17 जून, 2009

20. कोषिक्कोड की मंडी

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

पुराने जमाने में जब कोषिक्कोड के राजा अपने राज्य के अधिपति थे, उस समय के सिंहासनासीन सामूतिरिप्पाड (कोषिक्कोड के राजा इसी नाम से जाने जाते थे) के दाहिने कंधे में कोई दर्द शुरू हुआ। वह पल-पल बढ़ता गया और उसे सहना राजा के लिए असंभव हो गया। तब वैद्य, तांत्रिक, ज्योतिष आदि सब वहां पहुंचकर अपनी-अपनी विद्या का प्रदर्शन करने लगे। संख्यातीत वैद्यों, तांत्रिकों और ज्योतिषों के प्रयोगों के बावजूद राजा को कोई राहत नहीं मिल सकी। इतना ही नहीं, दर्द दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया। अंत में वैद्य-हकीमों, तांत्रिक-ओझाओं ने यही कहा कि यह मर्ज लाइलाज है और वे सब पीछे हट गए। सामूतिरि भी लाचार हो गए। तब एक अत्यंत बुद्धिशाली, सूक्ष्मग्राही और विचारवान विद्वान सामूतिरि के पास आया और उसने उनकी बीमारी का पूरा विवरण पूछकर जानने के बाद कहा, "यह वेदना मैं दूर कर दूंगा। इसके लिए किसी खास इलाज की भी जरूरत नहीं है। एक तौलिया गीला करके उसे निचोड़कर उस स्थान पर रखें जहां वेदना है। वेदना तुरंत मिट जाएगी।" यह सुनकर सामूतिरिप्पाड को नहीं लगा कि यह कोई कारगर नुस्खा हो सकता है। वहां मौजूद सभी लोगों का भी यही सोचना था। लेकिन दुस्सह वेदना के कारण सामूतिरिप्पाड ने सोचा कि इसे भी आजमाकर देख लेता हूं, इसमें नुकसान ही क्या है? और उन्होंने वैसा ही किया। एक तौलिए को पानी में भिगोकर उसे निचोड़कर दाएं कंधे पर रखा। तब उस विद्वान के कहे अनुसार वेदना तुरंत दूर हो गई और सामूतिरि बिलकुल स्वस्थ हो गए। सामूतिरि ने उस विद्वान को हीरे का हार आदि अनेक कीमती उपहार देकर प्रसन्नतापूर्वक विदा किया। कुछ समय बाद इसका समाचार दीवान जी को मिला। अत्यंत स्वामिभक्त एवं बुद्धिमान उस दीवान को यह सब जानकर बहुत अधिक दुख हुआ। उन्होंने तुरंत कहा, "हे भगवान! यह तो अनर्थ हो गया!" और वे उसी समय वहां से निकल पड़े। किसी को खोजते-खोजते, वे राज्य भर घूमते रहे और अंत में शाम होने तक कोषिक्कोड की मंडी के बीच में पहुंच गए। वहां उन्होंने एक सर्वांगसुंदरी स्त्री को खड़े देखा। वे तुरंत उसके पास गए और विनीत स्वर में उससे बोले, "मुझे आपसे एक अत्यंत आवश्यक और रहस्यपूर्ण बात कहनी है।" तब स्त्री ने कहा, "जो भी हो कह दीजिए।" तब दीवानजी घबराहट जतलाते हुए बोले, "मैं भी कैसा भुलक्कड़ हूं। मैं अपनी मुहर कचहरी में भूल आया हूं। उसे लेकर मैं अभी आया। तब तक आप कृपा करके यहीं खड़ी रहें। मुझे आपसे एक अति महत्वपूर्ण बात कहनी है। मुहर लेकर आने पर कहूंगा। मेरा आग्रह है कि उसे सुनने के बाद ही आप यहां से जाएं।" स्त्री ने कहा, "आपके लौटने तक मैं यहीं रुकती हूं।" दीवानजी ने कहा, "इस प्रकार सहज ही कह देना पर्याप्त नहीं। कृपा करके शपथ लेकर कहें कि मेरे लौटने तक आप यहीं खड़ी रहेंगी।" इस प्रकार बाध्य किए जाने पर उस स्त्री ने शपथ ली और उसके बाद दीवानजी वहां से चले गए।

तुरंत दीवानजी अत्यंत परेशान होकर सामूतिरिप्पाड के पास पहुंचे और उनसे बोले, "अब आपका दर्द कैसा है?" सामूतिरी ने कहा, "अब मैं बिलकुल ठीक हूं। इलाज का सारा विवरण तो आपने सुना ही होगा। इलाज बताने वाला एक योग्य व्यक्ति ही है। इसमें संदेह नहीं।" तब दीवानजी ने कहा, "योग्य तो वह है ही। उसने सब अनर्थ कर डाला। आपने भी बिना सोचे उसके कहे अनुसार करके बड़ी मुसीबत मोल ले ली है। अब उसके बारे में बोलकर और चिंतित होकर कोई फायदा नहीं। यदि आपको अपनी वेदना का कारण ज्ञात होता, तो आप उसे दूर करने की चेष्टा कभी नहीं करते। इस राज्य में ऐश्वर्य दिन दूना रात चौगुना इसीलिए बढ़ रहा है कि आपमें लक्ष्मीदेवी का वास है। महालक्ष्मी आपके दाहिने कंधे पर नृत्य किया करती थीं। इसीलिए आपको वहां दर्द होता था। गीला कपड़ा दाहिने कंधे पर लगाने से बढ़कर अमंगलकारी बात और कोई नहीं है। ऐसा करने पर करने वाले की देह से लक्ष्मी भगवती तुरंत चली जाती हैं और उनका स्थान ज्येष्ठ भगवती ले लेती हैं। यह तथ्य उस विद्वान को पता था। इसीलिए उसने ऐसा उपाय बताया। यह सब अब कह कर क्या फायदा? लक्ष्मीदेवी को इस राज्य में ही रोक रखने के लिए मैंने एक उपाय किया है। अब मेरा जीना संभव नहीं है।" यों कहकर दीवानजी सामूतिरिप्पाड के सामने से चले गए और घर जाकर आत्महत्या कर ली। दीवानजी ने उस स्त्री से उनके आने तक बाजार में ही खड़े रहने की शपथ ली थी, इसलिए उसके लिए वहां से जाना संभव नहीं था। वह स्त्री साक्षात लक्ष्मीदेवी ही थीं। अब भी वे उसी बाजार में खड़ी हैं, ऐसा ही लोग मानते हैं। चूंकि कोषिक्कोड के बाजार में ऐश्वर्य की आज भी निरंतर वृद्धि हो रही है, और शाम के वक्त वहां एक दैवीय आभास मिलता है, इसलिए ऐसा ही लगता है कि इस किंवदंती में कुछ सत्यांश है।

दीवानजी के समझाने पर सामूतिरि को बात की गूढ़ता स्पष्ट हुई और वे अत्यंत खिन्न हुए और उन्हें गहरा पश्चात्ताप हुआ, पर "अतीतकार्यानुशयने किम्स्यादशेषविद्वज्जनहपबिकेन्?" इस घटना के घटित होने के कुछ ही दिनों में सामूतिरिप्पाड के हाथों से राजलक्ष्मी (राजपाट) छिन गई और दूसरे के हाथ चली गई।

(समाप्त। अब नई कहानी।)

1 Comment:

Smart Indian said...

इस कथा के कई नवीन (urban legend) संस्करण हिन्दी ब्लोग्स में जहां तहां पढ़े थे. मूल कथा की प्रस्तुति के लिए आभार!

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