(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
जब स्नान-पूजा समाप्त करके वे लौटे तो भोजन तैयार था। चार बड़े-बड़े पात्रों में एक-एक सेर चावल रखा हुआ था। एक कलश भर पानी भी रखा हुआ था। इनके अलावा अतिथि के बैठने के लिए एक पटल और उसके बाईं तरफ बिना छिले चार नारियल भी मौजूद थे। जब नंबूर भोजन कक्ष के दरवाजे के पास पहुंचे, तो पास वाले कमरे के अध-खुले द्वार की आड़ से गृहणी ने किसी अन्य व्यक्ति को संबोधित करने के लहजे में कहा, "उनसे कहिए कि भीतर आ जाएं, भोजन तैयार है।" यह सुनकर कोषिक्कोड़ के नंबूरी भोजन कक्ष में जाकर खाने बैठे। उन्होंने सब बर्तन खोलकर देखे। सबमें चावल था। साथ में खाने के लिए दाल, सब्जी, दही कुछ नहीं था। यह देखकर किसी अन्य व्यक्ति से कहने के लहजे में वे बोले, “दाल, सब्जी आदि क्या नहीं बनी हैं?" इसके उत्तर में गृहणी बोलीं, “उनसे कहो कि नारियल रखा हुआ है। यहां दाल-सब्जी, दही आदि का रिवाज नहीं है। यहां सब लोग नारियल के दूध के साथ ही चावल खाते हैं।” तब नंबूरी बोले, “बिना छिले नारियल का दूध कैसे निकालें?” मानो वे अपने आप से ही बोल रहे हों। यह सुनकर गृहणी ने दरवाजा थोड़ा सा खोलकर एक बर्तन बाहर रखा और दोनों हाथों में ही एक-एक नारियल लेकर दो ही बार में उन चार नारियलों को निचोड़कर उनका दूध बर्तन में गिरा दिया, मानो वे बिना छिले नारियल न होकर खूब पके आम हों। यह देखकर उस कोषिक्कोड़ वाले को बहुत ही अधिक आश्चर्य और भय हुआ। बिना छिले नारियल उस गृहणी के हाथों में रुई की तरह हो गए थे और उनमें मौजूद सब दूध निचुड़कर बर्तन में आ गया था। वह सोचने लगा, ‘यदि इस स्त्री में इतनी ताकत है, तो इसके पति और देवर कितने अधिक बलवान होंगे। उन्हें हरा पाना मेरी बस की बात कतई नहीं है। जल्द से जल्द यहां से खिसक लेना चाहिए, इसी में मेरी खैरियत है।‘ यों विचारते हुए उन्होंने किसी तरह भोजन करने का रस्म अदा किया और वहां से चले गए।
पादयिक्करै नंबूरियों के घर के निकट एक देवालय था। वहां हर रोज सुबह ये दोनों नंबूरी जाकर देव-दर्शन कर आते थे। एक दिन बड़े नंबूरी सुबह-सुबह तालाब में स्नान करके और संध्या-वंदन करके देव-दर्शन करने चल पड़े। छोटा नंबूरी अल्प समय बाद नहाने को निकले और फिर वे भी देवालय की ओर चल पड़े। इन नंबूरियों के घर से देवालाय जाने के लिए एक संकरा रास्ता ही था। जब छोटे नंबूरी इस संकरे रास्ते में पहुंचे तो सामने से मंदिर का बड़ा हाथी चला आ रहा था। उस दिन मंदिर में उत्सव था और हाथी उस उत्सव में शरीक होकर लौट रहा था। उस हाथी के पीछे-पीछे बड़े नंबूरी भी आ रहे थे। पर रास्ता संकरा और हाथी की देह विशाल होने के कारण ये दोनों एक-दूसरे को देख नहीं पाए थे। इसलिए बड़े नंबूरी नहीं समझ पाए कि हाथी के सामने छोटे भाई पहुंच चुके हैं, और छोटे नंबूरी समझ नहीं पाए कि हाथी के पीछे बड़े भाई हैं। पादायिक्करै के इन नंबूरियों का एक नियम था कि वे जहां भी जाएं, किसी को भी रास्ता नहीं देते थे। अब उस संकरे रास्ते में हाथी को मोड़ना भी संभव नहीं था। इसलिए छोटे नंबूरी ने महावत को आदेश दिया, "पीछे की ओर चलाओ," और हाथी के मस्तक पर हाथ रखकर उसे पीछे धकेला। इससे हाथी पीछे की ओर जाने लगा। यह देखकर बड़े नंबूरी ने महावत को आदेश दिया, “आगे बढ़ा दो,” और हाथी के पीछे के हिस्से पर हाथ रखकर उन्होंने हाथी को आगे धकेला। पर चूंकि छोटे नंबूरी ने हाथी के मस्तक पर हाथ रखा हुआ था, बड़े नंबूरी के पूरा जोर लगाने पर भी हाथी टस से मस नहीं हुआ। यह देखकर बड़े नंबूरी को संदेह हुआ, और उन्होंने ऊंचे स्वर में पुकार कर कहा, "आगे कौन है, अनुज तुम हो?" छोटा नंबूरी - “हां भैया, मैं ही हूं।” “तब उठा लो,” बड़े नंबूरी ने कहा, और अपनी ओर से हाथी को ऊपर की उठा लिया। छोटे नंबूरी ने भी अपनी ओर से ऐसा ही किया। इससे हाथी सड़क के दूसरी ओर झुक गया और हवा में ऊपर को उठ आया। इस अवस्था में उसे पकड़े-पकड़े ही दोनों नंबूरी झुककर आगे निकल गए। फिर दोनों ने हाथी को नीचे रख दिया और अपने-अपने रास्ते चले गए।
