(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
जब स्नान-पूजा समाप्त करके वे लौटे तो भोजन तैयार था। चार बड़े-बड़े पात्रों में एक-एक सेर चावल रखा हुआ था। एक कलश भर पानी भी रखा हुआ था। इनके अलावा अतिथि के बैठने के लिए एक पटल और उसके बाईं तरफ बिना छिले चार नारियल भी मौजूद थे। जब नंबूर भोजन कक्ष के दरवाजे के पास पहुंचे, तो पास वाले कमरे के अध-खुले द्वार की आड़ से गृहणी ने किसी अन्य व्यक्ति को संबोधित करने के लहजे में कहा, "उनसे कहिए कि भीतर आ जाएं, भोजन तैयार है।" यह सुनकर कोषिक्कोड़ के नंबूरी भोजन कक्ष में जाकर खाने बैठे। उन्होंने सब बर्तन खोलकर देखे। सबमें चावल था। साथ में खाने के लिए दाल, सब्जी, दही कुछ नहीं था। यह देखकर किसी अन्य व्यक्ति से कहने के लहजे में वे बोले, “दाल, सब्जी आदि क्या नहीं बनी हैं?" इसके उत्तर में गृहणी बोलीं, “उनसे कहो कि नारियल रखा हुआ है। यहां दाल-सब्जी, दही आदि का रिवाज नहीं है। यहां सब लोग नारियल के दूध के साथ ही चावल खाते हैं।” तब नंबूरी बोले, “बिना छिले नारियल का दूध कैसे निकालें?” मानो वे अपने आप से ही बोल रहे हों। यह सुनकर गृहणी ने दरवाजा थोड़ा सा खोलकर एक बर्तन बाहर रखा और दोनों हाथों में ही एक-एक नारियल लेकर दो ही बार में उन चार नारियलों को निचोड़कर उनका दूध बर्तन में गिरा दिया, मानो वे बिना छिले नारियल न होकर खूब पके आम हों। यह देखकर उस कोषिक्कोड़ वाले को बहुत ही अधिक आश्चर्य और भय हुआ। बिना छिले नारियल उस गृहणी के हाथों में रुई की तरह हो गए थे और उनमें मौजूद सब दूध निचुड़कर बर्तन में आ गया था। वह सोचने लगा, ‘यदि इस स्त्री में इतनी ताकत है, तो इसके पति और देवर कितने अधिक बलवान होंगे। उन्हें हरा पाना मेरी बस की बात कतई नहीं है। जल्द से जल्द यहां से खिसक लेना चाहिए, इसी में मेरी खैरियत है।‘ यों विचारते हुए उन्होंने किसी तरह भोजन करने का रस्म अदा किया और वहां से चले गए।
पादयिक्करै नंबूरियों के घर के निकट एक देवालय था। वहां हर रोज सुबह ये दोनों नंबूरी जाकर देव-दर्शन कर आते थे। एक दिन बड़े नंबूरी सुबह-सुबह तालाब में स्नान करके और संध्या-वंदन करके देव-दर्शन करने चल पड़े। छोटा नंबूरी अल्प समय बाद नहाने को निकले और फिर वे भी देवालय की ओर चल पड़े। इन नंबूरियों के घर से देवालाय जाने के लिए एक संकरा रास्ता ही था। जब छोटे नंबूरी इस संकरे रास्ते में पहुंचे तो सामने से मंदिर का बड़ा हाथी चला आ रहा था। उस दिन मंदिर में उत्सव था और हाथी उस उत्सव में शरीक होकर लौट रहा था। उस हाथी के पीछे-पीछे बड़े नंबूरी भी आ रहे थे। पर रास्ता संकरा और हाथी की देह विशाल होने के कारण ये दोनों एक-दूसरे को देख नहीं पाए थे। इसलिए बड़े नंबूरी नहीं समझ पाए कि हाथी के सामने छोटे भाई पहुंच चुके हैं, और छोटे नंबूरी समझ नहीं पाए कि हाथी के पीछे बड़े भाई हैं। पादायिक्करै के इन नंबूरियों का एक नियम था कि वे जहां भी जाएं, किसी को भी रास्ता नहीं देते थे। अब उस संकरे रास्ते में हाथी को मोड़ना भी संभव नहीं था। इसलिए छोटे नंबूरी ने महावत को आदेश दिया, "पीछे की ओर चलाओ," और हाथी के मस्तक पर हाथ रखकर उसे पीछे धकेला। इससे हाथी पीछे की ओर जाने लगा। यह देखकर बड़े नंबूरी ने महावत को आदेश दिया, “आगे बढ़ा दो,” और हाथी के पीछे के हिस्से पर हाथ रखकर उन्होंने हाथी को आगे धकेला। पर चूंकि छोटे नंबूरी ने हाथी के मस्तक पर हाथ रखा हुआ था, बड़े नंबूरी के पूरा जोर लगाने पर भी हाथी टस से मस नहीं हुआ। यह देखकर बड़े नंबूरी को संदेह हुआ, और उन्होंने ऊंचे स्वर में पुकार कर कहा, "आगे कौन है, अनुज तुम हो?" छोटा नंबूरी - “हां भैया, मैं ही हूं।” “तब उठा लो,” बड़े नंबूरी ने कहा, और अपनी ओर से हाथी को ऊपर की उठा लिया। छोटे नंबूरी ने भी अपनी ओर से ऐसा ही किया। इससे हाथी सड़क के दूसरी ओर झुक गया और हवा में ऊपर को उठ आया। इस अवस्था में उसे पकड़े-पकड़े ही दोनों नंबूरी झुककर आगे निकल गए। फिर दोनों ने हाथी को नीचे रख दिया और अपने-अपने रास्ते चले गए।
इन नंबूरियों के पराक्रम के संबंध में इस तरह की अनेक कथाएं कहने को हैं। पर ऊपर बताई कई कथाओं से ही आपको अंदाज हो गया होगा कि ये दोनों कितने ताकतवर इन्सान थे, इसलिए बाकी कहानियां रहने देता हूं।
(समाप्त। अब नई कहानी।)
27. पादायिक्करै के नंबूरी - 1
13 जुलाई, 2009
27. पादायिक्करै के नंबूरी - 2
लेबल: पादायिक्करै के नंबूरी
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9 Comments:
इन नाम्बूरियों ने जनता को बहुत बेवकूफ बनाया है और बनते भी रहे हैं. रोचक वृत्तान्त. आभार.
वाह वाह! ऐसा रोचक वृत्तान्त पढ़कर तो आनंद आ गया!
Very Intresting........
ई तो खिस्सा(किस्सा) है भाई। दिल पर नहीं लेने का!
अगली कहानी के लिए कितना इंतज़ार करने की बात तय हुई है भाई? ... और P.N. Subramanian जी के आक्षेप पर आपका क्या विचार है?
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