(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का वार्तालाप सुनकर प्रभाकर के मन में अपने गुरु के प्रति जो वैर भाव था, वह सब दूर ही नहीं हुआ, बल्कि, उन्हें अपने गुरु के प्रति सीमातीत आदर और भक्ति भी होने लगी, और उन्होंने जो मार्ग अपनाया था उसके बारे में सोचकर बहुत अधिक पश्चाताप भी होने लगा। “कितना गलत हो गया! मेरे प्रति इतना स्नेह और वात्सल्य रखनेवाले गुरु को मार डालने का मैंने इरादा किया। हे भगवान मेरा यह महापाप क्या प्रायश्चित्य करने से दूर होगा,” यों सोचकर रोते-रोते प्रभाकर छत से नीचे उतर आए और गुरु के पैरों पर गर पड़े। गुरु “अरे, यह क्या प्रभाकर!” कहते हुए पलंग से नीचे उतर पड़े और प्रभाकर के सिर को स्पर्श करते हुए आशीर्वाद दिया और उसे जबर्दस्ती उठाकर गले लगाया। यह कहना मुश्लिक हैं कि संताप के कारण या संतोष के कारण, पर दोनों की आंखें आंसुओं से छलक आईं और रोते-रोते दोनों ही बिना कुछ बोले-किए, काफी देर तक वैसे ही खड़े रहे। फिर गुरु बोले - प्रभाकर, क्या मेरे हाथों मार खाने से डरकर यहां छिपकर बैठे थे? तुम्हारी भलाई के लिए और अपने गुस्से को नियंत्रित करने में असफल होने के कारण ही मैं आज तुम्हे सामान्य से अधिक कठोरता से मार बैठा। उसे लेकर अभी तक मुझे बहुत ज्यादा पश्चात्ताप हो रहा है। अब तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब से मैं तुम्हें कभी भी इस तरह परेशान नहीं करूंगा।
प्रभाकर – आपको यह सब कहने या इसे लेकर जरा भी संताप महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। आप मुझे जितना चाहे मार लें और दंडित कर लें, सब कुछ मैं संतोष के साथ सह लूंगा। मार खाने पर जब दर्द असहनीय हो उठा, तबमेरे मन में कुछ दुर्विचार प्रकट हुए। उन्हें लेकर ही मुझे इस समय घोर पश्चात्ताप हो रहा है। मेरी अज्ञानता के कारण और दर्द असहनीय हो उठने के कारण मेरे मन में यह विचार उठा कि आपको मार डालना चाहिए। मैं इसी उद्देश्य से यहां छिपकर बैठा हुआ था। मेरी इस बाल सुलभ चपलता को आप क्षमा करें और इस दुर्विचार के कारण मुझसे जो महापाप हो गया है, उसका क्या प्रायश्चित्य है, यह भी मुझे बताने की कृपा करें।
गुरु – घोर से घोर पाप के लिए भी पश्चात्ताप से बढ़कर कोई प्रायश्चित्य नहीं है। तुम्हें इस समय अत्यधिक पश्चात्ताप हो रहा है, इसलिए तुम्हारा सब पाप धुल गया है। मैंने तुम्हारी गलती भी माफ कर दी। इससे बढ़कर तुम्हें कोई प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं है।
प्रभाकर – मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं। मेरे इस दुर्विचार के फलस्वरूप मुझसे निश्चय ही महापाप हुआ है। उसके लिए मुझे कोई अति कठिन प्रायश्चित्य करना ही होगा। अन्यथा मेरा मन शांत नहीं हो सकेगा।
गुरु – तब फिर कल ब्राह्मण सभा में सर्वकलाविशारदों, वेदज्ञों, शास्त्रज्ञों आदि महाब्राह्मणों से परामर्श लेते हैं और जैसा वे कहें, वैसा ही करो, मुझे इससे भिन्न कोई राह सूझ नहीं रहा है।
