पेरुमाल ने उसी क्षण घोषित कर दिया कि वह सब प्रदेश उन्होंने उस देवी के हवाले कर दिया है, और वहां से लौट चले। कोहरे से भर गए उस देश को मंञ्ञूर (कोहरे को मलयालम में मंञु और प्रदेश को ऊर कहते हैं) कहा जाने लगा जो बाद में माञ्ञूर हो गया। आज भी माञ्ञूर कहा जानेवाला सारा प्रदेश कुमारनेल्लूर देवी की ही बनी हुई है।

इस घटना के बाद चेरुमान पेरुमाल उस स्थान को लौट आए जहां उन्हें देवी का सान्निध्य प्राप्त हुआ था। वहां उन्होंने देवी की प्रतिष्ठा कराने का निश्चय किया और इसके लिए आवश्यक सब व्यवस्था करने के लिए वहीं रुक गए। यहां प्रतिष्ठा करने के लिए सुब्रमण्यम की जो प्रतिमा उन्होंनं बनवाई थी, उसे उदयनाथपुरम भिजवा दिया और देवी विग्रह को यहां ले आने का आदेश जारी किया।

जब विग्रह प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकट आने लगा, तो राजा को यह सूचना मिली कि उदयनापुरम से देवी की प्रतिमा समय पर यहां नहीं पहुंच पाएगी। यह सुनकर उनकी बहुत ही विषम स्थिति हो गई। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया कि अब क्या किया जाए। नई प्रतिमा बनवाने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं था। यदि इसी मुहूर्त पर विग्रह प्रतिष्ठा नहीं की गई तो मान-हानि तो होगी ही, उन्होंने इस समारोह के लिए जो भारी द्रव्य खर्च किया था, वह भी सब व्यर्थ चला जाएगा। इतना ही नहीं, इतना बढ़िया और इतना शुद्ध मुहूर्त अब कई दिनों तक न मिल पाने की संभावना भी प्रबल थी। यह सब सोचकर चेरुमान पेरुमाल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।

उस रात जब चेरुमान पेरुमाल सो रहे थे, तब उन्हें एक सपना दिखाई दिया जिसमें किसी ने उनके पास आकर कहा, “आप बिलकुल चिंता न करें। यहां से उत्तरपूर्वी दिशा में दो कोस की दूरी पर जंगल में एक पुराना कुंआ है। उस कुंए में मेरी एक अच्छी प्रतिमा पड़ी है। उसे बाहर निकालकर यहां प्रतिष्ठित कर दीजिए।“ सुबह उठने पर चेरुमान पेरुमाल ने निश्चय किया कि यह पता लगाना जरूरी है कि यह सपना सही है या नहीं, और दलबल के साथ उत्तरपूर्वी दिशा में पर्वत चढ़ने लगे। वहां सब घना जंगल था। राजा को जंगल काटकर साफ करते हुए आगे बढ़ना पड़ा। यों कुछ दूर जाने पर उन्हें एक कुंआ मिला। उसमें आदमी उतारा गया। तब उनहें बिना किसी प्रकार की खोट वाली देवी की एक सुंदर मूर्ति उस कुंए से मिली। चेरुमान पेरुमाल उस श्रेष्ठ मूर्ति को सावधानीपूर्वक उठवाकर मंदिर ले आए और शुभ मुहूर्त में उसकी प्रतिष्ठा करवा दी, लेकिन कुमार (सुब्रमण्य) स्वामी की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने जो भव्य मंदिर बनवाया था, उसका नाम पहले के उनके निश्चय के अनुसार कुमारनेल्लूर ही रहने दिया। इसके बाद चेरुमान पेरुमाल ने सारे माञ्ञूर प्रदेश से अपनी सत्ता हटा ली, और उस प्रदेश को देवी के हवाले कर दिया। वहां से जाने से पहले मंदिर में नित्य पूजा, मासिक पूजा, उत्सव आदि की पूरी व्यवस्था कर दी। इन सबके लिए उन्होंने पर्याप्त द्रव्य सामग्री और नियमावलियां और परिपाटियां निश्चित कर दीं। उन्होंने एक देवस्वम की स्थापना की और उसका संचालन उस प्रदेश के कुछ नंबूतिरी घरानों के हाथों में सौंप दिया। इस तरह कुमारनेल्लूर एक समुदाय-शासित देवालय में बदल गया।

चेरुमान पेरुमाल ने तय किया था कि कुमारनेल्लूर में तुला माह की रोहिणी से लेकर वृच्छी माह की रोहिणी तक इक्कीस दिनों का उत्सव मनाया जाएगा। उस मंदिर के माञ्ञूर के नंबूतिरियों के हाथों में आ जाने के कई वर्षों तक इस परिपाटी का पालन होता रहा। बाद में उत्सव के दिनों को थोड़ा घटाकर वृच्छी माह के कार्ती के नौवें दिन से शुरू करके दस दिनों का कर दिया गया। आज भी वहां दस दिनों का उत्सव ही होता है। देवी के माहात्म्य और शक्ति के कारण उस मंदिर की अभिवृद्धि निरंतर होती गई। आज भी यही हाल है। यही कहा जाता है कि देवालय का संचालन यदि कोई देवी करे, तो वह अवगुण युक्त माना जाएगा। लेकिन कुमारनेल्लूर इसका स्पष्ट अपवाद प्रतीत होता है। उस भगवती के कारनामों का यदि वर्णन शुरू किया जाए तो उसका अंत ही नहीं होगा। आज भी उस मंदिर में देवी सान्निध्य देखा जा सकता है।

देवी के साथ मदुरै से जो ब्राह्मण चला आया था, उसके वंशज आज भी कुमारनेल्लूर में हैं। उन्हें मदुरै नंबूतिरी कहा जाता है।

22. कुमारनेल्लूर भगवती - 1

(समाप्त। अब नई कहानी।)

23 जून, 2009

22. कुमारनेल्लूर भगवती

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

केरल में ऐसा कोई नहीं होगा जिसने तिरुवितांकूर राज्य के समुदाय-प्रशासित देवालयों में अग्रणी एवं एट्टुमानूर तालुका में स्थित सुप्रसिद्ध कुमारनेल्लूर देवलाय के बारे में नहीं सुना हो। वहां की देवी के निम्नलिखित स्तोत्र को भी अनेक लोगों ने सुना होगा, यद्यपि वह उतना सुंदर नहीं है:-

शंखुंडिटत्तु वलमेयोरु चक्रमुंडु
कालिल चिलंबु चिल मुत्तुपडम कषुत्तिल
ओडीट्टु वन्नु कूडिकोंडे कुमारनेल्लूर-
कार्त्यायनी! शरणमेन्नि ता कै तोषुन्नेन

(अर्थ:- शंख जहां है, उसके दाएं चक्र है,
पैरों में पायल और गले में मोती की माला है
दौड़कर चढ़ बैठी कुमारनेल्लूर-
कार्त्यायनी! हाथ जोड़कर मैं नमस्कार करता हूं, मुझे शरण दे)

लेकिन इस स्तोत्र में “दौड़कर चढ़ बैठी” का तात्पर्य क्या है, इसे जाननेवाले लोग आजकल कम होंगे। इसलिए इस प्रसंग के बारे में कम शब्दों में यहां बताता हूं।

पुराने जमाने में “मदुरैमीनाक्षी” के नाम से जानी जानेवाली देवी का प्रसिद्ध देवालय पांड्य राजाओं के देश में उनकी राजधानी मदुरै में स्थित था। इस देवालय की व्यवस्था स्वयं पांड्य राजा करते थे। ये राजा इस देवी को अपनी कुल देवी के रूप में मानते थे और उसके प्रति अनन्य श्रद्धा रखते थे।