इन नंबूरियों के पराक्रम के संबंध में इस तरह की अनेक कथाएं कहने को हैं। पर ऊपर बताई कई कथाओं से ही आपको अंदाज हो गया होगा कि ये दोनों कितने ताकतवर इन्सान थे, इसलिए बाकी कहानियां रहने देता हूं।
(समाप्त। अब नई कहानी।)
27. पादायिक्करै के नंबूरी - 1
13 जुलाई, 2009
27. पादायिक्करै के नंबूरी - 2
08 जुलाई, 2009
27. पादायिक्करै के नंबूरी - 1
(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
पादायिक्करै नामक घराना अंङाडिप्पुरम नामक देश में स्थित है। इस घराने में एक समय ज्येष्ठ-अनुज इस तरह दो बहुत ही बलवान नंबूरी हुए। वे हर रोज दोनों समय भोजन के लिए सवा बारह सेर पका हुआ चावल खाते थे। वे इसे दाल-सब्जी आदि के साथ नहीं खाते थे, बल्कि नारियल के दूध के साथ खाते थे। उनके यहां सुबह-शाम ज्येष्ठ और अनुज में से प्रत्येक के लिए सवा बारह सेर और ज्येष्ठ की पत्नी के लिए तीन सेर मिलाकर साढ़े सत्ताईस सेर चावल पकता था। पत्नी अपने हिस्से के चावल को अलग करके, बाकी के चावल के दो हिस्से कर देती थी और दोनों भाइयों के समक्ष रख देती थी। वह दोनों के बाईं ओर बिना छीले बारह-बारह नारियल भी रख देती थी। ये दोनों नंबूरी तब बाएं हाथ से एक एक नारियल लेकर चावल के ऊपर निचोड़ लेते थे और भोजन करते थे। जब सारा चावल खत्म हो चुका होता, तो नारियल भी समाप्त हो गए होते। पत्नी भी इसी तरह भोजन करती थी। चूंकि उसे कम चावल मिला होता था, वह केवल एक नारियल से काम चला लेती थी। वह भी उस बिना छिले नारियल को बाएं हाथ से चावल के ऊपर निचोड़ लेती थी। यही भोजन करने की उनकी रीति थी।
एक दिन उस घराने में रोज की भांति चावल तैयार हुआ और दोनों नंबूरी खाने बैठ ही रहे थे कि उनके पड़ौसी और काफी जाने-माने एक नंबूरी दौड़कर उनके घर आ पहुंचे और दोनों भाइयों से बोले, "आज मेरा जन्म दिन है, आप दोनों को मेरे यहां भोजन करने आना होगा। मैंने अपने बेटे से कल ही बोल रखा था कि आप लोगों को निमंत्रण दे आए। आपको अब तक आया हुआ नहीं देखकर मैंने अपने बेटे को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि वह यहां आकर निमंत्रण दे आना तो भूल ही गया है। मैं सोचने लगा, यह तो ठीक नहीं हुआ और अब क्या करें। इतनी देर हुए किसी को भेजूं आपको लिवाने, तो आपको वह असम्मानजनक प्रतीत हो सकता है, यही सोचकर मैं खुद ही आ गया हूं। चलिए हम चलें। वहां सब कुछ तैयार रखा हुआ है। हमारे वहां पहुंचते ही पत्ता बिछ जाएगा।" इस नामी पड़ौसी के निमंत्रण को अस्वीकार करना लोकाचार की दृष्टि से अनुचित होगा यों विचारकर दोनों नंबूरी उस पड़ौसी के साथ चले गए। अब पत्नी ने सोचा कि यह जो चावल पका दिया गया है वह यदि शाम तक रखा जाए तो खराब हो जाएगा, और उसने पति और देवर के हिस्से का चावल और अपने हिस्से का चावल और सब नारियल स्वयं ही खा लिया। शाम को दोनों भाई घर लौटे, और समय होने पर रात के भोजने के लिए आ बैठे। वे यही सोच रहे थे कि सुबह का बासी चावल ही परोसा जाएगा। लेकिन उनके सामने परोसा गया ताजा, गरमा-गरम नया पका चावल। यह देखकर ज्येष्ठ नंबूरी बोले, “सुबह के चावल का क्या किया?” तब उनकी पत्नी बोली, “मैंने सोचा वह शाम तक ठंडा और बासी हो जाएगा, इसलिए उसे मैंने खा लिया।” तब उसके पति बोले, “ऐसा किया क्या? बिलकुल सही किया। तब फिर कल से अपने लिए भी सवा बारह सेर चावल ही पका लेना।” अगले दिन से उस घर में पौने सैंतीस सेर चावल दोनों समय पकने लगा।