इस तरह अत्यंत व्यथा के साथ उन दोनों ने किसी प्रकार वह रात बिताई। सुबह होते ही प्रभाकर ने स्नानादि नित्य कर्म पूरा करके ब्राह्मण सभा में पहुंचे और वहां मौजूद ब्राह्मणों को सब बातें बताईं। उन महाब्राह्मणों ने विचार कर कहा, “गुरु की हत्या करने के बारे में सोचनेवाले व्यक्ति को यदि पाप से मुक्त होना है तो भूसे की आग में जल मरना होगा, अन्यथा यह पाप बना रहेगा।” तुरंत ही प्रभाकर ने एक जगह चुन ली और भूसा मंगवाकर उसे अपने चारों ओर गले तक रख लिया और चारों ओर से उसमें आग लगाने को कह दिया। “जैसा भी हो, मेरा यह जीवन इस तरह समाप्त हो रहा है। मेरा नाम दुनिया में सदा याद रखा जाए, इसे सुनिश्चित करने के लिए और मरते समय भगवान का नाम जीभ पर रहे इसके लिए मुझे भगवत-स्तुति का कोई काव्य रचना चाहिए,” इस संकल्प पर पहुंचकर उन्होंने वहीं खड़े-खड़े ही एक काव्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया। उनके सहपाठियों ने उसे सुनकर लिखना भी शुरू कर दिया। इस तरह भूसे की आग में जलते-जलते उस महान कवि प्रभाकर द्वारा रचा गया काव्य है ‘श्रीकृष्णिविलास’। चूंकि इस काव्य को गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा अब तक जीवित रखा गया है, हम कह सकते हैं कि उसमें गुणों की अधिकता है।
प्रभाकर द्वारा काव्य के बारहवें सर्ग को पूरा करने से पहले ही अग्नि से उनका पूरा शरीर भस्मीभूत हो जाने से वह काव्य पूर्ण नहीं हो सका। बारहवें सर्ग में ‘पश्यप्रिये! कोंकणः’ यह कहते ही आग उनके गले तक पहुंच गई थी और वे इस श्लोक को पूरा नहीं कर पाए। इस तरह अत्यंत योग्य और मेधावी वह कवि राख के ढेर में बदल गया।
उसके बाद कविकुलशिरोमणि स्वयं कालिदास ने प्रभाकर के श्रीकृष्णविसाल काव्य को पढ़कर देखा और संकल्प किया कि मैं उसे पूरा करूंगा। ‘पश्यप्रिये कोंकणः’ के आगे उन्होंने ‘भूमिभागान’ यह लिखा, पर तभी उन्हें एक अशरीरी सुनाई दी, “यह तो रेशम के धागे से बने वस्त्र में केले के रेशे से पैबंद लगाने के समान है। आप रहने दें।“ इसलिए कालिदास ने उस काव्य को पूरा करने का प्रयास छोड़ दिया। श्रीकृष्णविलास काव्य कितना दिव्य काव्य है इसका प्रमाण इस प्रसंग से ही मिल जाता है।
यह अशरीरि सुनकर कालिदास के मन में थोड़r ईर्ष्या, क्रोध और हठ के भाव भी जागृत हुए। वे मन ही मन बोले, “अगर ऐसा है, तो मैं इसमें कोई जोड़-तोड़ नहीं करूंगा, बल्कि इसी के जैसा दूसरा काव्य ही बना डालूंगा।” इसी हठ के वश में उन्होंने “कुमारसंभव” नाम का काव्य बनाया। प्रभाकर ने अपने श्रीकृष्णविलास काव्य की शुरुआत इस श्लोक से की है, ‘अस्तिश्रियस्सत्मसुमेरुनामा’। इसकी जगह कालिदास ने अपने कुमारसंभव काव्य की शुरुआत ‘अस्त्युत्तरस्याम दिशि देवतात्मा हिमालयौ नाम नगाधि राजः’ यों किया, हालांकि इस वाक्य के कुछ अन्य पाठांतर भी मिलते हैं।
(समाप्त। अब नई कहानी।)
26. प्रभाकर - 1
07 जुलाई, 2009
26. प्रभाकर - 2
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6 Comments:
आभार इस कथा का!
धन्यवाद इस सुंदर कहानी के लिये, लेकिन कुछ जंची नही, लेकिन पहलए जमाने मै शायद ऎसा होत हो , कानून सखत हो.
धन्यवाद
कहानियां रोचक हैं मगर क्या आपको नहीं लगता कि इनमें हिंस्र-भाव का अतिरेक है.
स्मार्ट इंडियन - आपकी बात सही है। इन कहानियों को मन बहलाव के लिए पढ़ना ही ठीक है। इनमें जो नैतिकता है, वह आजकल के मस्तिष्क को काफी कष्ट पहुंचा सकती है।
इसीलिए मैंने कई जगह पाठकों को आगाह किया है कि अपनी विवेक बुद्धि को साथ में रखकर ही इन कथाओं को पढ़ें। उदाहरण के लिए यह पोस्ट -
ऐतीह्यमाला के बारे में कुछ बातें
सरल शब्दों मैं कथा का अच्छा वर्णन किया है | धन्यवाद |
वाह। आपने अपने ब्लॉग में बिल्कुल हीरे टांक रखे हैं।
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