08 जुलाई, 2009

27. पादायिक्करै के नंबूरी - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

पादायिक्करै नामक घराना अंङाडिप्पुरम नामक देश में स्थित है। इस घराने में एक समय ज्येष्ठ-अनुज इस तरह दो बहुत ही बलवान नंबूरी हुए। वे हर रोज दोनों समय भोजन के लिए सवा बारह सेर पका हुआ चावल खाते थे। वे इसे दाल-सब्जी आदि के साथ नहीं खाते थे, बल्कि नारियल के दूध के साथ खाते थे। उनके यहां सुबह-शाम ज्येष्ठ और अनुज में से प्रत्येक के लिए सवा बारह सेर और ज्येष्ठ की पत्नी के लिए तीन सेर मिलाकर साढ़े सत्ताईस सेर चावल पकता था। पत्नी अपने हिस्से के चावल को अलग करके, बाकी के चावल के दो हिस्से कर देती थी और दोनों भाइयों के समक्ष रख देती थी। वह दोनों के बाईं ओर बिना छीले बारह-बारह नारियल भी रख देती थी। ये दोनों नंबूरी तब बाएं हाथ से एक एक नारियल लेकर चावल के ऊपर निचोड़ लेते थे और भोजन करते थे। जब सारा चावल खत्म हो चुका होता, तो नारियल भी समाप्त हो गए होते। पत्नी भी इसी तरह भोजन करती थी। चूंकि उसे कम चावल मिला होता था, वह केवल एक नारियल से काम चला लेती थी। वह भी उस बिना छिले नारियल को बाएं हाथ से चावल के ऊपर निचोड़ लेती थी। यही भोजन करने की उनकी रीति थी।

एक दिन उस घराने में रोज की भांति चावल तैयार हुआ और दोनों नंबूरी खाने बैठ ही रहे थे कि उनके पड़ौसी और काफी जाने-माने एक नंबूरी दौड़कर उनके घर आ पहुंचे और दोनों भाइयों से बोले, "आज मेरा जन्म दिन है, आप दोनों को मेरे यहां भोजन करने आना होगा। मैंने अपने बेटे से कल ही बोल रखा था कि आप लोगों को निमंत्रण दे आए। आपको अब तक आया हुआ नहीं देखकर मैंने अपने बेटे को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि वह यहां आकर निमंत्रण दे आना तो भूल ही गया है। मैं सोचने लगा, यह तो ठीक नहीं हुआ और अब क्या करें। इतनी देर हुए किसी को भेजूं आपको लिवाने, तो आपको वह असम्मानजनक प्रतीत हो सकता है, यही सोचकर मैं खुद ही आ गया हूं। चलिए हम चलें। वहां सब कुछ तैयार रखा हुआ है। हमारे वहां पहुंचते ही पत्ता बिछ जाएगा।" इस नामी पड़ौसी के निमंत्रण को अस्वीकार करना लोकाचार की दृष्टि से अनुचित होगा यों विचारकर दोनों नंबूरी उस पड़ौसी के साथ चले गए। अब पत्नी ने सोचा कि यह जो चावल पका दिया गया है वह यदि शाम तक रखा जाए तो खराब हो जाएगा, और उसने पति और देवर के हिस्से का चावल और अपने हिस्से का चावल और सब नारियल स्वयं ही खा लिया। शाम को दोनों भाई घर लौटे, और समय होने पर रात के भोजने के लिए आ बैठे। वे यही सोच रहे थे कि सुबह का बासी चावल ही परोसा जाएगा। लेकिन उनके सामने परोसा गया ताजा, गरमा-गरम नया पका चावल। यह देखकर ज्येष्ठ नंबूरी बोले, “सुबह के चावल का क्या किया?” तब उनकी पत्नी बोली, “मैंने सोचा वह शाम तक ठंडा और बासी हो जाएगा, इसलिए उसे मैंने खा लिया।” तब उसके पति बोले, “ऐसा किया क्या? बिलकुल सही किया। तब फिर कल से अपने लिए भी सवा बारह सेर चावल ही पका लेना।” अगले दिन से उस घर में पौने सैंतीस सेर चावल दोनों समय पकने लगा।