कुछ दिनों बाद इन नंबूरियों को एक जगह दावत में जाने के लिए निमंत्रण मिला। जब वे घर से निकलने ही वाले थे, बड़े नंबूरी ने घर के आंगन में रखे चावल पीसने के बड़े और अत्यंत भारी पत्थर के सिल को उठाकर ऊपर अटारी में रख दिया। उस दिन अमावास का दिन था। अमावास की रात को वे रात का भोजन नहीं करते थे, केवल अल्पाहार ही करते थे। अल्पाहार के लिए भी चावल की मात्रा वही तय थी, प्रत्येक व्यक्ति के लिए सवा बारह सेर। बड़े नंबूरी की पत्नी इतने चावल को उस सिल में पीसकर अल्पाहार तैयार करती थी। यह कहना जरूरी नहीं है कि वह सिल भी इतना बड़ा था कि उसमें तीन गुना सवा बारह सेर चावल को एक साथ पीसा जा सकता था। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह कितना भारी रहा होगा। उस पत्थर को अटारी में रख देने पर पत्नी महोदया क्या करेंगी यह देखने के लिए ही ज्येष्ठ नंबूरी ने ऐसा किया था। जब चावल पीसने का समय हुआ तो वह स्त्री नियमानुसार चावल के साथ आंगन में आई। तब उसने देखा कि सिल गायब है। “इसे कौन ले गया होगा,” यों विचारते हुए वह उसे खोजने लगी। तब उसे वह अटारी में रखा हुआ दिखा। “इसे उठाकर यहां किसने रख दिया?" यों कहते हुए उस स्त्री ने उसे उतारकर जमीन पर रख लिया और चावल पीसने लगी। उसके बाद सिल को धो-पोंछकर वापस अटारी में रख दिया। शाम को दोनों नंबूरी संध्या वंदन आदि पूरा करके खाने बैठे। बड़े नंबूरी की पत्नी ने उनके सामने अल्पाहार परोस दिया। यह देखकर बड़े नंबूरी ने अपनी पत्नी से पूछा, “आज तुमने चावल कैसे पीसा?” उनकी घरवाली बोली, “सिल पर ही। उसे वापस उसी जगह रख भी दिया है। क्या मुझसे कुछ गलती हो गई है?” यह सुनकर बड़े नंबूरी ने जवाब दिया, “नहीं, नहीं, तुमने ठीक ही किया।” वह यह देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए कि मेरी धर्म पत्नि मेरे बिलकुल लायक है।
एक बार पारायिक्करै नंबूरियों के यहां कोष़क्कोड़ का एक नंबूरी आया। वह बड़ा बलशाली और कसरती इन्सान था। उसका ही नहीं उसके सभी देशवासियों का भी (आर्थात कोष़िक्कोड़ के निवासियों का) यही मानना था कि उसके समान बलवान और शक्तिशाली व्यक्ति इस दुनिया में और कोई नहीं है। ये महाशय रोज दोनों टाइम चार सेर चावल खाते थे। पादायिक्करै नंबूरियों की खुराक देखने पर यद्यपि यह अचरज करने की बात नहीं लगती है, फिर भी यह सामान्य बात तो फिर भी नहीं है। इसलिए इस शख्स के और इनके देशवासियों का ऐसा सोचना अनुचित भी नहीं था। इन नंबूरी ने पादायिक्करै नंबूरियों के बारे में सुन रखा था और इसी इरादे से वे उनके यहां आए भी थे कि जेरा इनकी ताकत का परीक्षण तो करके देखूं, और संभव हुआ तो इन्हें हारा भी दूंगा। जब वे पादायिक्करै पहुंचे, दोनों भाई कहीं गए हुए थे। बड़े नंबूरी की पत्नी ने आए हुए नंबूरी से नौकरानी के मुंह से कहलवाया कि पति और देवर कही भोज पर गए हैं और शाम को ही लौटेंगे। तब कोष़िक्कोड के उस नंबूरी ने भीतर जवाब भिजवाया, “मैं उनसे मिलना चाहता हूं और उनसे मिले बगैर नहीं जाऊंगा। इसलिए मैं उनकी प्रतीक्षा करता हूं। आप मेरे भोजन का प्रबंध कर दीजिए।” इसके बाद उन्होंने नौकरानी के जरिए यह सूचना भी भीतर भिजवा दी कि मैं एक समय के भोजन में चार सेर चावल खाता हूं। तब गृह-पत्नी ने जवाब भिजवाया, “कोई बात नहीं। इसका प्रबंध हो जाएगा। आप स्नान करके आ जाइए, मैं चावल तैयार रखूंगी।” यह सुनकर वे नंबूरी नहाने चले गए।
(... जारी।)
07 जुलाई, 2009
26. प्रभाकर - 2