एक बार उस देवी की प्रतिमा का एक अत्यंत बेशकीमती रत्न-जटित नथ गुम हो गया। शायद पुरोहित द्वारा सुबह होने पर पिछली रात के फूल, हार आदि को प्रतिमा से हटाते समय नथ गिर गया था, और उन मुर्झाए पुष्पों और मालाओं के साथ ही कचरे में फेंक दिया गया था, अथवा अभिषेक आदि करते समय वह दूध, घी, आदि द्रवों के साथ बहकर नाले में चला गया था, या पूजा करते समय अनजाने में पुजारी का हाथ लगने से वह प्रतिमा से उखड़ गया था। ठीक ठीक किस तरह वह गुम हुआ, यह कोई भी निश्चयपूर्वक नहीं जान सका। जब पांड्य राजा को पता चला कि देवी का नथ गुम हो गया है, तो उन्होंने अनेक विधियों से पूछताछ कराई पर नथ का कुछ भी पता न चल सका। अंत में राजा इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रतिमा की वस्तुओं को पुजारी के सिवा और कोई हाथ नहीं लगाता, इसलिए पुजारी की जानकारी के बिना वह नथ कहीं नहीं जा सकता है। राजा का इस तरह सोचना अनुचित भी नहीं था। फिर भी सचाई यह थी कि पुजारी मंदिर का काफी पुराना सेवक था और देवी में उसकी अटल आस्था थी और उसे सचमुच पता नहीं था कि देवी का नथ किस तरह गुम हुआ और वह इस समय कहां है। देवी को रोज पहनाए जानेवाले इस आभूषण के खो जाने से उसे भी अतीव दुख और मानसिक क्लेष हो रहा था। पर यह सब राजा क्या जाने। अपने कठोर शासन के लिए प्रसिद्ध पांड्य राजा ने पुजारी को गिरफ्तार कर लिया और उससे कठोरतापूर्वक पूछताछ करने लगे। पर उस निर्दोष पुजारी ने यही जवाब दिया कि मुझे नथ के खो जाने के संबंध में कुछ भी नहीं पता है। अंत में राजा ने आदेश दिया कि चालीस दिनों के अंदर पुजारी किसी भी तरह वह नथ ढूंढ़कर लाए, वरना उसका सिर कलम कर लिया जाएगा। यह सुनकर पुजारी ने कुछ भी नहीं कहा, और दुखी मन से राजा के सामने से हट गया। उस ब्राह्मण-श्रेष्ठ ने कई प्रकार से नथ के संबंध में अन्वेषण किया पर वह नहीं मिला तो नहीं मिला। इस तरह उनचालीस दिन बीत गए। उनचालीसवीं रात को वह ब्राह्मण यह सोचते हुए कि सुबह होते ही मेरा शिरोच्छेद कर दिया जाएगा, अत्यंत खिन्न मन से लेट गया और आंखें बंद कर लीं। वह अभी अधिक समय नहीं सोया होगा कि उसे लगा कि कोई उसके निकट आया हुआ है और उससे कह रहा है, "अब आप यहां रहेंगे तो विपत्ति की संभावना है। देखिए, सभी पहरेदार गहरी नींद में हैं। इसका लाभ उठाकर आप मंदिर से बाहर निकलकर कहीं भाग जाइए। तब आप किसी सुरक्षित स्थल में पहुंचकर अपनी जान बचा सकेंगे।" तुरंत उस ब्राह्मण ने आंखें खोलकर देखा, पर वहां कोई नहीं था। तब यह कहते हुए कि, इस तरह किसने बोला होगा? वह दुबारा लेट गया। लेटे-लेटे वह सोचने लगा, जरूर मैंने कोई सपना देखा होगा। उसकी आंखें फिर लग गईं। तब फिर से उसी व्यक्ति ने उसके निकट आकर कहा, “क्यों जी नहीं जा रहे हैं? जल्दी जाना होगा। संशय न करें। अभी नहीं गए, तो बच नहीं पाएंगे।” पुजारी ने एक बार फिर आंखें खोलकर देखा, वहां कोई नहीं था। वह फिर सो गया। तब तीसरी बार वह व्यक्ति प्रकट हुआ और उसने वही बात फिर से कही। तब पुजारी ने सोचा, “जो भी हो, इस चेतावनी को नजरंदाज करना अब उचित नहीं लगता। हो सकता है कि यह देवी ही ने मुझे चेताया हो। इसलिए जल्दी से जहां से भाग चलना ही ठीक होगा।” इस निश्चय पर पहुंचकर वह ब्राह्मण चुपके से वहां से उठकर कुछ ही पलों में देवालय के बाहर आ गया और तुरंत ही वहां से भागने लगा। तब एक सर्वांगसुंदरी दिव्य स्त्री भी यह कहते हुए भागकर उनके साथ हो ली - “आपने बहुत समय से मेरी सेवा की है। इसलिए यदि आप यहां से जा रहे हैं, तो मैं भी यहां नहीं रुकूंगी”। कुछ और दूर जाने पर वह स्त्री पुजारी से आगे निकल गई और पुजारी उसके पीछे-पीछे भागने लगा। बिलकुल अंधेरी रात होने पर भी, उस दिव्य स्त्री की देह से निकलनेवाली कांति और उसके आभूषणों की झिलमिलाहट के कराण पुजारी को रास्ता बिलकुल साफ-साफ सूझने लगा। इस तरह वे दोनों कुछ चार-पांच कोस तक भागते चले गए। तब अचानव वह स्त्री अंतर्धान हो गई। इससे एक बार फिर चारों तरफ गहन अंधकार छा गया। कुछ भी न दिखने के कारण उस ब्राह्मण को भागना तो क्या चलना भी दुष्कर हो गया। तब उसे अत्यधिक डर लगने लगा और वह बहुत घबराया। फिर भी किसी तरह आगे बढ़ता रहा। अब तक वह काफी थक चुका था और उसके लिए चलते जाना अत्यंत कठिन प्रतीत हो रहा था। उसे यह डर भी था कि कहीं राजा के अनुचर उसका पीछा करते हुए वहां आ न पहुंचें। फिर भी उसके लिए यह जरूरी हो गया कि कहीं रुककर थोड़ा विश्राम किया जाए। तब आकाश में बिजली के चमकने की रोशनी में उसे रास्ते के पास ही एक मंदिर के होने का आभास हुआ। गिरते पड़ते, वह उसी दिशा में चल दिया और घुटनों के सहारे और हाथ से पकड़-पकड़कर किसी तरह मंदिर की सीढ़िया चढ़कर उसके चबूतरे में आ गया। फिर ऊपर के वस्त्र को बिछाकर वह चबूतरे में लेट गया और तुंरत ही थकावट के कारण गहरी नींद में चला गया।

(...जारी।)

21 जून, 2009

ऐतीह्यमाला के बारे में कुछ बातें

पिछले पोस्ट के कंठघोरन हाथी की कहानी के साथ ही कोट्टारत्तिल शंकुण्णि की ऐतीह्यमाला का प्रथम भाग पूर्ण हुआ।

जैसा कि मैंने शुरू में बताया था, ये कहानियां पहले मलयालम के एक अखबार में धाराप्रवाह छपी थीं। यही कारण है कि अधिकांश कहानियां छोटी और रोचक शैली में लिखी गई हैं।

लगभग सभी कहानियों में केरल के नंबूरी ब्राह्मणों की प्रशस्तियां हैं। केरल के इन ऐतीह्यों को आठ भागों में संकलित किया गया है। इनमें कुल 125 कहानियां हैं। अब तक आप भाग 1 की 21 कहानियां पढ़ चुके हैं।

प्रत्येक भाग की पहली कहानी किसी देवी या मंदिर के बारे में होती है। इसका अपवाद प्रथम भाग है, जिसकी पहली कहानी एक राजा के बारे में है, यद्यपि उसके अंतिम अंश में भी एक मंदिर का जिक्र आता है।

प्रत्येक भाग की अंतिम कहानी कोई गज कथा होती है। प्रथम भाग की अंतिम कथा थी कंठघोरन नामक हाथी की कहानी।

प्रत्येक भाग में यों तो सभी कहानियां अपेक्षाकृत छोटी ही होती हैं, पर एक कहानी ऐसी भी होती है, जो खूब लंबी और अनेक अंतर्कथाएं लिए हुए होती है। प्रथम भाग की कहानी परयी से जन्मा पंदिरम कुल द्रष्टव्य है, जिसमें 9 अंतर्कथएं हैं।

प्रत्येक भाग में देवी-देवता, पंडित, भूत-प्रेत, राजा, योद्धा, बावर्ची, वैद्य, आदि से संबंधित एक-दो कहानियां रहती हैं, जिससे रोचकता निरंतर बनी रहती है।

कहानियों में अप्रत्याशित मोड आते रहते हैं और अविश्वसनीय बातें भरी पड़ी हैं, पर इन्हें सब लेखक इस तरह से बयान करता है मानो वे दैनंदिन के जीवन में नित्य ही घटती हों। इस ग्रंथ के इतना लोकप्रिय होने के पीछे यही कारण है।

इन कहानियों को केवल मनोरंजन के उद्देश्य से पढ़ें। इनमें जो नैतिकता, समाज व्यवस्था और सामाजिक मूल्य निहित हैं, वे सब अब पुराने पड़ चुके हैं।

18 जून, 2009

21. गज कथा - किडङूर कंठघोरन



(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)


तिरुवितांकूर राज्य के प्रसिद्ध देवालयों में से सबसे कम प्रसिद्ध एक सुब्रह्मणयक्षेत्र (देवालय) है जो ऐट्टुमानूर तालुके के किडङूर प्रदेश में स्थित है। यह देवालय किडङूर ग्राम के अंतर्गत आनेवाले कुछ नंबूरियों के अधिकार में है। एक समय इस देवालय में कंठघोरन नामक एक प्रसिद्ध दंतैल हाथी था। आकृति और प्रकृति की दृष्टि से उसकी टक्कर का हाथी किसी भी देश में पहले कभी हुआ हो या इस समय मौजूद हो, ऐसा सुनने में नहीं आया है। इस हाथी का कद एवं आकर्षण वैक्कम के प्रसिद्ध तिरुनीलकंठन से कहीं अधिक था। तिरुनीलकंठन से वह ऊंचा भी था और उसके शरीर के मध्य भाग की लंबाई आसानी से उससे एक हाथ अधिक थी, ऐसा मैंने सुना है। सिर का उठान भी उतना ही शानदार था। आगे की ओर घुमावदार उसके दोनों दंतों की सुंदरता भी तिरुनीलकंठन के दंतों से कहीं ज्यादा थी। उसकी चाल भी उसी प्रकार अत्यंत प्रीतिकारी थी।

इस हाथी की बौद्धिक विशेषताएं तो इन सबसे अधिक विस्मयकारी थीं। साधुता और शूरता उसमें समान मात्रा में मौजूद थीं, जो किसी अन्य हाथी में विरले ही देखने में आता है। मदमस्त अवस्था में भी उसने किसी की हत्या नहीं की। साथी हाथियों पर अपने दंतों से प्रहार करने जैसी दुर्वृत्ति भी उसमें नहीं थी। अबोध बच्चे भी उसके समीप जाएं तो उन्हें उसने कभी नुकसान नहीं पहुंचाया। इतना साधु स्वभाव का होते हुए भी वह किसी भी महावत के आदेश का पालन नहीं करता था। महावतों को ही उसकी मर्जी समझकर उनके अनुसार चलना होता था। साधारण हाथियों के समान उसे बांधकर नहीं रखा जाता था। उसे इच्छानुसार विचरने को खुला छोड़ दिया जाता था। खुला रहने पर भी वह किसी प्रकार का उपद्रव नहीं मचाता था। रात होने पर वह कहीं जाकर लेट जाता था। देवालय के उत्तर में बहती नदी में एक बड़ा कुंड था। दिन में अधिकांश समय वह उसी में लेटा रहता था। भैंसों के साथ कंठघोरन को बड़ा लगाव था। जिस कुंड में वह लेटता था, वहां नियमित रूप से बहुत-से भैंस-भैंसे भी एकत्र हो जाते थे। जब उन सबको भूख सताने लगती, तब कंठघोरन उन्हें लेकर तट पर आ जाता था। किडङूर में गन्ने की खूब खेती होती थी और नदी-किनारे गन्ने के बहुत से खेत थे। किसी एक खेत की बाड़ को तोड़कर सब भैंसों को उस राह खेत में घुसाकर कंठघोरन बाड़ के पास ही पहरा देने लगता था। भैंसों को खेत से खदेड़ने के इरादे से कोई वहां आए, तो कंठघोरन उस पर झपट पड़ता था। लेकिन वह किसी को कोई हानि नहीं पहुंचाता था। कंठघोरन को अपनी ओर बढ़ते देखकर लोग भयभीत होकर स्वयं ही तितर-बितर हो जाते थे। जब भैंसों का पेट भर जाता, कंठघोरन उन सबको लेकर जलकुंड में लौट आता था। लेकिन वह स्वयं खेत में से गन्ने का एक डंठल भी नहीं लेता था। उसे उसका भोजन महावत ही नियमित रूप से खिलाते थे। वह था मंदिर से प्राप्त चावल, खीर, केला आदि। इसके अलावा वह दूसरे से कुछ भी छीनकर नहीं खाता था।

