02 मई, 2009

6. परयी से जन्मा पंदिरम कुल - 5: अकवूर चाथन

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

अकवूर चाथन भी इसी प्रकार एक दिव्यपुरुष थे। ये अकवूर नंबूदिरिप्पाड के नौकर के रूप में आमनैखल में रहते थे। उन दिनों नंबूदिरिप्पाड का मन एक अनर्ह्य सुंदरी में रम रहा था। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने गंगास्नान कर आने की ठानी। जाते समय अपने नौकर चाथन को भी साथ ले गए। चाथन ने एक चोरक्काय (करेले जैसी सब्जी जो स्वाद में अत्यंत कड़ुवी होती है) भी अपने साथ ले लिया। जिन-जिन पुण्य स्थलों में नंबूदिरिप्पाड ने स्नान किया, वहां-वहां चाथन ने उस चोरक्काय को भी डुबोया लेकिन स्वयं किसी भी तार्थस्थल में स्नान नहीं किया। जब तीर्थाटन के बाद नंबूदिरी अपने घर लौट आए, तो उन्होंने कालभैरवीप्रीति आदि पूजाएं बड़ी धूम-धाम से आयोजित कीं और यों सोचकर निश्चिंत हुए कि उनका पाप धुल गया है। तब एक दिन चाथन ने उस चोरक्काय को काटकर नंबूदिरिप्पाड की पत्नी को पकाने के लिए दे दिया। जब नंबूदिरिप्पाड भोजन के लिए बैठे तो उनकी पत्नी ने उस चोरक्काय से बनी सब्जी भी परोसी। उसे मुंह में रखते ही उसकी कड़वाहट के कारण उनसे उसे निगला नहीं गया। नंबूदिरी ने बड़े गुस्से में अपनी पत्नी को डांटा। उसने जवाब दिया, "चाथन ने जो सब्जी काटकर दी वही मैंने पका दी। उसने क्या काटकर दिया यह मुझे नहीं मालूम। उसी सब्जी के कारण यह व्यंजन इतना कड़वा हो गया है, और कोई बात नहीं है।" भोजन समाप्त करके नंबूदिरिप्पाड ने चाथन को बुलाकर पूछा, "कौन-सी सब्जी काटकर दी थी, और वह इतनी कड़वी क्यों थी?" तब चाथन ने कहा, "यदि वह सब्जी कड़वी थी तो आपका पाप भी मिटा नहीं है। आपने जिन-जिन पुण्यस्थलों में स्नान किया था, उन-उन स्थलों के पानी से मैंने उस कड़वे चोरक्काय को धोया था। मैंने आज वही चोरक्काय काटकर दिया था।"

यह सुनकर नंबूदिरिप्पाड जान गए कि उनका मजाक उड़ाने के लिए ही चाथन उस चोरक्काय को तीर्थस्थलों में धोकर लाए थे, और उनके क्रोध की सीमा नहीं रही। उन्हें बड़ी लज्जा भी हुई। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि उनका पाप मिटा नहीं है। जब नंबूदिरिप्पाड ने चाथन से कहा, "अब तुम्हीं बताओ कि मैं पापमुक्ति के लिए क्या करूं?" तो चाथन ने जवाब दिया, "आपको जिस वस्तु पर आसक्ति हुई थी, उसकी लोहे की एक प्रतिमा बनवाएं। उसे आग में तपाकर खूब लाल करें और जनसाधारण को इकट्ठा करके जिस पाप की मुक्ति की आकांक्षा आप रखते हों, उसकी घोषणा करते हुए उस गरम प्रतिमा का आलिंगन करें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो आपको पाप से मुक्ति कभी नहीं मिल सकेगी।" यह सुनकर नंबूदिरिप्पड ने ऐसा ही करने का निश्चय किया। उन्होंने लोहे की एक आदमकद स्त्री-प्रतिमा बनवाई और देशभर में घोषणा कर दी कि अमुक दिन अमुक समय पर मैं अपने पाप की मुक्ति के लिए सर्वसाधारण के सामने प्रायश्चित्त करूंगा। जब वह दिन आया तो उनके घर के सामने अपार भीड़ इकट्ठी हुई। प्रतिमा को आग में तपाकर लाल किया गया और उसे बड़े-बड़े चिमटों से पकड़कर कुछ लोगों ने सीधा खड़ा किया। नंबूदिरिप्पाड ऊंचे स्वर में अपने पाप को कबूल करते हुए उस दहकती प्रतिमा को गले लगाने उसकी ओर दौड़ पड़े। जब वे उसे आलिंगन करने ही वाले थे तो पास खड़े चाथन ने उन्हें रोककर कहा, "बस इतना बहुत है। अब आपका सारा पाप धुल गया है।" वहां खड़े जनसमुदाय ने भी एकस्वर में इससे सहमति प्रकट की। इससे यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि पापमोचन के लिए पश्चात्ताप और मनःशुद्धि ही आवश्यक है, न कि गंगास्नान आदि आडंबरपूर्ण कृत्य।

