05 जुलाई, 2009

26. प्रभाकर - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

संस्कृत भाषा से थोड़ा भी परिचय रखनेवाले लोगों में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं होगा जिसने श्रीकृष्णविलास नामक काव्य के रचयिता प्रभाकर के बारे में नहीं सुना हो। प्रभाकर कवि को सुकुमार, यह एक और नाम भी था। अब यह नहीं मालूम कि इन्हें ये दो नाम क्यों थे। यही सुना है कि ये ब्राह्मण थे।

चूंकि प्रभाकर बुद्धिमान और पढ़ने में ध्यान देनेवाले छात्र थे, उनके गुरु को उनके प्रति अपार स्नेह और वात्सल्य था। पर हर समय वे प्रभाकर को बुरी तरह से मारते रहते थे और कठोर से कठोर सजा देते थे। प्रभाकर के साथ पढ़नेवाले अनेक अन्य बालक भी थे। उनमें से कोई भी प्रभाकर जितना बुद्धिशाली या पढ़ने में कुशल न था। पर गुरु इन्हें कभी भी इतना नहीं मारते थे या इतनी कठोर सजा देते थे। उन सबको गुरु किसी श्लोक का अर्थ सौ बार भी समझाने को तत्पर रहते थे। पर प्रभाकर से वे अपेक्षा रखते थे कि वे जो कुछ भी पढ़ रहे हैं, उसका अर्थ स्वयं ही समझ लें। यदि किसी कठिन अंश समझाना भी पढ़े, तो वे केवल एक बार ही समझाते थे। कठिन से कठिन श्लोक का अर्थ भी एक बार समझा दिए जाने पर प्रभाकर समझ जाते थे और फिर कभी नहीं भूलते थे। फिर भी गुरु उनसे यही कहते थे कि तुम जड़ मूर्ख हो और पढ़ने में जरा भी ध्यान नहीं लगाते हो, और कभी भी उनकी प्रशंसा नहीं करते थे। हर समय गुरु प्रभाकर के सामने कुपित भाव ही जाहिर करते थे और कभी भी प्रभाकर को लेकर अपने चेहरे पर संतोष के भाव प्रकट होने नहीं देते थे। गुरु की इस क्रूरता के कारण प्रभाकर को बहुत अधिक संताप होता था। पर उन्होंने इसे बाहर जहिर नहीं होने दिया और विनय और आदर के साथ गुरु से शिक्षा ग्रहण करते रहे। कुछ ही समय में प्रभाकर काव्य, नाटक अलंकार आदि में और वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि में पारंगत हो गए। फिर भी न तो उन्हें, न ही उनके गुरु को पढ़ाई समाप्त करने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने एक बार फिर सब शास्त्रों का अध्ययन और भी विस्तार से शुरू कर दिया। इस तरह प्रभाकर एक अच्छे खासे विद्वान और सुंदर युवक में बदल गए। पर फिर भी गुरु ने उन्हें डांटना-फटकारना-मारना पहले जैसे ही जारी रखा। जैसे-जैसे प्रभाकर उम्र में बड़ा होता गया उसी अनुपात में गुरु द्वारा उसे मारने-फटकारने की मात्रा भी बढ़ती गई।

एक दिन जब प्रभाकर पढ़ रहे थे, तो उन्हें कुछ संशय हुआ और उसके संबंध में उन्होंने अपने गुरु से पूछा। तब गुरु “अरे मूर्ख! अब तक भी तुझे यह समझ में नहीं आया?” यों डांटते हुए उसे मारने लगे। मार लगने से प्रभाकर की जांघ फट गई और खून बहने लगा। पर इस पर भी गुरु ने उसे मारना नहीं रोका। आखिर पीड़ा असह्य हो उठने से प्रभाकर को वहां से भाग जाना पड़ा। उस दिन प्रभाकर को सामान्य से अधिक पीड़ा और व्यथा हुई। इसलिए उन्होंने मन में निश्चय कर लिया, “जैसा भी हो आज इस गुरु का काम तमाम करना ही होगा। अब और किसी को इस तरह इस गुरु के हाथों मार नहीं खानी पड़ेगी।“ जब गुरु संध्या वंदन के लिए बाहर गए हुए थे, प्रभाकर ने एक बड़ा और भारी पत्थर उठाकर गुरु के शयन कक्ष की छत के ऊपर चढ़कर बैठ गया। उनकी योजना यह थी कि जब गुरु सोने के लिए आएंगे और पलंग पर लेटेंगे, तो छत की कुछ खपड़ियों को हटाकर उनकी छाती पर यह पत्थर गिराकर उन्हें मार डालूंगा।