एक बार रात के समय जब कंठघोरन उस कुंड में लेटा हुआ था, तब अदरक, हलदी, नारियल, सुपारी आदि से लदी एक नाव पूर्व से उस नदी में बहती हुई आई। खेवटों ने पानी में लेटे हाथी को नहीं देखा और नाव उसके ऊपर चढ़ा दी। क्रोध में आकर कंठघोरन ने नाव को उलट दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। सब खेवट डर के मारे किसी प्रकार तैरकर किनारे पहुंच गए। उन्हें उसने कुछ नहीं किया। उस दिन से कंठघोरन को नौकाओं और खेवटों से बड़ा वैर हो गया। कोई नाव दिखते ही वह उसे तोड़ देता था। इसलिए कंठघोरन जब तक जीवित रहा, खेवट उस मार्ग से नाव तभी ले जाते थे, जब उन्हें पूरा निश्चय हो जाए कि वह कुंड में नहीं है। पूर्व से पश्चिम और पश्चिम से पूर्व को जानेवाली नावें कुंड के बहुत दूर ही रुक जाती थीं और खेवट नाव से उतरकर तट पर आकर अच्छी तरह देख लेते थे कि कंठघोरन कुंड में है या नहीं। जब वह नहीं होता था, तभी वे नाव को आगे बढ़ाते थे। कंठघोरन से कुंड में मुलाकात न होने के लिए वे सब किडङूर सुब्रह्मण्यम क्षेत्र में पूजा करते थे और हुंडी में पैसा डालते थे। इस प्रकार इकट्ठे हुए पैसे से उस मंदिर में एक नया दीपस्तंभ बनाया गया था, जो आज भी वहां खड़ा है।

जब मंदिर में घोषयात्रा का समय होता था, तो महावत कंठघोरन को बुलाकर या पकड़कर नहीं लाते थे। घोषयात्रा के आरंभ में बजाए जानेवाले नगाड़े की आवाज सुनकर वह स्वयं ही कुंड से उठकर ध्वजदंड के नीचे उपस्थित हो जाता था। उसको सजाने के लिए महावत उसके पास जाते तो वह अपना एक पिछला पैर ऊपर उठा देता था। वे सब उस पर पांव रखकर उसकी पीठ पर चढ़ते थे और उसके मस्तक पर चादर बांधते थे। इसके बाद वे उसके पीछे की ओर से ही नीचे उतर पड़ते थे। कंठघोरन ने यह नियम बना रखा था कि कोई भी आगे की ओर से उस पर नहीं चढ़ेगा। केवल घोषयात्रा के दौरान प्रतिमा को पकड़े हुए व्यक्ति को वह आगे से चढ़ने देता था। प्रतिमा को चढ़ाते समय वह किसी के कहे बगैर ही अपने घुटनों को मोड़कर झुक जाता था। छतरी, चंवर आदि पकड़नेवाले सबको पीछे की ओर से उस पर चढ़ना होता था। श्रीवेली, दीपाराधना आदि के लिए घोषयात्रा करते समय यदि महावत उससे तेज अथवा धीमी चाल से चलने के लिए कहता तो वह उसके आदेश की ओर कान नहीं देता था। उसे स्वयं इसका अनुमान था कि इन सबके लिए कितना समय लेना चाहिए। उसी के अनुसार वह चलता था। उसका यह अनुमान अत्यंत सटीक और सबके लिए सुविधाजनक भी होता था। चेंडै (नगाड़े जैसा एक वाद्य) बजाने आदि के लिए कहां-कहां और कितनी देर रुकना है, यह भी उसे पता था। इसी प्रकार नागस्वरम प्रदक्षिणा (शहनाई जैसे एक वाद्य को बजाते हुए प्रतिमा को लेकर मंदिर की प्रदक्षिणा करना) के बारे में भी उसकी एक धारणा थी। उत्सव के दूसरे दिन घोषयत्रा के दौरान हर जगह वह पहले दिवस से अधिक समय रुकता था और तीसरे दिन दूसरे दिन से अधिक समय के लिए। इस प्रकार उत्सव के उत्साह के क्रमेण बढ़ने की उसे जानकारी थी और उसी के अनुसार वह आचरण करता था। पल्लिवेट्टा (भगवान की मृगया), आराट्टु (घोषयात्रा) आदि के दौरान सूर्योदय तक खड़े रहने में उसे कोई एतराज नहीं था। इस सबके लिए उससे कुछ कहने की भी आवश्यकता नहीं होती थी, उसे स्वयं सब पता था। लेकिन यदि मंदिर के अधिकारी यह सोचें कि किसी दिन दीपाराधना या श्रीवेली (दिन की प्रथम घोषयात्रा) थोड़ी जल्दी समाप्त करें, तो इसकी वह इजाजत नहीं देता था। वह तेज न चले तो दूसरे लोग कर भी क्या सकते थे? इसी प्रकार इन सब रस्मों के लिए नियत समय से अधिक समय कोई लेना चाहे, तो इसकी भी वह अनुमति नहीं देता था। समय हो जाने पर वह आगे बढ़ जाता था। तब बाजा बजाने वाले आदि उसके पीछे चल पड़ने के सिवा कर ही क्या सकते थे? दीपाराधना में हर दिन के लिए निश्चित मात्रा भर नारियल का तेल मापकर दीपक में डाला गया हो और बत्ती की लंबाई ठीक रखी गई हो तो दीपाराधना की समाप्ति पर दीपक का सारा तेल खर्च हो चुका होता था। तेल नियत मात्रा से थोड़ा ज्यादा डाला जाए तो दीपाराधना समाप्त होने पर दीपक में तेल बचेगा। इसी प्रकार कम डाला जाए तो दीपाराधना समाप्त होने से पहले दीपक में और तेल डालना पड़ेगा। कंठघोरन का समय पालन इतना पक्का होता था। जब तक कंठघोरन जीवित था, तब तक मंदिर के वेतनभोगी कर्मचारियों के लिए तेल की खपत में घोटाला करके पैसा कमाना असंभव रहा। कुछ भी गड़बड़ करने पर वह तुरंत ही पकड़ी जाती थी। यह सभी जानते थे कि कंठघोरन का समय बोध गलत नहीं हो सकता।

कंठघोरन के स्वभाव को दर्शाने वाले अनेक दृष्टांतों में से एक दृष्टांत मैं यहां दे रहा हूं। एक बार श्रीवेली के बाद कंठघोरन एक संकरे रास्ते से जा रहा था। एक मोड़ मुड़ने पर उसका सामना पकी उम्र की एक नंबूरी स्त्री से हुआ। अपने सामने हाथी को देखकर वह वृद्धा तुरंत बेहोश होकर हाथी के पैरों के सामने गिर पड़ी। उसके साथ आई लड़कियां हाथी को देखते ही पलटकर भाग गईं। हाथी के लिए न फीछे हटना संभव था न आगे बढ़ना। वह गली बहुत ही संकरी थी। कंठघोरन ने कुछ समय इंतजार करके देखा। पर तब भी स्त्री को होश न आने से उसे उसने बड़ी सावधानी से अपनी सूंड़ में उठाकर पास के एक घर के बरामदे में रख दिया। वृद्धा की छतरी भी वहां पड़ी थी। उसे भी उसने उठाकर स्त्री के पास रख दिया। इस प्रकार अपने लिए रास्ता बनाकर वह आगे बढ़ गया। यह कहने की जरूरत नहीं कि उस समय महावत आदि कोई वहां नहीं मौजूद था। उस स्त्री को जरा भी तकलीफ नहीं हुई। इतनी बुद्धिसामर्थ्य किस हाथी में होती है? हाथी के चले जाने के कुछ समय बाद स्त्री को होश आया। वह उठकर छतरी लेकर अपने रास्ते चली गई। इस प्रकार की अनेक विस्मयकारी घटनाएं कंठघोरन के साथ जुड़ी हुई हैं।

बहुत-से लोग कंठघोरन को लकड़ी उठवाने ले जाते थे। तना चाहे जितना मोटा और लंबा क्यों न हो, कंठघोरन उसे आसानी से उठा लेता था। उसका एक सिरा बांधकर उसकी सूंड़ में दे देने पर वह उसे उठा लेता था। लेकिन यह सब तभी करता था जब उसका जी करे। किसी के कहने से वह नहीं करता था। महावतों और मंदिर के अधिकारियों को जो रकम नियमानुसार देना होता था, उसके अलावा कंठघोरन को भी कुछ दिए बगैर उससे लकड़ी उठवाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। इन सब कार्यों के लिए एक महावत तो चाहिए ही। मंदिर में पांच-छह महावत थे, जिनमें से एक प्रधान था। उसी के साथ कंठघोरन लकड़ी उठाने जाता था। किसी दूसरे महावत के कहने से वह एक टहनी भी नहीं उठाता था। इसलिए मंदिर के अधिकारियों की अनुमति प्राप्त कर लेने के बाद इस महावत को भी कुछ देकर मनाना पड़ता था। इसके बाद कंठघोरन को क्या-क्या दिया जाएगा, यह भी कहना पड़ता था। काम हो जाने के बाद यह सब सामग्री तुरंत न दी गई, तो कंठघोरन लकड़ी को उठाकर पहले की जगह पर डाल देता था। कंठघोरन की यही विशेषता थी। लकड़ियों की लंबाई, मोटाई, संख्या, उन्हें कहां रखना है, काम के बदले क्या प्रतिफल उसे मिलेगा, यह सब उसके सामने पहले ही कहना पड़ता था। इन सबसे वह सहमत है या नहीं, यह वह सिर हिलाकर या चिंघाड़कर जाहिर कर देता था। यदि वह सहमत न हो तो प्रतिफल की मात्रा बढ़ा देने से वह कभी-कभी मान जाता था। प्रतिफल के रूप में उसे केला, नारियल, गुड़, खीर आदि दिया जा सकता था।

एक बार एक व्यक्ति एक बड़े तने को उठाकर एक स्थान पर रखवाने के लिए कंठघोरन के पास आया। मंदिर के अधिकारी व महावत सहमत हो गए। महावत ने उस व्यक्ति से पूछा, "कंठघोरन को क्या देंगे?" तब उसने कहा, "केले के दस गुच्छे, दस नारियल और एक मन गुड़।" तुरंत महावत और कंठघोरन ने जाकर वह तना नियत स्थान पर रख दिया। लेकिन काम हो जाने के बाद उस व्यक्ति ने कंठघोरन को नियत प्रतिफल नहीं दिया, बल्कि कहा कि कुछ दिनों बाद दूंगा। यह सुनकर कंठघोरन को बेहद गुस्सा आया। उसने उसी समय उस तने को उठाकर उसके पूर्व स्थान पर रख दिया। उस समय वह व्यक्ति वहां नहीं था। जब वह आया तो तने को पहली वाली जगह पर ही पड़ा देखकर चकित रह गया। दूसरे बहुत से हाथियों को बुलाकर उसने उसे उठवाने की कोशिश की, लेकिन वे उसे तिल भर दूर भी खिसका नहीं सके। अंत में हारकर उसे कंठघोरन के ही पास आना पड़ा। उसने मंदिर के अधिकारियों और महावत को तो मना लिया, लेकिन कंठघोरन से पूछा गया तो उसने मना कर दिया।

(समाप्त। इसके साथ ही कोट्टारत्तिल शंकुण्णि द्वारा विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का प्रथम भाग पूरा हुआ। अब भाग 2 की कहानियां।)