एक बार चाथन ने नंबूदिरिप्पाड से पूछा कि आप सुबह-सुबह स्नानादि करने के बाद नित्य साढ़े सात बजे से दोपहर तक जो दीपाराधना करते हैं, वह किस लिए? इसके उत्तर में नंबूदिरिप्पाड ने कहा, "मैं परब्रह्म की उपासना करता हूं।" तब चाथन ने पूछा, "परब्रह्म कैसा होता है?" मजाक के लहजे में नंबूदिरप्पाड ने कहा, "हमारे देशी भैंसे के समान होता है।" इसके बाद चाथन ने भी नंबूदिरिप्पाड के ही समान सुबह उठकर स्नान करके नियमित रूप से परब्रह्म की उपासना शुरू कर दी। यों जब इकतालीस दिन बीत गए तब चाथन के सामने परब्रह्म देशी भैंसे के रूप में प्रत्यक्ष हुए। इतना ही नहीं वे सदा चाथन के साथ रहने लगे और चाथन के कहे सभी काम करने लगे। इन सब घटनाओं का विवरण चाथन ने नंबूदिरिप्पाड को नहीं दिया। नंबूदिरिप्पाड को वह भैंसा दिखाई भी नहीं देता था।

एक बार नंबूदिरिप्पाड को उत्तर की ओर यात्रा पर जाना पड़ा। यात्रा की सामग्री को उठाने के लिए उन्होंने चाथन को भी साथ ले लिया। चाथन ने सारा सामान भैंसे की पीठ पर बांध दिया और नंबूदिरिप्पाड के साथ चल दिया। जब वे ओट्टिरप्पडनिलम नामक प्रसिद्ध स्थान पर पहुंचे तो उन्हें एक ऐसी संकरी गली में से गुजरना पड़ा, जिसके दोनों ओर चट्टानें थीं। नंबूदिरिप्पाड ने सबसे पहले वह गली पार की, फिर चाथन ने। लेकिन भैंसे के फैले हुए सींग उस संकरी गली से ज्यादा चौड़े थे, इस कारण वह गली में घुस नहीं सका और वहीं खड़ा रहा। तब चाथन ने पीछे मुड़कर देखकर कहा, "सिर को तिरछा करके निकलो।" यह सुनकर नंबूदिरिप्पाड ने भी मुड़कर देखा और चूंकि उन्हें भैंसा दिखाई नहीं देता था, इसलिए उन्होंने चाथन से पूछा, "तुम किससे बात कर रहे हो?" चाथन ने कहा, "अपने इसी देशी भैंसे से।"

नंबूरिप्पाडः- देशी भैसा? यहां कहां है देशी भैंसा?

चाथनः- यह जो खड़ा है। क्या आपको नहीं दिखाई देता? आपके कहे अनुसार उपासना करके मैंने प्रत्यक्ष कराया है इसे।

यह सुनने पर जब नंबूदिरिप्पाड ने चाथन को स्पर्श करते हुए देखा तो उन्होंने देशी भैंसे के रूप में परब्रह्म को वहां खड़े पाया। तब नंबूदिरिप्पाड ने कहा, "मुझसे ज्यादा भक्ति तुममें है। इसलिए मैं तुम्हारी वंदना करता हूं" और नंबूरिप्पाड ने चाथन को नमस्कार किया। तब देशी भैंसा वहीं भूमि के अंदर उतर गया। यह देखकर चाथन ने कहा, "मैं अपने भैंसे के बिना नहीं आऊंगा" और वह वहीं बैठ गए। "तब मेरे लिए क्या आज्ञा है?" नंबूरिप्पाड ने चाथन से पूछा तब चाथन ने कहा, "ऊपर चढ़ने के लिए धागा तो है ही आपके पास, उसी के सहारे चढ़ जाइए।" नंबूरिप्पाड ने इसका आशय यह लिया कि वेदज्ञान के सहारे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, और भारी मन से चाथन को वहीं छोड़कर चले गए। चाथन मृत्युपर्यंत वहीं परब्रह्म पर ध्यान टिकाए रहे और मृत्यु के बाद मोक्ष पाकर परब्रह्म में ही विलीन हो गए।

3 Comments:

P.N. Subramanian said...

बहुत ही सुन्दर कथा और उतनी ही सुन्दर प्रस्तुति.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मर्मस्पर्शी कथा है भाई. आपने चाथन का समय नहीं बताया, पर मुझे लगता है कि ये कहीं रैदास-कबीर के समकालीन तो नहीं हैं! क्योंकि उसी वक़्त उत्तर भारत में भी संतों की यह धारा चल रही थी, जो कर्मकांड की घोर विरोधी थी.

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

इष्ट देव जी: इस ग्रंथ में चाथन के काल के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं दी गई है। मुझे और स्रोतों से भी इस संबंध में कोई जानकारी नहीं मिली।

इसलिए कह नहीं सकता कि चाथन रैदास के समकालीन थे या नहीं। विकिपीडिया के अनुसार रैदास लगभग छह सौ साल पहले हुए थे। चाथन की ये कथाएं भी काफी पुरानी हैं। चूंकि इन कथाओं में चाथन को वररुचि का पुत्र बताया गया है, तो ये वररुचि के समय के कुछ वर्ष बाद हुए होंगे। लेकिन मुझे नहीं पता कि वररुचि ठीक-ठीक कब हुए थे।

केरल पुराण के साथ निरंतर बने रहने के लिए मैं आपका आभारी हूं।

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