(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का वार्तालाप सुनकर प्रभाकर के मन में अपने गुरु के प्रति जो वैर भाव था, वह सब दूर ही नहीं हुआ, बल्कि, उन्हें अपने गुरु के प्रति सीमातीत आदर और भक्ति भी होने लगी, और उन्होंने जो मार्ग अपनाया था उसके बारे में सोचकर बहुत अधिक पश्चाताप भी होने लगा। “कितना गलत हो गया! मेरे प्रति इतना स्नेह और वात्सल्य रखनेवाले गुरु को मार डालने का मैंने इरादा किया। हे भगवान मेरा यह महापाप क्या प्रायश्चित्य करने से दूर होगा,” यों सोचकर रोते-रोते प्रभाकर छत से नीचे उतर आए और गुरु के पैरों पर गर पड़े। गुरु “अरे, यह क्या प्रभाकर!” कहते हुए पलंग से नीचे उतर पड़े और प्रभाकर के सिर को स्पर्श करते हुए आशीर्वाद दिया और उसे जबर्दस्ती उठाकर गले लगाया। यह कहना मुश्लिक हैं कि संताप के कारण या संतोष के कारण, पर दोनों की आंखें आंसुओं से छलक आईं और रोते-रोते दोनों ही बिना कुछ बोले-किए, काफी देर तक वैसे ही खड़े रहे। फिर गुरु बोले - प्रभाकर, क्या मेरे हाथों मार खाने से डरकर यहां छिपकर बैठे थे? तुम्हारी भलाई के लिए और अपने गुस्से को नियंत्रित करने में असफल होने के कारण ही मैं आज तुम्हे सामान्य से अधिक कठोरता से मार बैठा। उसे लेकर अभी तक मुझे बहुत ज्यादा पश्चात्ताप हो रहा है। अब तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब से मैं तुम्हें कभी भी इस तरह परेशान नहीं करूंगा।
प्रभाकर – आपको यह सब कहने या इसे लेकर जरा भी संताप महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। आप मुझे जितना चाहे मार लें और दंडित कर लें, सब कुछ मैं संतोष के साथ सह लूंगा। मार खाने पर जब दर्द असहनीय हो उठा, तबमेरे मन में कुछ दुर्विचार प्रकट हुए। उन्हें लेकर ही मुझे इस समय घोर पश्चात्ताप हो रहा है। मेरी अज्ञानता के कारण और दर्द असहनीय हो उठने के कारण मेरे मन में यह विचार उठा कि आपको मार डालना चाहिए। मैं इसी उद्देश्य से यहां छिपकर बैठा हुआ था। मेरी इस बाल सुलभ चपलता को आप क्षमा करें और इस दुर्विचार के कारण मुझसे जो महापाप हो गया है, उसका क्या प्रायश्चित्य है, यह भी मुझे बताने की कृपा करें।
गुरु – घोर से घोर पाप के लिए भी पश्चात्ताप से बढ़कर कोई प्रायश्चित्य नहीं है। तुम्हें इस समय अत्यधिक पश्चात्ताप हो रहा है, इसलिए तुम्हारा सब पाप धुल गया है। मैंने तुम्हारी गलती भी माफ कर दी। इससे बढ़कर तुम्हें कोई प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं है।
प्रभाकर – मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं। मेरे इस दुर्विचार के फलस्वरूप मुझसे निश्चय ही महापाप हुआ है। उसके लिए मुझे कोई अति कठिन प्रायश्चित्य करना ही होगा। अन्यथा मेरा मन शांत नहीं हो सकेगा।
गुरु – तब फिर कल ब्राह्मण सभा में सर्वकलाविशारदों, वेदज्ञों, शास्त्रज्ञों आदि महाब्राह्मणों से परामर्श लेते हैं और जैसा वे कहें, वैसा ही करो, मुझे इससे भिन्न कोई राह सूझ नहीं रहा है।
इस तरह अत्यंत व्यथा के साथ उन दोनों ने किसी प्रकार वह रात बिताई। सुबह होते ही प्रभाकर ने स्नानादि नित्य कर्म पूरा करके ब्राह्मण सभा में पहुंचे और वहां मौजूद ब्राह्मणों को सब बातें बताईं। उन महाब्राह्मणों ने विचार कर कहा, “गुरु की हत्या करने के बारे में सोचनेवाले व्यक्ति को यदि पाप से मुक्त होना है तो भूसे की आग में जल मरना होगा, अन्यथा यह पाप बना रहेगा।” तुरंत ही प्रभाकर ने एक जगह चुन ली और भूसा मंगवाकर उसे अपने चारों ओर गले तक रख लिया और चारों ओर से उसमें आग लगाने को कह दिया। “जैसा भी हो, मेरा यह जीवन इस तरह समाप्त हो रहा है। मेरा नाम दुनिया में सदा याद रखा जाए, इसे सुनिश्चित करने के लिए और मरते समय भगवान का नाम जीभ पर रहे इसके लिए मुझे भगवत-स्तुति का कोई काव्य रचना चाहिए,” इस संकल्प पर पहुंचकर उन्होंने वहीं खड़े-खड़े ही एक काव्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया। उनके सहपाठियों ने उसे सुनकर लिखना भी शुरू कर दिया। इस तरह भूसे की आग में जलते-जलते उस महान कवि प्रभाकर द्वारा रचा गया काव्य है ‘श्रीकृष्णिविलास’। चूंकि इस काव्य को गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा अब तक जीवित रखा गया है, हम कह सकते हैं कि उसमें गुणों की अधिकता है।