17 जून, 2009

20. कोषिक्कोड की मंडी

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

पुराने जमाने में जब कोषिक्कोड के राजा अपने राज्य के अधिपति थे, उस समय के सिंहासनासीन सामूतिरिप्पाड (कोषिक्कोड के राजा इसी नाम से जाने जाते थे) के दाहिने कंधे में कोई दर्द शुरू हुआ। वह पल-पल बढ़ता गया और उसे सहना राजा के लिए असंभव हो गया। तब वैद्य, तांत्रिक, ज्योतिष आदि सब वहां पहुंचकर अपनी-अपनी विद्या का प्रदर्शन करने लगे। संख्यातीत वैद्यों, तांत्रिकों और ज्योतिषों के प्रयोगों के बावजूद राजा को कोई राहत नहीं मिल सकी। इतना ही नहीं, दर्द दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया। अंत में वैद्य-हकीमों, तांत्रिक-ओझाओं ने यही कहा कि यह मर्ज लाइलाज है और वे सब पीछे हट गए। सामूतिरि भी लाचार हो गए। तब एक अत्यंत बुद्धिशाली, सूक्ष्मग्राही और विचारवान विद्वान सामूतिरि के पास आया और उसने उनकी बीमारी का पूरा विवरण पूछकर जानने के बाद कहा, "यह वेदना मैं दूर कर दूंगा। इसके लिए किसी खास इलाज की भी जरूरत नहीं है। एक तौलिया गीला करके उसे निचोड़कर उस स्थान पर रखें जहां वेदना है। वेदना तुरंत मिट जाएगी।" यह सुनकर सामूतिरिप्पाड को नहीं लगा कि यह कोई कारगर नुस्खा हो सकता है। वहां मौजूद सभी लोगों का भी यही सोचना था। लेकिन दुस्सह वेदना के कारण सामूतिरिप्पाड ने सोचा कि इसे भी आजमाकर देख लेता हूं, इसमें नुकसान ही क्या है? और उन्होंने वैसा ही किया। एक तौलिए को पानी में भिगोकर उसे निचोड़कर दाएं कंधे पर रखा। तब उस विद्वान के कहे अनुसार वेदना तुरंत दूर हो गई और सामूतिरि बिलकुल स्वस्थ हो गए। सामूतिरि ने उस विद्वान को हीरे का हार आदि अनेक कीमती उपहार देकर प्रसन्नतापूर्वक विदा किया। कुछ समय बाद इसका समाचार दीवान जी को मिला। अत्यंत स्वामिभक्त एवं बुद्धिमान उस दीवान को यह सब जानकर बहुत अधिक दुख हुआ। उन्होंने तुरंत कहा, "हे भगवान! यह तो अनर्थ हो गया!" और वे उसी समय वहां से निकल पड़े। किसी को खोजते-खोजते, वे राज्य भर घूमते रहे और अंत में शाम होने तक कोषिक्कोड की मंडी के बीच में पहुंच गए। वहां उन्होंने एक सर्वांगसुंदरी स्त्री को खड़े देखा। वे तुरंत उसके पास गए और विनीत स्वर में उससे बोले, "मुझे आपसे एक अत्यंत आवश्यक और रहस्यपूर्ण बात कहनी है।" तब स्त्री ने कहा, "जो भी हो कह दीजिए।" तब दीवानजी घबराहट जतलाते हुए बोले, "मैं भी कैसा भुलक्कड़ हूं। मैं अपनी मुहर कचहरी में भूल आया हूं। उसे लेकर मैं अभी आया। तब तक आप कृपा करके यहीं खड़ी रहें। मुझे आपसे एक अति महत्वपूर्ण बात कहनी है। मुहर लेकर आने पर कहूंगा। मेरा आग्रह है कि उसे सुनने के बाद ही आप यहां से जाएं।" स्त्री ने कहा, "आपके लौटने तक मैं यहीं रुकती हूं।" दीवानजी ने कहा, "इस प्रकार सहज ही कह देना पर्याप्त नहीं। कृपा करके शपथ लेकर कहें कि मेरे लौटने तक आप यहीं खड़ी रहेंगी।" इस प्रकार बाध्य किए जाने पर उस स्त्री ने शपथ ली और उसके बाद दीवानजी वहां से चले गए।

तुरंत दीवानजी अत्यंत परेशान होकर सामूतिरिप्पाड के पास पहुंचे और उनसे बोले, "अब आपका दर्द कैसा है?" सामूतिरी ने कहा, "अब मैं बिलकुल ठीक हूं। इलाज का सारा विवरण तो आपने सुना ही होगा। इलाज बताने वाला एक योग्य व्यक्ति ही है। इसमें संदेह नहीं।" तब दीवानजी ने कहा, "योग्य तो वह है ही। उसने सब अनर्थ कर डाला। आपने भी बिना सोचे उसके कहे अनुसार करके बड़ी मुसीबत मोल ले ली है। अब उसके बारे में बोलकर और चिंतित होकर कोई फायदा नहीं। यदि आपको अपनी वेदना का कारण ज्ञात होता, तो आप उसे दूर करने की चेष्टा कभी नहीं करते। इस राज्य में ऐश्वर्य दिन दूना रात चौगुना इसीलिए बढ़ रहा है कि आपमें लक्ष्मीदेवी का वास है। महालक्ष्मी आपके दाहिने कंधे पर नृत्य किया करती थीं। इसीलिए आपको वहां दर्द होता था। गीला कपड़ा दाहिने कंधे पर लगाने से बढ़कर अमंगलकारी बात और कोई नहीं है। ऐसा करने पर करने वाले की देह से लक्ष्मी भगवती तुरंत चली जाती हैं और उनका स्थान ज्येष्ठ भगवती ले लेती हैं। यह तथ्य उस विद्वान को पता था। इसीलिए उसने ऐसा उपाय बताया। यह सब अब कह कर क्या फायदा? लक्ष्मीदेवी को इस राज्य में ही रोक रखने के लिए मैंने एक उपाय किया है। अब मेरा जीना संभव नहीं है।" यों कहकर दीवानजी सामूतिरिप्पाड के सामने से चले गए और घर जाकर आत्महत्या कर ली। दीवानजी ने उस स्त्री से उनके आने तक बाजार में ही खड़े रहने की शपथ ली थी, इसलिए उसके लिए वहां से जाना संभव नहीं था। वह स्त्री साक्षात लक्ष्मीदेवी ही थीं। अब भी वे उसी बाजार में खड़ी हैं, ऐसा ही लोग मानते हैं। चूंकि कोषिक्कोड के बाजार में ऐश्वर्य की आज भी निरंतर वृद्धि हो रही है, और शाम के वक्त वहां एक दैवीय आभास मिलता है, इसलिए ऐसा ही लगता है कि इस किंवदंती में कुछ सत्यांश है।

दीवानजी के समझाने पर सामूतिरि को बात की गूढ़ता स्पष्ट हुई और वे अत्यंत खिन्न हुए और उन्हें गहरा पश्चात्ताप हुआ, पर "अतीतकार्यानुशयने किम्स्यादशेषविद्वज्जनहपबिकेन्?" इस घटना के घटित होने के कुछ ही दिनों में सामूतिरिप्पाड के हाथों से राजलक्ष्मी (राजपाट) छिन गई और दूसरे के हाथ चली गई।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

16 जून, 2009

19. वयक्करै अच्छन मूस - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

४.

गठिया और पेट की बीमारी से पीड़ित एक व्यक्ति अनेक चिकित्सकों से इलाज कराने के बावजूद ठीक नहीं हो पाया और अंत में वह वयक्करै अच्छन मूस के पास आया और अपनी सारी तकलीफ उन्हें बताई। यह रोगी शायद चेंगनूर का निवासी था। रोग का पूरा विवरण सुनकर मूस ने पूछा, "आपके इलाके में मुदिरै (एक प्रकार की दाल) तो बहुत होती है न।" रोगी ने कहा, "हां, वह तो बहुत होती है। इस दास के खेतों में ही सालाना दो सौ बोरी होती है।" मूस, "तब उसे भूनकर उसका छिलका निकालकर दाल बना लें और उसे उबालकर कंजी (चावल की पतली लपसी) के साथ रोज खाएं।" यह सुनकर रोगी को बिलकुल संतोष नहीं हुआ। लेकिन मूस के सामने कुछ कहने की उसको हिम्मत नहीं हुई। इसलिए वह चुपचाप घर लौट आया। घर पहुंचने पर उसकी पत्नी ने चिकित्सा के संबंध में पूछा। तब रोगी ने कहा, "ऐसा लगता है कि मेरी बीमारी अब ठीक नहीं होगी। घोड़े की तरह रोज मुदिरै खाने की उन्होंने सलाह दी है। ठीक हो सकनेवाला रोग होता तो वे ऐसी बेतुकी बात क्यों कहते? जब मैं उनके पास गया था, तब वहां बहुत-से रोगी मौजूद थे। उन सबको उन्होंने काढ़ा, गोली, दवा आदि लिखकर दिए, केवल मुझे उन्होंने इस प्रकार का साधारण इलाज बताया। मेरी बीमारी शायद लाइलाज है, इसीलिए उन्होंने ऐसा कहा होगा।" पत्नी ने कहा, "यों सोचना ठीक नहीं। जो भी हो, उनके कहे मुताबिक कुछ दिन करके देखने में हर्ज ही क्या है?" रोगी भी सहमत हो गया। अच्छन मूस के कहे अनुसार दस-बारह दिन करने पर उसे लगने लगा कि वह ठीक हो रहा है। उसने यह चिकित्सा चालीस दिन जारी रखी। तब वह बिलकुल ठीक हो गया।

५.