जब गुरु संध्यावंदन आदि नित्य कार्य पूरा करके घर लौटे, तब तक रात के भोजन का समय हो चुका था। लेकिन वे बोले, “आज मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है, और भोजन करने की इच्छा भी नहीं हो रही है। इसलिए मुझे भोजन नहीं चाहिए,“ और बिना खाए ही सोने के कमरे में चले गए। वहां पहुंचते ही वे पलंग पर लेट गए और गहरी सोच में डूब गए। जब गुरु ने रात का भोजन नहीं खाया, तो गुरु पत्नी ने भी नहीं खाया। पतिव्रता स्त्रियों में यही परिपाटि थी कि यदि पति न खाए तो वे भी नहीं खाती थीं। शयन-कक्ष में पति को बिना सोए विचार-मग्न अवस्था में लेटे देखकर वह श्रेष्ठ स्त्री बोली, “क्या बात है, लगता है आज आपको कोई बहुत बड़ी मानसिक व्यथा सता रही है। खाना भी नहीं खाया, यह भी कहा कि तबीयत ठीक नहीं है।“

गुरु – मुझे कुछ नहीं हुआ है। आज मैंने अपने प्रभाकर को सामान्य से कुछ ज्यादा ही मारा, और गुस्से में उसे मारता ही गया। बाद में इसके बारे में सोचकर मुझे बहुत ज्यादा व्यथा हुई। यह व्सथा अब भी मेरे मन से नहीं उतर रही है। मैं जितना भी मारूं, वह बेचरा उसे अब तक चुपचाप सहता ही रहता था। आज वह उठकर भाग गया। पीड़ा अहस्य हो उठने के कारण ही उसे ऐसा करना पड़ा होगा। मेरी क्रूरता के बारे में सोच-सोचकर मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। इसीलिए मैंने आज खाना नहीं खाया। आज मुझे नींद भी नहीं आएगी। कल जब तक उसे मैं देख न लूं मेरी तकलीफ दूर नहीं होगी।

गरु पत्नी – यह सचमुच एक बड़ा संकट है। मैंने कई बार मन बनाया था कि इसके बारे में आपसे कुछ कहूं। पर यह सोचकर कि मेरा ऐसा कहना आपको रुचिकर नहीं लगेगा, मैं चुप रही। प्रभाकर जैसा बुद्धिशाली, पढ़ने में ध्यान लगानेवाला, उच्च धारणा शक्तिवाला, सुशील और सुंदर छात्र यहां पढ़ रहे छात्रों में ही नहीं, सारी दुनया में और कोई होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। फिर भी उसे आप जितना मारते और दंडित करते हैं, उतना किसी अन्य छात्र को नहीं। उसके सुंदर शरीर को देखकर हर कोई यही कहता है कि वह सुकुमार शब्द को चरितार्थ करता है। इस प्रकार आकृति और प्रकृति में समान रूप से सुंदर और श्रेष्ठ बालक के साथ आप ऐसा कठोर बर्ताव क्यों करते हैं? अपने बच्चों को भी, जब वे बच्चे बड़े हो जाएं, मारना और दंडित करना अनुचित है। दूसरों के बच्चों के साथ तो ऐसा बिलकुल ही नहीं करना चाहिए।

गुरु – भागवान, तुमने जो कुछ कहा, वह सब सही है। लेकिन मैं अपने प्रभाकर को कोई साधारण बालक नहीं मानता हूं। वह जितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए एक छोटा बालक ही रहेगा। यह भी नहीं है कि मैं उसके गुणों से अपरिचित हूं। न ही ऐसा है कि मुझे उसके प्रति स्नेह और वात्सल्य नहीं है। सच कहता हूं, मुझे उससे अपने सीमंत-पुत्र से भी ज्यादा स्नेह और वात्सल्य है। पर वह सब मैं जाहिर नहीं करता, तो केवल इसलिए कि उसका विकास ठीक-ठाक हो। यदि उसे पता चले कि मैं उसे बुद्धिमान और समर्थ समझता हूं, तो वह अहंकारी हो जाएगा और पढ़ाई में कम ध्यान दने लगेगा, यह सोचकर ही मैं उसके प्रति स्नेह नहीं दर्शाता। और कोई बात नहीं है। मेरे कठोर शासन का अच्छा प्रभाव आखिर उसमें रंग लाएगा। इसमें कोई संदेह ही नहीं है कि मेरा प्रभाकर दुनिया का अन्यतम विद्वान बनेगा। फिर भी आज मैंने उसके साथ जो किया, वह कुछ ज्यादा ही हो गया। अब कभी भी मैं उसे इस तरह वेदना नहीं पहुंचाऊंगा, यह मेरा निश्चय है। उफ! आज मेरे प्रभाकर को मेरे हाथों जो झेलना पड़ा, उसके बारे में सोचकर मेरा हृदय कांप उठता है।

(... जारी)

1 Comment:

राज भाटिय़ा said...

रुचिकर कहानी.
धन्यवाद

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