प्रभाकर द्वारा काव्य के बारहवें सर्ग को पूरा करने से पहले ही अग्नि से उनका पूरा शरीर भस्मीभूत हो जाने से वह काव्य पूर्ण नहीं हो सका। बारहवें सर्ग में ‘पश्यप्रिये! कोंकणः’ यह कहते ही आग उनके गले तक पहुंच गई थी और वे इस श्लोक को पूरा नहीं कर पाए। इस तरह अत्यंत योग्य और मेधावी वह कवि राख के ढेर में बदल गया।
उसके बाद कविकुलशिरोमणि स्वयं कालिदास ने प्रभाकर के श्रीकृष्णविसाल काव्य को पढ़कर देखा और संकल्प किया कि मैं उसे पूरा करूंगा। ‘पश्यप्रिये कोंकणः’ के आगे उन्होंने ‘भूमिभागान’ यह लिखा, पर तभी उन्हें एक अशरीरी सुनाई दी, “यह तो रेशम के धागे से बने वस्त्र में केले के रेशे से पैबंद लगाने के समान है। आप रहने दें।“ इसलिए कालिदास ने उस काव्य को पूरा करने का प्रयास छोड़ दिया। श्रीकृष्णविलास काव्य कितना दिव्य काव्य है इसका प्रमाण इस प्रसंग से ही मिल जाता है।
यह अशरीरि सुनकर कालिदास के मन में थोड़r ईर्ष्या, क्रोध और हठ के भाव भी जागृत हुए। वे मन ही मन बोले, “अगर ऐसा है, तो मैं इसमें कोई जोड़-तोड़ नहीं करूंगा, बल्कि इसी के जैसा दूसरा काव्य ही बना डालूंगा।” इसी हठ के वश में उन्होंने “कुमारसंभव” नाम का काव्य बनाया। प्रभाकर ने अपने श्रीकृष्णविलास काव्य की शुरुआत इस श्लोक से की है, ‘अस्तिश्रियस्सत्मसुमेरुनामा’। इसकी जगह कालिदास ने अपने कुमारसंभव काव्य की शुरुआत ‘अस्त्युत्तरस्याम दिशि देवतात्मा हिमालयौ नाम नगाधि राजः’ यों किया, हालांकि इस वाक्य के कुछ अन्य पाठांतर भी मिलते हैं।
(समाप्त। अब नई कहानी।)
26. प्रभाकर - 1
लेबल: प्रभाकर
05 जुलाई, 2009
26. प्रभाकर - 1
(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
संस्कृत भाषा से थोड़ा भी परिचय रखनेवाले लोगों में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं होगा जिसने श्रीकृष्णविलास नामक काव्य के रचयिता प्रभाकर के बारे में नहीं सुना हो। प्रभाकर कवि को सुकुमार, यह एक और नाम भी था। अब यह नहीं मालूम कि इन्हें ये दो नाम क्यों थे। यही सुना है कि ये ब्राह्मण थे।
चूंकि प्रभाकर बुद्धिमान और पढ़ने में ध्यान देनेवाले छात्र थे, उनके गुरु को उनके प्रति अपार स्नेह और वात्सल्य था। पर हर समय वे प्रभाकर को बुरी तरह से मारते रहते थे और कठोर से कठोर सजा देते थे। प्रभाकर के साथ पढ़नेवाले अनेक अन्य बालक भी थे। उनमें से कोई भी प्रभाकर जितना बुद्धिशाली या पढ़ने में कुशल न था। पर गुरु इन्हें कभी भी इतना नहीं मारते थे या इतनी कठोर सजा देते थे। उन सबको गुरु किसी श्लोक का अर्थ सौ बार भी समझाने को तत्पर रहते थे। पर प्रभाकर से वे अपेक्षा रखते थे कि वे जो कुछ भी पढ़ रहे हैं, उसका अर्थ स्वयं ही समझ लें। यदि किसी कठिन अंश समझाना भी पढ़े, तो वे केवल एक बार ही समझाते थे। कठिन से कठिन श्लोक का अर्थ भी एक बार समझा दिए जाने पर प्रभाकर समझ जाते थे और फिर कभी नहीं भूलते थे। फिर भी गुरु उनसे यही कहते थे कि तुम जड़ मूर्ख हो और पढ़ने में जरा भी ध्यान नहीं लगाते हो, और कभी भी उनकी प्रशंसा नहीं करते थे। हर समय गुरु प्रभाकर के सामने कुपित भाव ही जाहिर करते थे और कभी भी प्रभाकर को लेकर अपने चेहरे पर संतोष के भाव प्रकट