एक बार एक स्त्री ने ऊपर के टांड़ पर रखी किसी चीज को उठाने के लिए अपना दाहिना हाथ ऊपर किया। वह हाथ वैसा ही अकड़ गया और बहुत कोशिश के बावजूद उसे नीचे नहीं ला सकी। बहुत से वैद्यों ने उसका इलाज किया। नस व मांसपेशी के विशेषज्ञों ने अपनी विद्या आजमाई, मालिश करने वालों ने मालिश करके देखी, हड्डी जमाने वालों ने भी प्रयत्न करके देखा, पर कुछ फायदा नहीं हुआ। कुछ ने तो यह भी कह दिया कि वह देवाराधना की एक खास मुद्रा है। इस प्रकार बहुत सी चिकित्साओं और झाड़-फूक आदि के बाद भी स्त्री का हाथ नीचे नहीं आ सका। अंत में उस स्त्री को वयक्करै अच्छन मूस के पास लाकर सारी बात उन्हें बताई गई। थोड़ी देर मन ही मन विचार करने के बाद मूस ने कहा कि उस स्त्री को एक ऊंचे पीढ़े पर खड़ा कर दो। स्त्री के साथ आए लोगों ने वैसा ही किया। इसके बाद मूस ने स्त्री के स्वस्थ बाएं हाथ को छत पर लगे एक छल्ले के साथ मजबूती से बांध देने को कहा। वह भी किया गया। तब तक वहां बहुत-से लोग एकत्र हो गए थे। स्त्री का पति, भाई आदि रिश्तेदार भी वहां थे। जब यह सब इंतजाम पूरा हो गया, तब मूस ने स्त्री के पति को बुलाकर उससे कहा, "स्त्री की धोती उतारकर फेंक दीजिए।" यह सुनकर वह आदमी भयंकर दुविधा में पड़ा गया। इतने सारे लोगों के सामने मूस के आदेश का पालन करना तो कठिन था, पर मूस से यह कहना उससे भी अधिक कठिन था कि मैं आपके कहे अनुसार करने में असमर्थ हूं। सो वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चुपचाप खड़ा रहा। मूस का आदेश सुनकर स्त्री की जो दशा हुई उसका वर्णन आवश्यक ही नहीं है। स्त्री के पति को तैयार न देखकर मूस ने कहा, "आपको हिचक हो रही हो तो मैं ही यह काम कर देता हूं।" यह कहकर वे स्त्री के पास गए और उसकी धोती का सिरा पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया। मूस का हाथ धोती की ओर बढ़ना और स्त्री के ऊपर उठे हाथ का नीचे आना एक साथ हुआ। जब स्त्री को लगा कि उसके वस्त्र अभी उतारे जानेवाले हैं, तो वह चिल्लाई, "हे भगवान! ऐसा न करें!" और तुरंत अपने हाथ से धोती को मजबूती से पकड़ लिया। अच्छन मूस अपनी जगह आकर बैठ गए। एक बार नीचे आ जाने के बाद स्त्री का हाथ पहले जैसे ही काम भी करने लगा। यह देखकर सब लोग आश्चर्यचकित रह गए। मूस ने स्त्री का बाया हाथ खोल देने और उसे ले जाने की अनुमति दे दी, और उसके रिश्तेदारों ने ऐसा ही किया।

६.

एक बार खूब मुंह फाड़कर जंभाई लेने के बाद एक व्यक्ति को अपना मुंह बंद करना असंभव हो गया। हर समय उसका मुंह खुला का खुला ही रहता था। उसने पत्थर गरम करके सिंकवाया, तेल की मालिश करवाई तथा अनेक प्रकार से इलाज करवाकर देखा, पर मुंह बंद न हो सका। अंत में उसे वयक्करै अच्छन मूस के पास जाना पड़ा। सब विवरण सुनकर मूस ने अपने दाएं हाथ से रोगी की टोढ़ी पर और बाएं हाथ से उसके गाल पर एक साथ प्रहार किया। उसी के साथ रोगी का मुंह भी बंद हो गया और उसकी तकलीफ भी दूर हो गई।

अच्छन मूस के दिव्यतापूर्ण एवं विस्मयकारी कार्यों की इस प्रकार की अनंत कथाएं हैं। यह सब उनके गुरुत्व एवं हस्तपुण्य का ही प्रताप है, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है। गुरुत्वशाली व्यक्ति को तत्कालोचित युक्ति अपने-आप सूझ जाती है। हस्तपुण्य वाला व्यक्ति कुछ भी करे, वह वांछित फल प्रदान करता है।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

19. वयक्करै अच्छन मूस - 1

14 जून, 2009

19. वयक्करै अच्छन मूस - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

वैद्यों की प्रमुख अर्हताओं में मुख्य हैं गुरुत्व, हस्तपुण्य, प्रसिद्धि तथा सर्वसम्मति। शास्त्रपारंगत, बुद्धिमान एवं कौशलपूर्ण होने के बावजूद यदि वैद्य में गुरुत्व एवं हस्तपुण्य न हों, तो उसकी चिकित्सा सफल नहीं होगी, यह तय है। यदि वैद्य में शास्त्रज्ञान, कौशल, एवं बुद्धि न होकर केवल गुरुत्व एवं हस्तपुण्य ही हों, तो भी काम नहीं चलेगा। लेकिन गुरुत्व एवं हस्तपुण्य से संपन्न वैद्य का शास्त्रज्ञान आदि थोड़ा कम हो तो उससे उसकी सफलता में खास फर्क नहीं होगा। गुरुत्व और हस्तपुण्य संपन्न वैद्य में यदि शास्त्रज्ञान, बुद्धिमत्ता और कौशल भी हों, तो कहना ही क्या। अष्टवैद्यों में अव्वल समझे जानेवाले पुराने समय के प्रसिद्ध वयक्करै मूसों में ऊपर बताए गए सभी गुण यथेष्ट मात्रा में थे। इसके दृष्टांतस्वरूप स्वर्गीय आर्यनारायण मूस और उनके पिता अच्छन मूस के कुछ अद्भुत पराक्रमों के बारे में नीचे दो-चार बातें कहता हूं। केवल सुनी हुई बातों पर आधारित इन कथाओं की विश्वसनीयता-अविश्वसनीयता को लेकर अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं। इतना भर ध्यान में रखें कि महान व्यक्तियों के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं होता।


1.

एक व्यक्ति का मल-मूत्र-त्याग बंद हो गया और पेट फूल जाने से उसे बेहद बेचैनी होने लगी। पीड़ा के कारण उससे न बैठा जाता था, न लेटा, न खाया जाता था, न सोया। कुछ भी करना असंभव होने से वह बेचारा पीड़ा से कराहते हुए जमीन पर लोटने लगा। बहुत-से वैद्यों का परामर्श लेने और उनके अनुसार दवादारू करने से भी कोई फायदा नहीं हुआ। सभी वैद्यों और आस-पड़ोस के लोगों ने यही सोचा कि वह बच नहीं पाएगा। लेकिन एक बार वयक्करै मूस को भी दिखा दिया जाए यह सोचकर उस व्यक्ति के हितैषी वयक्करै पहुंचे। उस समय अच्छन मूस सब्जी काट रहे अपने नौकरों के पास खड़े होकर उनसे कुछ कह रहे थे। जब ये लोग उनके पास आए तो अच्छन मूस ने उनसे रोगी की तकलीफों का विवरण ध्यान से सुना, फिर नीचे पड़ा कद्दू का एक डंठल उठाकर उन लोगों को देकर बोले, "इसे ले जाकर उबले हुए पानी में घोलकर रोगी को पिलाएं।" उन लोगों ने उस डंठल को भक्तिपूर्वक मूस से लिया और घर लौट आए। मूस के कहे अनुसार उस डंठल के एक टुकड़े को पीसकर गरम पानी में घोलकर रोगी को पिलाया गया। उसे पीने के कुछ समय बाद ही रोगी के लिए मूत्र और मल त्याग करना संभव हो गया और उसके सभी दर्द दूर हो गए और उसे आराम मिलने लगा। लेकिन मल-मूत्र का निकलना एक बार जो शुरू हुआ तो बंद ही नहीं होने में आया। शाम होते-होते मूत्र का बार-बार निकलना तो किसी प्रकार बंद हुआ, लेकिन मल का निकलना जारी रहा। लोगों ने यही सोचा कि वह भी कुछ समय बाद रुक जाएगा। वह दिन यों बीता। लेकिन मल निकलने की समस्या कायम रही, बल्कि अधिक गंभीर हो गई। तब तक रोगी भी अत्यंत क्षीण एवं विकल हो गया था। रोगी के हितैषी एक बार फिर वयक्करै की ओर भागे और अच्छन मूस के पास जाकर उन्हें सारा समाचार सुनाया। तब अच्छन मूस ने उनसे पूछा, "मैंने जो दवा दी थी, वह सब रोगी को खिलाया कि नहीं?" उन लोगों ने कहा, "नहीं, उसका एक टुकड़ा ही रोगी को दिया था। बाकी अब भी शेष है।" तब मूस ने कहा, "उसे भी रोगी को खिला दीजिए। सब ठीक हो जाएगा।" तुरंत वे सब घर लौट आए और डंठल के शेष भाग को भी पीसकर गरम पानी में घोलकर रोगी को पिला दिया। उसे पीते ही रोगी स्वस्थ हो गया और उसका बार-बार मल निकलना बंद हो गया और कुछ ही समय में रोगी अपना खोया हुआ स्वास्थ्य पुनः प्राप्त करने में सफल हो गया।


2.

एक बार अत्यधिक मुटापे के कारण बैठने, चलने, खड़े होने और लेटने में असमर्थ एक माप्पिलै (केरलवासी मुसलमान) अच्छन मूस के पास आया। उसका शरीर असामान्य रूप से फूला हुआ था, अन्यथा उसे कोई रोग अथवा तकलीफ नहीं थी। वह असामान्य रूप से मोटा तो था ही, दिन-पर-दिन और अधिक मोटा होता जा रहा था। उसने कई हकीमों से इलाज करवाया लेकिन उसका वजन बढ़ता ही रहा। कहा भी गया है, "कार्श्यमेव वरं स्थौल्यान्न हि स्थूलस्य भेषजम्" अर्थात मुटापे से तो दुबलापन ही अच्छा है; मुटापे का कोई दवा नहीं है। इसलिए उन सबके इलाज का फल न निकलना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। अंत में वह वयक्करै आया। रोगी की तकलीफों को सुनकर अच्छन मूस ने उसे तीन-चार बार सिर से पांव तक देखा और कहा, "तुझे इलाज-विलाज की जरूरत नहीं है, तीस दिनों में वैसे ही तेरी मृत्यु होनेवाली है। मौत के लक्षण तेरे सारे शरीर में स्पष्ट दिख रहे हैं। ईश्वरकृपा से यदि तीस दिनों बाद तू जीवित रह जाए तो मेरे पास आना। इलाज के बारे में उस समय सोचेंगे। अभी कुछ करने से लाभ नहीं।" यह सुनकर ही माप्पिलै को असह्य भय एवं चिंता हुई और वह मूर्च्छित होकर वहीं गिर गया। वयक्करै अच्छन मूस कुछ कह दे तो उसमें तिल भर भी अंतर नहीं होता, यह सब लोगों का अनुभव था। सो माप्पिलै ने सोचा, उनके कहने का अर्थ यही है कि मैं महीने भर में मर जाऊंगा। मृत्यु भय किसे नहीं होता?