कुछ दिनों बाद इन नंबूरियों को एक जगह दावत में जाने के लिए निमंत्रण मिला। जब वे घर से निकलने ही वाले थे, बड़े नंबूरी ने घर के आंगन में रखे चावल पीसने के बड़े और अत्यंत भारी पत्थर के सिल को उठाकर ऊपर अटारी में रख दिया। उस दिन अमावास का दिन था। अमावास की रात को वे रात का भोजन नहीं करते थे, केवल अल्पाहार ही करते थे। अल्पाहार के लिए भी चावल की मात्रा वही तय थी, प्रत्येक व्यक्ति के लिए सवा बारह सेर। बड़े नंबूरी की पत्नी इतने चावल को उस सिल में पीसकर अल्पाहार तैयार करती थी। यह कहना जरूरी नहीं है कि वह सिल भी इतना बड़ा था कि उसमें तीन गुना सवा बारह सेर चावल को एक साथ पीसा जा सकता था। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह कितना भारी रहा होगा। उस पत्थर को अटारी में रख देने पर पत्नी महोदया क्या करेंगी यह देखने के लिए ही ज्येष्ठ नंबूरी ने ऐसा किया था। जब चावल पीसने का समय हुआ तो वह स्त्री नियमानुसार चावल के साथ आंगन में आई। तब उसने देखा कि सिल गायब है। “इसे कौन ले गया होगा,” यों विचारते हुए वह उसे खोजने लगी। तब उसे वह अटारी में रखा हुआ दिखा। “इसे उठाकर यहां किसने रख दिया?" यों कहते हुए उस स्त्री ने उसे उतारकर जमीन पर रख लिया और चावल पीसने लगी। उसके बाद सिल को धो-पोंछकर वापस अटारी में रख दिया। शाम को दोनों नंबूरी संध्या वंदन आदि पूरा करके खाने बैठे। बड़े नंबूरी की पत्नी ने उनके सामने अल्पाहार परोस दिया। यह देखकर बड़े नंबूरी ने अपनी पत्नी से पूछा, “आज तुमने चावल कैसे पीसा?” उनकी घरवाली बोली, “सिल पर ही। उसे वापस उसी जगह रख भी दिया है। क्या मुझसे कुछ गलती हो गई है?” यह सुनकर बड़े नंबूरी ने जवाब दिया, “नहीं, नहीं, तुमने ठीक ही किया।” वह यह देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए कि मेरी धर्म पत्नि मेरे बिलकुल लायक है।

एक बार पारायिक्करै नंबूरियों के यहां कोष़क्कोड़ का एक नंबूरी आया। वह बड़ा बलशाली और कसरती इन्सान था। उसका ही नहीं उसके सभी देशवासियों का भी (आर्थात कोष़िक्कोड़ के निवासियों का) यही मानना था कि उसके समान बलवान और शक्तिशाली व्यक्ति इस दुनिया में और कोई नहीं है। ये महाशय रोज दोनों टाइम चार सेर चावल खाते थे। पादायिक्करै नंबूरियों की खुराक देखने पर यद्यपि यह अचरज करने की बात नहीं लगती है, फिर भी यह सामान्य बात तो फिर भी नहीं है। इसलिए इस शख्स के और इनके देशवासियों का ऐसा सोचना अनुचित भी नहीं था। इन नंबूरी ने पादायिक्करै नंबूरियों के बारे में सुन रखा था और इसी इरादे से वे उनके यहां आए भी थे कि जेरा इनकी ताकत का परीक्षण तो करके देखूं, और संभव हुआ तो इन्हें हारा भी दूंगा। जब वे पादायिक्करै पहुंचे, दोनों भाई कहीं गए हुए थे। बड़े नंबूरी की पत्नी ने आए हुए नंबूरी से नौकरानी के मुंह से कहलवाया कि पति और देवर कही भोज पर गए हैं और शाम को ही लौटेंगे। तब कोष़िक्कोड के उस नंबूरी ने भीतर जवाब भिजवाया, “मैं उनसे मिलना चाहता हूं और उनसे मिले बगैर नहीं जाऊंगा। इसलिए मैं उनकी प्रतीक्षा करता हूं। आप मेरे भोजन का प्रबंध कर दीजिए।” इसके बाद उन्होंने नौकरानी के जरिए यह सूचना भी भीतर भिजवा दी कि मैं एक समय के भोजन में चार सेर चावल खाता हूं। तब गृह-पत्नी ने जवाब भिजवाया, “कोई बात नहीं। इसका प्रबंध हो जाएगा। आप स्नान करके आ जाइए, मैं चावल तैयार रखूंगी।” यह सुनकर वे नंबूरी नहाने चले गए।

(... जारी।)

1 Comment:

Smart Indian said...

देखते हैं आगे क्या होता है. मुझे तो लगता है कि अतिथि को तो गृहिणी ही परास्त कर देगी !

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