होने नहीं देते थे। गुरु की इस क्रूरता के कारण प्रभाकर को बहुत अधिक संताप होता था। पर उन्होंने इसे बाहर जहिर नहीं होने दिया और विनय और आदर के साथ गुरु से शिक्षा ग्रहण करते रहे। कुछ ही समय में प्रभाकर काव्य, नाटक अलंकार आदि में और वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि में पारंगत हो गए। फिर भी न तो उन्हें, न ही उनके गुरु को पढ़ाई समाप्त करने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने एक बार फिर सब शास्त्रों का अध्ययन और भी विस्तार से शुरू कर दिया। इस तरह प्रभाकर एक अच्छे खासे विद्वान और सुंदर युवक में बदल गए। पर फिर भी गुरु ने उन्हें डांटना-फटकारना-मारना पहले जैसे ही जारी रखा। जैसे-जैसे प्रभाकर उम्र में बड़ा होता गया उसी अनुपात में गुरु द्वारा उसे मारने-फटकारने की मात्रा भी बढ़ती गई।
एक दिन जब प्रभाकर पढ़ रहे थे, तो उन्हें कुछ संशय हुआ और उसके संबंध में उन्होंने अपने गुरु से पूछा। तब गुरु “अरे मूर्ख! अब तक भी तुझे यह समझ में नहीं आया?” यों डांटते हुए उसे मारने लगे। मार लगने से प्रभाकर की जांघ फट गई और खून बहने लगा। पर इस पर भी गुरु ने उसे मारना नहीं रोका। आखिर पीड़ा असह्य हो उठने से प्रभाकर को वहां से भाग जाना पड़ा। उस दिन प्रभाकर को सामान्य से अधिक पीड़ा और व्यथा हुई। इसलिए उन्होंने मन में निश्चय कर लिया, “जैसा भी हो आज इस गुरु का काम तमाम करना ही होगा। अब और किसी को इस तरह इस गुरु के हाथों मार नहीं खानी पड़ेगी।“ जब गुरु संध्या वंदन के लिए बाहर गए हुए थे, प्रभाकर ने एक बड़ा और भारी पत्थर उठाकर गुरु के शयन कक्ष की छत के ऊपर चढ़कर बैठ गया। उनकी योजना यह थी कि जब गुरु सोने के लिए आएंगे और पलंग पर लेटेंगे, तो छत की कुछ खपड़ियों को हटाकर उनकी छाती पर यह पत्थर गिराकर उन्हें मार डालूंगा।
जब गुरु संध्यावंदन आदि नित्य कार्य पूरा करके घर लौटे, तब तक रात के भोजन का समय हो चुका था। लेकिन वे बोले, “आज मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है, और भोजन करने की इच्छा भी नहीं हो रही है। इसलिए मुझे भोजन नहीं चाहिए,“ और बिना खाए ही सोने के कमरे में चले गए। वहां पहुंचते ही वे पलंग पर लेट गए और गहरी सोच में डूब गए। जब गुरु ने रात का भोजन नहीं खाया, तो गुरु पत्नी ने भी नहीं खाया। पतिव्रता स्त्रियों में यही परिपाटि थी कि यदि पति न खाए तो वे भी नहीं खाती थीं। शयन-कक्ष में पति को बिना सोए विचार-मग्न अवस्था में लेटे देखकर वह श्रेष्ठ स्त्री बोली, “क्या बात है, लगता है आज आपको कोई बहुत बड़ी मानसिक व्यथा सता रही है। खाना भी नहीं खाया, यह भी कहा कि तबीयत ठीक नहीं है।“
गुरु – मुझे कुछ नहीं हुआ है। आज मैंने अपने प्रभाकर को सामान्य से कुछ ज्यादा ही मारा, और गुस्से में उसे मारता ही गया। बाद में इसके बारे में सोचकर मुझे बहुत ज्यादा व्यथा हुई। यह व्सथा अब भी मेरे मन से नहीं उतर रही है। मैं जितना भी मारूं, वह बेचरा उसे अब तक चुपचाप सहता ही रहता था। आज वह उठकर भाग गया। पीड़ा अहस्य हो उठने के कारण ही उसे ऐसा करना पड़ा होगा। मेरी क्रूरता के बारे में सोच-सोचकर मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। इसीलिए मैंने आज खाना नहीं खाया। आज मुझे नींद भी नहीं आएगी। कल जब तक उसे मैं देख न लूं मेरी तकलीफ दूर नहीं होगी।