साढ़े तीन घंटे बाद उस माप्पिलै को होश आया। तुरंत आठ-दस साथियों ने उसे किसी प्रकार उठाकर एक नाव में चढ़ाकर घर पहुंचाया। घर पहुंचकर माप्पिलै की भोजन आदि में तनिक भी रुचि नहीं रह गई। नींद भी आनी बंद हो गई। किसी भी कार्य में उसका मन नहीं लगता था। पत्नी और पुत्रों के बहुत कहने पर वह थोड़ा कुछ खा लेता, अन्यथा निराहार ही रहता। समय बीतने के साथ उसका शरीर भी उतरने लगा। क्यों कहानी व्यर्थ बढ़ाऊं? हाथी जितनी बड़ी देह वाला वह व्यक्ति महीने-भर में कृशकाय हो गया। तीस दिन बीत जाने पर उसे यह आशा भी होने लगी कि शायद अब मैं नहीं मरूंगा। अत्यधिक कमजोरी के बावजूद उसे अब चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में कोई तकलीफ नहीं होती थी। फिर भी उसने सोचा, मूस ने यही कहा था कि एक महीने के बाद भी यदि न मरो तो मेरे पास दुबारा आना, तब इलाज की बात करेंगे। इसलिए उनसे जरा मिल आना चाहिए। तदनुसार वह सपरिवार एक बार फिर अच्छन मूस के पास गया और सारा समाचार उन्हें सुनाया। तब अच्छन मूस ने कहा, "अब तू नहीं मरेगा। मैंने उस दिन जो कुछ कहा था, वह सब यह जानते हुए ही कहा था कि तू मरने वाला नहीं है। मुटापे के शिकार लोगों का वैसे कोई इलाज नहीं है। केवल मानसिक चिकित्सा से उन्हें थोड़ा-बहुत आराम मिलता है। मृत्यु से बढ़कर कोई चिंता का विषय नहीं है। इसीलिए मैंने तुझे मृत्यु का भय दिखाया। उसे एक चिकित्सा ही समझना। यह चिकित्सा सफल भी हुई। अब शरीर की चपलता सब लौट आई कि नहीं? चूंकि तुझे और कोई रोग नहीं है, इसलिए अब किसी दवा आदि की भी तुझे जरूरत नहीं है। केवल इसका ध्यान रखना कि दुबारा वजन न बढ़े। इसके लिए नित्य इतना व्यायाम करना कि पसीना निकलने लगे। बाल-बच्चों और धन-दौलत सबका भरपूर होना, मानसिक क्लेश का अभाव, भरपेट स्वादिष्ट भोजन की नियमित प्राप्ति और व्यायाम की कमी -- ये ही सब मुटापे के मुख्य कारण हैं। यथाशक्ति व्यायाम करना मनुष्य के लिए अत्यावश्यक है। इसलिए अब से नियमित रूप से व्यायाम किया कर।" यह सुनकर वह माप्पिलै संतुष्ट होकर वहां से चला गया और नित्य व्यायाम करने लगा और सुखपूर्वक रहने लगा।


3.

एक बार एक स्त्री को प्रसव-वेदना आरंभ हुई, लेकिन तीन-चार दिनों तक बच्चा नहीं हुआ। पांचवें दिन बच्चे के एक हाथ का सिरा मात्र बाहर दिखाई दिया। सामान्यतः बच्चे का सिर पहले बाहर आता है। इसके विपरीत बच्चे का हाथ पहले दिखाई देने से वहां मौजूद धाई आदि स्त्रियां अत्यंत विस्मित हुईं। उन दिनों आज की तरह डाक्टर-नर्स आदि तो होते नहीं थे। इसलिए ऐसी स्थतियों में लोगों को वैद्य-हकीमों पर ही भरोसा करना पड़ता था। इसलिए स्त्री के रिश्तेदार तुरंत वयक्करै पहुंचे और अच्छन मूस से सारी बातें कहीं। कुछ देर सोचकर मूस ने कहा, "लोहे की एक कील अथवा चाकू को खूब गरम करके उसे बच्चे के हाथ पर रखें।" स्त्री के रिश्तेदारों को इस प्रकार करना जरा भी उचित नहीं लगा, लेकिन यह जानते हुए कि अच्छन मूस के कहे अनुसार करने से कभी कोई अहित नहीं हो सकता, उन्होंने ऐसा ही किया। गरम लोहा छुआने पर बच्चे ने तुरंत अपना हाथ अंदर खींच लिया और थोड़े ही समय में स्त्री ने प्रसव कर दिया। बच्चे का हाथ थोड़ा जल गया, लेकिन यह समाचार अच्छन मूस को बताने पर उन्होंने उसके लिए कुछ उपचार बताया और उससे बच्चा भी स्वस्थ हो गया।

(...जारी)

11 जून, 2009

18. कुंजनपोट्टी और मट्टप्पल्लि नंबूतिरिप्पाड

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

चात्तन (छोटे शैतान) की सेवा करके उसे प्रत्यक्ष करनेवाले प्रसिद्ध कुंजनपोट्टी और श्रीपोरक्कला जाकर भद्रकाली की सेवा करके उसे प्रत्यक्ष करनेवाले विश्वविख्यात मट्टप्पल्लि नंबूतिरिप्पाड समकालीन थे। मट्टप्पल्लि नंबूतिरिप्पाड के घराने का नाम पहले केवल "मट्टप्पल्लि" था। भद्रकाली की सेवा करके उसे प्रत्यक्ष करा लेने के बाद से ही उसका नाम "भद्रकाली मट्टप्पल्लि" हो गया। तब से सब लोग इस घराने को "भद्रकाली मट्टप्पल्लि" ही कहने लगे और इस घराने में पैदा हुए नंबूरियों का नामकरण आज भी भद्रकाली मट्टप्पल्लि नंबूतिरि (प्पाड) ही किया जाता है।

प्रथम भद्रकाली मट्टप्पल्लि नंबूतिरीप्पाड एक बार नाव से वेंबनाड के कायल (समुद्र का अंदरूनी भाग) के जरिए तिरुवनंतपुरम की ओर जा रहा था। वैक्कम के पश्चिमी छोर पर पहुंचने पर उसे देवालय से नगाड़े की आवाज सुनाई दी। चूंकि नगाड़ा बजाने की रीति असाधारण रूप से शुद्ध थी, इसलिए नंबूरी ने सोचा, "इतनी शास्त्रीय रीति से नगाड़ा कौन बजा रहा है, यह जानना चाहिए। ऐसा नहीं लगता कि बजाने वाला कोई मनुष्य है। जरूर वह कोई देवलोकवासी होगा। जो भी हो, नाव यहीं रोक देता हूं।" और नाव को वहीं रुकवाकर तट पर उतरकर स्नानादि करके वह देवालय पहुंचा। वहां तब उत्सव का समय था। उत्सव की बलि के नगाड़े की आवाज ही नंबूरी ने सुनी थी। नगाड़ा एक स्त्री बजा रही थी।

वैक्कम देवालय के कर्मचारियों और अधिकारियों में से एक मारार के घर एक समय पुरुषों का अभाव हो गया। एक स्त्री और दो-तीन लड़कियां ही वहां बची थीं। वैक्कम देवालय से नियमित रूप से प्राप्त होनेवाले अन्न ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन था। इसके बदले उस घर के लोग नगाड़ा बजाना, गाना गाना आदि कार्य मंदिर में किया करते थे। यह स्त्री इन सब कार्यों को अन्य मारारों को समझा-बुझाकर उनसे करवा लेती थी और मंदिर से प्राप्त अन्न पर गुजारा करती थी।

ऐसे में एक दिन उन सब मारारों ने सोचा कि उस स्त्री का घराना मंदिर में जो सेवा-कार्य करता है, उन्हें करने में हम उसकी मदद करना बंद कर दें, तो उसके ये सब अधिकार छिन जाएंगे और ये अधिकार तथा इनसे जुड़ी सुविधाएं हमें ही प्राप्त हो जाएंगी। तब उन सबने मिलकर उस स्त्री को बुलाकर कहा, "आपकी ओर से मंदिर में जो-जो काम होने चाहिए, उन्हें करने में अब हमारी रुचि नहीं है। कल उत्सव-बलि का दिन है। उसमें नगाड़ा बजाने की मुख्य जिम्मेदारी आपके घराने के लोगों की है। इसलिए किसी और को बुलाकर इस रस्म को विधिवत पूरा कराने की व्यवस्था कर लें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगी तो यह रस्म पूरी नहीं होगी। हमने आपको पहले ही सूचित कर दिया है।" उन दिनों वैक्कम का पेरुंतृक्कोविल देवालय कुछ नंबूतिरियों के अधिकार में था और वहां के राज्याधिपति वडक्कुमकूर राजा के आधिपत्य में आता था। मारारों ने जाकर इन सब से भी कह दिया कि उस स्त्री द्वारा की जाने वाली रस्मों को पूरा करने में हम मदद नहीं करेंगे।

उस स्त्री के बड़ी दीनता से प्रार्थना करने पर भी उन दुष्ट एवं दुराग्रही मारारों का दिल नहीं पसीजा और उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। तब तक सूर्यास्त का समय लगभग हो गया और अगली सुबह तक दूसरी जगह से किसी को बुलाकर लाना संभव नहीं था। नगाड़ा बजाने में निपुण मारार वैसे भी आस-पास कहीं नहीं थे। कुल मिलाकर वह स्त्री चिंता एवं विषाद से ग्रस्त होकर निस्साहय हो गई। रात का भोजन किए बिना ही वह लेट गई और सोने से पहले उसने कहा, "मेरे पेरुंतृक्कोविलनाथ! अन्नदाता प्रभु! मेरी जीविका बचा लेना। आप ही इस विषम स्थिति से मुझे उभार सकते हैं। और कोई मार्ग मुझे नहीं सूझ रहा।" और रोते-रोते किसी प्रकार उसे नींद आ गई।

कुछ देर बाद पेरुंतृक्कोविलनाथ ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, "तुम बिलकुल चिंता मत करो। इस समय तुम गर्भवती हो। तुम्हारे गर्भ में एक पुत्र विद्यमान है। इसलिए कल उत्सव बलि के समय तुम्हीं नगाड़ा बजाना। सुबह उठकर स्नानादि करके मंदिर पहुंच जाना। तब नगाड़ा बजाने की रीति सब मैं समझा दूंगा।" राजा तथा नंबूरियों को भी स्वप्न में पेरुंतृक्कोविलनाथ ने आदेश दिया कि उत्सव-बलि के समय उसी स्त्री से नगाड़ा बजवाया जाए। इसलिए जब वह स्त्री स्नानादि करके सुबह मंदिर गई तो वहां मौजूद राजा व नंबूरी अधिकारियों ने उसी से नगाड़ा बजाने को कहा और उसने नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया। उस दिन उत्सव के दौरान एक स्त्री द्वारा नगाड़ा बजाए जाने के पीछे यही कारण था।

स्नान करके मंदिर पहुंचने से लेकर उत्सव-बलि समाप्त होने तक उस स्त्री को अपना बोध नहीं रहा। पेरुंतृक्कोविलनाथ ने जैसे-जैसे सुझाया वैसे-वैसे वह करती गई। भगवान के निर्देशानुसार बजाने के कारण नगाड़ा बजाना एकदम शास्त्रानुकूल एवं असाधारण रूप से उत्तम रहा। चूंकि नगाड़ा इतने श्रेष्ठ ढंग से बजाया गया था, इसलिए बलि की सामग्री को स्वीकार करने के लिए तृक्कोविलनाथ के भूतगण सब प्रत्यक्ष होकर मुंह बाए पुजारी की ओर दौड़ आए। उन दिनों वैक्कम का पुजारी साधारण शिक्षा, तपोबल एवं बुद्धि का एक नंबूरी था और नगाड़े की दिव्य गूंज के अनुकूल बलि देने की सामर्थ्य उसमें नहीं थी। वह बस रस्मों की खानापूरी करना भर जानता था। इसलिए जब उसने विकराल स्वरूप वाले भूतगणों को प्रत्यक्ष होकर अपनी ओर बढ़ते देखा तो वह भय से कांपने लगा और उसने सोचा, "बलि देने में मुझसे कोई गलती हो गई तो ये भूतगण मुझे ही खा जाएंगे।" उस समय भद्रकाली मट्टप्पल्लि नंबूतिरिप्पाड मंडप में बैठा-बैठा जप कर रहा था। पुजारी ने तुरंत उससे कहा,"नंबूरिप्पाड मेरी रक्षा करें। नहीं तो ये सब मुझे पकड़कर खा जाएंगे। इस मंदिर की पुरोहिताई में से आधा हिस्सा इसी समय मैं आपको सौंपता हूं।" तब मट्टप्पल्लि नंबूरी ने उससे बलि का पात्र व फूलदान लेकर विधिवत सभी भूतों को बलि का अन्न दिया। सभी भूत अत्यंत तृप्त एवं संतुष्ट होकर वहां से चले गए। भद्रकाली को प्रत्यक्ष करनेवाले, सकलशास्त्रपारंगत, एक अच्छे तांत्रिक तथा मंदिर की रस्मों के पारखी मट्टप्पल्लि नंबूरिप्पाड को भूतों से डर न लगना स्वाभाविक ही था। वह उन्हें यथोचित रीति से तुष्ट कर सका, इसमें भी आश्चर्य की कोई बात नहीं। भद्रकाली मट्टप्पल्लि नंबूरिप्पाड को वैक्कम देवालय की पुरोहिताई इस प्रकार से प्राप्त हुई। आज भी वैक्कम की पुरोहिताई में मेक्काट्टु नंबूरी और मट्टप्पल्लि नंबूरी का बराबर का हिस्सा रहता है।

वैक्कम देवालय में पुरोहित का कार्यभार संभालने के बाद प्रथम भद्रकाली मट्टप्पल्लि नंबूरी ने वहीं रहना आरंभ किया। तब एक दिन कुंजमणपोट्टि कहीं से लौटते समय वैक्कम आया। भोजन आदि के बाद नंबूरी और पोट्टी परस्पर वार्तालप करके मन बहलाने लगे। तब प्रसंगवश पोट्टी ने कहा, "यदि किसी की सेवा करनी ही हो, तो वह चात्तन की ही करनी चाहिए। वह सब कामों में सहायता कर देता है।" तब नंबूरी ने कहा, "यह ठीक नहीं कहा आपने। सेवा करनी ही हो तो भद्रकाली की करनी चाहिए। भद्रकाली की सेवा करने से सिद्ध न होनेवाला कार्य इस दुनिया में नहीं है।" इस प्रकार वे दोनों बहस करने लगे। जब बहस गरम हो उठी तब पोट्टी ने कहा, "ठीक है, इसकी अभी परीक्षा करके देख लेते हैं। आइए, हम मंदिर के भीतर जाते हैं।" नंबूरी ने कहा, "हां-हां, चले चलिए।" दोनों जाकर मंडप में बैठ गए। तुरंत पोट्टी ने कहा, "कोई है? जरा पान तो ले आओ।" तब एक चात्तन एक नौकर के भेष में आकर पोट्टी को पान दे गया। तुरंत नंबूरी ने कहा, "काली कहां है? जरा पान तो लाना।" तब साक्षात भद्रकाली एक अति सुंदर स्त्री के रूप में पान लेकर आई। पोट्टी ने फिर कहा, "कोई है? जरा पीकदान तो लाना।" तुरंत एक आदमी, जिसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, एक पीकदान लेकर हाजिर हुआ। पोट्टी ने उस पर पान की पीक थूक दी और वह आदमी उसे लिए हवा में विलीन हो गया। तुरंत नंबूरी ने कहा, "पीकदान कहां है? उसे लेकर आइए।" तुरंत एक स्त्री, जिसके भी पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, पीकदान लेकर आई। नंबूरी ने उस में थूक दिया और स्त्री उसे लेकर अंतर्धान हो गई।

यह देखकर कुंजमणपोट्टी ने नंबूरी से कहा, "आपकी ही जीत हुई। मैं हार मान लेता हूं। मैंने नहीं सोचा था कि भद्रकाली इस हद तक सेवा करेगी।" और वह उठकर चला गया। तुरंत भद्रकाली नंबूरी के सामने एक बार फिर प्रत्यक्ष हुई और बोली, "इस तरह के कामों में मुझे लगाकर आपने ठीक नहीं किया। ये सब काम करना मेरे लिए मुश्किल है। इसलिए आप अब मुझे देख नहीं सकेंगे। लेकिन आपकी जो वाजिब मांगें होंगी, वे सब मैं पूरी करूंगी। आखिर आपने इतने दिनों मेरी सेवा जो की है।" यों कहकर भद्रकाली नंबूरी की आंखों से ओझल हो गई। उस दिन से भद्रकाली नंबूरी को अप्रत्यक्ष हो गई।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

07 जून, 2009

17. वेणमणि नंबूरिप्पाड - 3

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

तब तक नंबूतिरी के बेटे का उपनयन करने का वक्त आ गया। उपनयन का मुहूर्त निश्चित किया गया और उसके अनुष्ठानों के लिए आवश्यक व्यक्तियों को निमंत्रित किया गया, जरूरी सामग्री मंगाई गई और सभी तैयारियां पूरी कर ली गईं। उपनयन की पिछली रात यक्षी नियत समय पर नंबूरी के पास आई। तब नंबूरी ने प्रसंगवश उससे कहा, "कल सुबह कुंभ राशि के मुहूर्त पर मुन्ने का उपनयन करने का निश्चय किया है।" यह सुनकर यक्षी ने कहा, "यदि ऐसी बात है तो मेरी एक इच्छा है। उसे आप कृपा करके पूरा करें। अग्नि को साक्षी रखकर आपने जिस स्त्री से विवाह किया है, वह आपकी प्रधान पत्नी अवश्य है, फिर भी सही अर्थ में मैं ही आपकी पहली पत्नी हूं। इस हिसाब से आपकी उस पत्नी से हुए पुत्र की मैं बड़ी मां हूं। इसलिए कल उपनयन के समय जब मुन्ना भिक्षा मांगेगा, तब मैं ही उसे पहली भिक्षा देना चाहती हूं। आप इसकी अनुमति दें और इसे संभव बना दें। ठीक समय पर मैं एक गृहिणी के वेष में आ जाऊंगी।" नंबूरी ने तुरंत कहा, "इसमें क्या आपत्ति हो सकती है! मुझे भी इससे बहुत संतोष होगा। सही समय पर तुम आ जाना। मैं सब प्रबंध कर दूंगा।"

उपनयन संस्कार के लिए आवश्यक पंडित, पुरोहित, ब्रह्मचारी, पाचक आदि सभी तरह के ब्राह्मण तथा उनके पत्नी-बच्चे सब एक दिन पहले ही नंबूरी के घर पहुंच गए। सुबह होने पर वे सब स्नानादि करके उपस्थित हुए। तुरंत अनुष्ठान आरंभ हो गया। भिक्षा देने का समय आया तो छतरी तानकर और धोती-दुशाला ओढ़कर नंबूरी गृहिणी का वेष धरकर एक पात्र में चावल के दाने लिए यक्षी भी उस जगह आ पहुंची। बिना किसी संकोच के यक्षी अन्य गृहिणियां जहां खड़ी थीं, वहां जाकर खड़ी हो गई। नंबूरी ने उसे देखते ही पहचान लिया। लेकिन अन्य ब्राह्मण- ब्राह्मणियों में उसे लेकर तरह-तरह की बातें होने लगीं--"यह कौन है? कहां से आई है? किस लिए आई है?" आदि, आदि। अंत में उन सबने यही तय किया कि जो भी हो, इसे छूना उचित न होगा, और वे सब उससे थोड़ा दूर हटकर खड़े हो गए।

जब भिक्षा की याचना करने का समय आया तो नंबूरी ने पुजारी से कहा, "यहां विशेष रूप से आई हुई उस स्त्री से ही लड़के को पहली भिक्षा मांगनी चाहिए। पहली भिक्षा भी वही डालेगी। लड़के की मां उस स्त्री के भिक्षा डालने के बाद भिक्षा डालेगी।"

तब पुजारी ने कहा, "यह शास्त्रविरुद्ध होगा। लड़के की मां को ही पहली भिक्षा डालनी चाहिए। उसके बाद ही बाकी लोग भिक्षा डाल सकते हैं।"

नंबूरी- यह स्त्री लड़के की बड़ी मां है। मैंने इसी से पहले विवाह किया है। इसलिए इसे ही पहले भिक्षा देनी चाहिए।

यह सुनकर वहां इकट्ठा हुए ब्राह्मण, पुरोहित, नंबूरी, उनकी पत्नियां सबने एक स्वर में कहा, "आपने अगर लड़के की मां से शादी करने से पहले शादी की थी तो वह हम सबको मालूम हुए बिना कैसे रह सकता है? आप जो कह रहे हैं वह पहले दर्जे का झूठ है। नहीं तो जरा बताएं तो, हम भी सुनें, यह स्त्री कहां की है, किसकी बेटी है?" इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्न वे किए गए। जब नंबूरी की पत्नी को पता चला कि यह जो स्त्री आई है वह मेरी सौत है तथा मुन्ने को मुझसे पहले भिक्षा देने वाली है, तब उसे असह्य संताप, क्रोध एवं बेचैनी होने लगी। उसने कहा, "बड़ी मिन्नतों और प्रार्थनाओं के बाद मेरी कोख से पैदा हुए इस आंखों के तारे को मुझसे पहले तो क्या कभी भी मैं इस जबरन घुस आई कुलटा को भिक्षा देने नहीं दूंगी। अपने बेटे को मैं ही पहले भिक्षा दूंगी। यह पिशाचिनी बड़ी मां इस समय यहां कैसे आ गई। यदि यह मेरे बेटे को भिक्षा देगी तो मैं इसके मुंह पर झाड़ू मारूंगी।" जब सब लोग इस प्रकार नंबूरी का विरोध करने लगे तो वह बेचारा किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चुपचाप खड़ा रहा। तब यक्षी ने कहा, "मैं इस मुन्ने को भिक्षा देने के लिए ही यहां आई हूं। मुन्ने के पिता इसके लिए सहमत हैं। इसलिए आप सब जो चाहे कह लें, मैं भिक्षा डाले बगैर यहां से हरगिज नहीं जाऊंगी।" तुरंत लड़के की मां ने कहा, "तुझमें इतनी हिम्मत है? जरा मैं भी देखूं। तुझे यहां से घसीटकर बाहर निकालने के बाद ही उपनयन की आगे की गतिविधियां होंगी। हां, मैं कहे देती हूं। भिक्षा की याचना करना और भिक्षा डालना सब इसे यहां से निकालने के बाद ही होगा। आइए आप सब भी। हम सब मिलकर इसे इसी समय घर से बाहर निकालते हैं।" फिर सबने मिलकर यक्षी को घर के बाहर धकेल दिया। तुरंत कुछ नंबूरी बालकों और उनके सहायकों ने मिलकर उसे घर की चौहदी के बाहर कर दिया।