गरु पत्नी – यह सचमुच एक बड़ा संकट है। मैंने कई बार मन बनाया था कि इसके बारे में आपसे कुछ कहूं। पर यह सोचकर कि मेरा ऐसा कहना आपको रुचिकर नहीं लगेगा, मैं चुप रही। प्रभाकर जैसा बुद्धिशाली, पढ़ने में ध्यान लगानेवाला, उच्च धारणा शक्तिवाला, सुशील और सुंदर छात्र यहां पढ़ रहे छात्रों में ही नहीं, सारी दुनया में और कोई होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। फिर भी उसे आप जितना मारते और दंडित करते हैं, उतना किसी अन्य छात्र को नहीं। उसके सुंदर शरीर को देखकर हर कोई यही कहता है कि वह सुकुमार शब्द को चरितार्थ करता है। इस प्रकार आकृति और प्रकृति में समान रूप से सुंदर और श्रेष्ठ बालक के साथ आप ऐसा कठोर बर्ताव क्यों करते हैं? अपने बच्चों को भी, जब वे बच्चे बड़े हो जाएं, मारना और दंडित करना अनुचित है। दूसरों के बच्चों के साथ तो ऐसा बिलकुल ही नहीं करना चाहिए।
गुरु – भागवान, तुमने जो कुछ कहा, वह सब सही है। लेकिन मैं अपने प्रभाकर को कोई साधारण बालक नहीं मानता हूं। वह जितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए एक छोटा बालक ही रहेगा। यह भी नहीं है कि मैं उसके गुणों से अपरिचित हूं। न ही ऐसा है कि मुझे उसके प्रति स्नेह और वात्सल्य नहीं है। सच कहता हूं, मुझे उससे अपने सीमंत-पुत्र से भी ज्यादा स्नेह और वात्सल्य है। पर वह सब मैं जाहिर नहीं करता, तो केवल इसलिए कि उसका विकास ठीक-ठाक हो। यदि उसे पता चले कि मैं उसे बुद्धिमान और समर्थ समझता हूं, तो वह अहंकारी हो जाएगा और पढ़ाई में कम ध्यान दने लगेगा, यह सोचकर ही मैं उसके प्रति स्नेह नहीं दर्शाता। और कोई बात नहीं है। मेरे कठोर शासन का अच्छा प्रभाव आखिर उसमें रंग लाएगा। इसमें कोई संदेह ही नहीं है कि मेरा प्रभाकर दुनिया का अन्यतम विद्वान बनेगा। फिर भी आज मैंने उसके साथ जो किया, वह कुछ ज्यादा ही हो गया। अब कभी भी मैं उसे इस तरह वेदना नहीं पहुंचाऊंगा, यह मेरा निश्चय है। उफ! आज मेरे प्रभाकर को मेरे हाथों जो झेलना पड़ा, उसके बारे में सोचकर मेरा हृदय कांप उठता है।
(... जारी)
लेबल: प्रभाकर
04 जुलाई, 2009
25. वाग्भटाचार्य -2
(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
एक दिन रात को गुरु ने अपने शिष्य से कहा, “मेरे पैरों में पीड़ा है। तुम पलंग पर बैठ जाओ और मेरे पैरों को जरा दबाकर दे दो।“ वाग्भटाचार्य ने बिना संकोच ऐसा ही किया। रात बहुत बीत जाने के कारण कुछ ही देर में वैद्य को नींद आ गई। तब वाग्भटाचार्य के मन में विचार उठा, “अहो दुर्भाग्य! मेरी कैसी गत हो गई है! मैंने एक उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास सब भली प्रकार पढ़ा है। इतना सब होने के बाद भी मुझे इस नीच का पांव दबाना पड़ रहा है।” यह सोचने पर उनका मन दुख और संताप से इतना व्याकुल हो उठा कि उनकी आंखों से आंसुओं की बूंदें टपकने लगीं। इनमें से तीन-चार बूंदें वैद्य के पैरों पर भी गिरीं। इससे उसने तुरंत आंखें खोलकर देखा। शिष्य का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ देखकर वैद्य को सब बातें समझ में आ गईं। “इसने धोखा दे दिया। यह हमारी जाति का नहीं है। इसे छोड़ना नहीं चाहिए। इसका काम यहीं तमाम कर देना होगा,” यों सोचकर वह वैद्य पलंग से कूद पड़ा और पास ही रखी तलवार हाथ में उठा ली। यह देखकर वाग्यभटाचार्य मन ही मन बोले – “काम बिगड़ गया। यह अभी मुझे मार देगा। इस नीच के हाथों मरना नहीं है। चार वेद, छह शास्त्र और ईश्वर नाम का व्यक्ति अगर है, तो मेरा बाल भी बांका नहीं होना चाहिए,” और उन्होंने उस सात मंजिले इमारत के एक झरोखे से छलांग लगा दी। नीचे पहुंचने पर उन्होंने देखा कि उनके पैरों में जरा सी मोच आई है बस, अनयस्था उन्हें कुछ नहीं हुआ है। वे वहां से उठकर चल पड़े और नदी के उस पार ब्राह्मणों की पाठशाला में आ पहुंचे। वाग्भटार्च को थोड़ा सा लंगड़ाते हुए देखकर वहां मौजूद ब्राह्मणों ने इसका कारण पूछा। तब वाग्भटाचार्य ने अपने साथ जो कुछ भी घटा था, वह सब विस्तार से कह दिया। यह सुनते ही ब्राह्मणों ने पूछा, ”क्या संकल्प करके आपने महल से नीच कूदा था?” इसके उत्तर में वाग्भटाचार्य ने कहा, “ ‘चार वेद, छह शास्त्र और ईश्वर नाम का व्यक्ति अगर है, तो मेरा बाल भी बांका नहीं होना चाहिए’, इस संकल्प के साथ ही मैं नीचे कूदा था।