"हे भगवान! यह क्या अनर्थ कर दिया।" यह चिल्लाते हुए नंबूरिप्पाड यक्षी के पीछे दौड़ा। घर के बाहर इस प्रकार अनादरपूर्वक धकेले जाने से अपमानित और क्रुद्ध होकर यक्षी ने अपने निज स्वरूप में आकर नंबूरी से कहा, "आप बिलकुल चिंता न करें। मैं जानती हूं कि इसमें आपकी गलती नहीं है। मुझे आप पर लेशमात्र भी क्रोध नहीं है। लेकिन मुझे इस प्रकार इस महत्वपूर्ण अवसर पर अपमानित करने की वजह से इस घर में तीन पीढ़ियों के बाद पुत्र ही न होगा और उपनयन करने का अवसर ही नहीं आएगा। लेकिन चूंकि इस स्थल के साथ काफी समय से मेरा संबंध रहा है इसलिए अंतिम दो पीढ़ियों के दो पुत्र सरस्वती के अनुग्रह से विश्वविश्रुत हो जाएंगे। इतने दिनों से मनुष्य के साथ सहवास करती हुई मैं भूलोक में रहती आ रही हूं। इसलिए अब मेरे स्वजन मुझे स्वीकार करेंगे ऐसा मुझे नहीं लगता। यही नहीं, इस प्रकार अपमानित किए जाने के बाद मेरी जीने की इच्छा ही समाप्त हो गई है। आप मेरे बारे में सोचकर बिलकुल चिंतित न हों। भीतर जाकर उपनयन की शेष क्रियाएं पूरी करें। आप बहुत दिनों तक पत्नी व बच्चों के साथ सुखपूर्वक जिएंगे। मैं अपने इस शरीर को योगाग्नि में विलीन कर रही हूं।" इतना कहकर यक्षी सब के लिए अदृश्य हो गई और जहां वह खड़ी थी वहां से एक तेज प्रकाश पुंज मेघमंडल की ओर उड़ा और विलीन हो गया। यक्षी के वचनों को सुनकर और इन अद्भुत दृश्यों को देखकर वहां के सभी लोगों को विदित हुआ कि हमने जो कुछ किया है वह ठीक नहीं किया, लेकिन, "अतीतकार्यानुशयेन किंस्यात्?" (जो हो चुका उस पर पश्चात्ताप करने से क्या लाभ?)

वेणमणि नंबूरिपाड का वंश पुरुष संतानों के अभाव में आज जो मृतप्राय हो रहा है, वह इसी यक्षी के शाप के कारण ही। अंतिम दो पीढ़ी के दो नंबूरी भी क्रमशः कोल्लम संवत के १०६६ वाले वर्ष के वृश्चिक महीने में और १०६८ के मकर महीने में चल बसे। ये थे अच्छन वेणमणि नंबूतिरिप्पाड और महन वेणमणि नंबूतिरिप्पाड। ये दोनों यक्षी के अनुग्रह के माहात्मय से ही विश्वविख्यात हुए, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है। आज जितने वेणमणि नंबूतिरिप्पाड हैं, वे सब बहुत पहले इस कुटुंब से अलग हुए एक नंबूरी के वंशज हैं।

(समाप्त। अब नई कहानी)

17. वेणमणि नंबूरिप्पाड - 1
17. वेणमणि नंबूरिप्पाड - 2

06 जून, 2009

17. वेणमणि नंबूरिप्पाड - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

कुछ और दिन बीतने के बाद अपने बेटे का वेदाध्ययन रोककर उसे घर वापिस ले जाने के इरादे से वेणमणि नंबूतिरिप्पाड के पिता तृश्शिवप्पेरूर आए। जब वेणमणि नंबूतिरिप्पाड को पता चला कि उसके पिता उसे घर ले जाने के लिए आए हैं, तो यह सोचकर वह अत्यंत दुखी हुआ कि अब वह यक्षी से अलग हो जाएगा। उस रात जब यक्षी उसके पास आई तो वेणमणि नंबूतिरिप्पाड ने उससे अत्यंत दुखी होकर कहा, "मुझे घर ले जाने के लिए मेरे पिता आए हैं। उनका आदेश है कि कल सुबह ही मुझे यहां से चलना होगा। अब मैं क्या करूं?" तब यक्षी ने कहा, "आप बिलकुल चिंता न करें। आप जब अपने घर पहुंच जाएंगे, तब मैं वहीं आने लगूंगी।" यह सुनकर वेणमणि नंबूरिप्पाड की चिंता सब दूर हो गई और दोनों ने रोज की तरह सुखपूर्वक रात बिताई। सुबह होने से पहले यक्षी चली गई। वेणमणि नंबूतिरिप्पाड के पिता बेटे को लिए अपने घर चले गए। अब वेणमणि नंबूतिरिप्पाड अपने घर रहने लगा और यक्षी भी हर रात नियमित रूप से वहीं आने लगी।

कुछ और समय बीतने पर पिता ने सोचा कि अब बेटे का विवाह करना चाहिए और उन्होंने कन्याओं की जन्मपत्रियां जमा करना शुरू कर दिया। यह देखकर पुत्र ने सोचा कि यदि मैं शादी कर लूंगा तो यक्षी मेरे पास आना बंद कर देगी और वह बहुत दुखी रहने लगा। अंत में उसने एक दूसरे व्यक्ति के जरिए अपने पिता को सूचित किया कि मैं शादी नहीं करूंगा और आप मुझे इसके लिए बाध्य न करें। यह सुनकर पिता को असह्य दुख और क्रोध हुआ और उन्होंने बेटे को तुरंत अपने सम्मुख बुलवाया और उससे कहा, "क्यों बेटे, शादी करने की इच्छा नहीं है, क्यों? तू कबसे इतना नालायक हो गया? मेरी तमन्ना थी कि तेरी शादी होकर तेरे दो-तीन बच्चों को इन आंखों से देखकर संसार से विदा लूं। वह सब पूरी न भी हुई, तो भी इस वंश को नाश से बचाना तो है ही। तू शादी नहीं करेगा तो वह कैसे हो सकेगा?

बेटाः- पिताजी, आपका कहना सब ठीक है। इसका कोई समाधान भी मेरे पास नहीं है। पर मैं शादी नहीं करूंगा। आप इसके लिए मुझ पर जोर न डालें।

पिताः- शादी नहीं करूंगा, यह कह देने से कैसे चलेगा? न करने का कारण भी तो मैं जानूं।

बेटाः- कारण कुछ भी नहीं है। मेरा मन नहीं है, बस।

पिताः- जो कार्य करना चाहिए, उसे करने का अगर तेरा मन नहीं है तो इस घर में तू नहीं रहेगा। जहां मन करे वहीं चला जा। नालायक, तेरा मन नहीं करता, क्यों? मेरे सामने खड़ा होकर यह सब बकने की तेरी हिम्मत कैसे हुई? जा, मेरी नजरों से दूर हो जा। निकम्मे, अब तू इस घर में नजर आया तो तेरी खैर नहीं।

पिता द्वारा इस प्रकार क्रोधपूर्वक लताड़े जाने से साधु-हृदय एवं शुद्धात्मा वेणमणि नंबूतिरिप्पाड को असहनीय पीड़ा हुई। यह सब रात के भोजन से पहले हुआ था। इसलिए दुखी होकर वह रात का भोजन किए बगैर ही रोते-रोते अपने कमरे में जाकर लेट गया। नियत समय पर यक्षी उसके पास आई। उस समय नंबूतिरी दुखी होकर लेटे-लेटे आंसू बहा रहा था। यक्षी समझ गई कि नंबूतिरी किसी बात से अत्यंत दुखी एवं चिंतित है। इसलिए उसने नंबूतिरी से उसकी परेशानी का कारण पूछा। लेकिन शादी के लिए उस पर पड़ रहे दबाब की बातें यक्षी से कहने में उसे लज्जा आई, इसलिए पहले तो उसने कुछ नहीं कहा और बात को टालने की कोशिश की। अंत में जब यक्षी ने जिद पकड़ ली तो उसे सब कुछ बताना ही पड़ा। तब यक्षी ने कहा, "आप बिलकुल चिंतित न हों। आप निश्चिंत होकर शादी कर लें। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। आप विवाह नहीं करेंगे तो आपका वंश समाप्त हो जाएगा।

मेरी वजह से ऐसा हो जाए तो मुझे बहुत अधिक दुख होगा। मेरा एक ही आग्रह है, शादी के बाद आप मेरी उपेक्षा न करें। आप हर दूसरे दिन अपनी पत्नी के साथ सहशयन करें। बाकी दिन दूसरी जगह पर लेटें। मैं वहां आपके पास आ जाऊंगी। इसलिए कल ही सुबह जाकर आपके पिता जी को सूचित कर दीजिए कि आप विवाह करने के लिए तैयार हैं। पिता जी की बात न मानना उचित नहीं।" यह सुनकर नंबूतिरी अत्यंत प्रसन्न हुआ और दोनों ने बाकी रात सुखपूर्वक बिताई। सुबह होने लगी तो यक्षी चली गई। नंबूतिरी ने भी उठकर पिता के पास जाकर कह दिया कि मैं विवाह के लिए तैयार हूं। उसके पिता यह सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने बिना विलंब एक अच्छे मुहूर्त में बेटे की शादी बड़ी धूम-धाम से करा दी।

शादी के बाद वेणमणि नंबूरी यक्षी के कहे अनुसार हर दूसरी रात अपनी पत्नी के साथ और बाकी रातें यक्षी के साथ बिताने लगा। कुछ समय बाद उसकी पत्नी गर्भवती हुई और दस महीने के बाद एक पुत्र को जन्म दिया। नंबूरी ने उसका जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि अपने पिता के मार्गदर्शन में उचित समय पर यथायोग्य ढंग से किए। इसके बाद उसके पिता, जैसी उनकी इच्छा थी, अपने पौत्र का मुख देखकर संतोषपूर्वक एक दिन इस संसार से कूच कर गए। बेटे ने उनका पिंडदान, बरसी आदि सभी संस्कार भली-भांति पूरे किए।

(... जारी)

17. वेणमणि नंबूरिप्पाड - 1

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