“ यह सुनकर ब्राहणों ने कहा, “तब इसमें आश्चर्य नहीं कि आपको चोट लगी। ’अगर’ शब्द किस लिए? यही न कि इनमें आपको उतना विश्वास नहीं है? ‘चार वेद, छह शास्त्र और ईश्वर नाम का व्यक्ति होने के कारण...’, यों होना चाहिए था, तब आपको जरा भी चोट नहीं लगी होती। आपको यह नहीं सूझा, इसलिए आप भ्रष्ट हो चुके हैं। हमारी संगत में बैठने योग्य आप नहीं रह गए हैं। कृपा करके बाहर निकल जाएं।” यह सुनकर वाग्भटाचार्य ने कहा, “आप ठीक ही कह रहे हैं, अब मैं आपकी संगत में नहीं बैठूंगा।” और तुरंत ही वहां से चले गए। इसके बाद वे सोचने लगे, "अब क्या किया जाए। वैसे भी इस प्रदेश में रहना अब सुखकर नहीं रह गया है। पर यदि इसी समय कहीं और चला जाऊं तो इतने दिनों की मेरी मेहनत बेकार हो जाएगी। अब कोई दूसरा व्यक्ति संकल्प करे तो भी इस मुसलमान वैद्य से वैद्यशास्त्र की जानकारी चोरी से सीख नहीं सकेगा। इसलिए मैंने अपने प्रयत्न से जो सीखा है उसे ऐसे रूप में लाना होगा जिसका ये लोग आसानी से उपयोग कर सकें, उसके बाद ही मुझे यहां से जाना चाहिए।“ इस निश्चय पर पहुंचकर वे कुछ समय और वहीं रहे। अन्य ब्राह्मणों से उन्होंने किसी भी प्रकार का संपर्क नहीं रखा। वे एक अलग स्थान पर रहने लगे और स्वयं ही खाना पकाकर खाने लगे।
इस तरह रहते हुए वाग्भटाचार्य ने पहले ‘अष्टांगसंग्रह’ नाम की वैद्यशास्त्र के एक ग्रंथ की रचना की। उसमें उन्होंने बड़े ही संक्षेप में बाकी सब वैद्यशास्त्रीय ग्रंथों की सामग्री दे दी। फिर भी उन्हें उसे लेकर संतोष नहीं हुआ। यद्यपि वह अन्य सभी वैद्यशास्त्रीय ग्रंथों से संक्षिप्त था, उन्हें लगा कि इतना संक्षिप्तीकरण पर्याप्त नहीं है। इतना ही नहीं, उसमें गद्य और पद्य दोनों थे, इसलिए उसके अध्येताओं को उसे कंठस्थ करने में कठिनाई होगी। अतः उन्होंने निश्चय किया कि अब ऐसा ग्रंथ रचना चाहिए जिसमें अष्टांगसंग्रह की सब बातें हों, सब कुछ पद्य में हो, और अष्टांगसंग्रह से वह छोटा भी हो। इस निश्चय का परिणाम था ‘अष्टांगहृयम’ नाम का वैद्यशास्त्रीय ग्रंथ। उसकी रचनापूर्ण होने के बाद उन्होंने जन हितार्थ ‘अमरकोष’ नामक अभिधा-ग्रंथ की भी रचना की। उसमें भी अन्य अभिणआ-ग्रंथों का सारांश दिया गया है। इस तरह तीन ग्रंथ रचकर और उन्हें ब्राह्मण सभा को अर्पित करके वाग्भटाचार्य वहां से चले गए। उसके बाद उन ब्राह्मणों में से किसी ने भी उन्हें नहीं देखा। इसलिए यह बताना संभव नहीं है कि वाग्भटाचार्य कहां गए, कैसे रहे, और उनका देहांत कैसे हुआ।
वाग्भटाचार्य के चले जाने के बाद ब्राह्मणों के सामने एक विकट दुविधा की स्थिति पैदा हो गई, जो यह थी, "क्या एक भ्रष्ट व्यक्ति द्वारा रचे गए ग्रंथों को स्वीकार करना ठीक होगा? यदि न स्वीकारें, तो इस तरह के अन्य श्रेष्ठ ग्रंथ तैयार करवाना असंभव ही नहीं होगा, तब फिर क्या करना उचित होगा?” इस विषय के निराकरण के लिए सभी गण्यमान्य ब्राह्मणों ने सभा बुलाई और खूब विचारने के बाद यही मंतव्य दिया, “इन ग्रंथों को स्वीकार किया जाए, लेकिन यह याद रखने के लिए कि इनके रचयिता एक भ्रष्ट ब्राह्मण थे, इन ग्रंथों का पठन-पाठन एकादशी के दिन न किया जाए।“ इसलिए आज भी एकादशी के दिन अष्टांगसंग्रह, अष्टांगहृदय और अमरकोष, इन तीन ग्रंथों के पठन-पाठन की परिपाटी नहीं है।
(समाप्त। अब नई कहानी।)
25. वाग्भटाचार्य - 1
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