(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
तिरुनक्करा देव का चैतन्य और ख्याति आशातीत रूप से बढ़ जाने से वहां अनेक रीती से पूजा-अर्चना होने लगी। हर रोज पांच-छह चतुर्श्शतम और आठ-दस पंदिरुनाष़ी पूजा होने लगीं। इसलिए पुजारी के लिए इन सबको अकेले संभालना असंभव हो गया। तब पारेप्परंबू नंबूरी ने तिरुनक्करा से तीन कोस दूर पूर्व में स्थित ‘माङानम’ नाम के देश से ‘मडिप्पल्ली’ नामक घराने के एक नंबूतिरी को भी अधीनस्थ पुजारी के रूप में रख लिया। इस तरह वे दोनों मिलकर कुछ वर्षों तक मंदिर में पुरोहिताई करते रहे। इन दो व्यक्तियों में आमदनी के बंट जाने के बावजूद पारेप्परंबु नंबूतिरी के हिस्से में इतना सारा धन आ गया कि उसकी सारी गरीबी दूर हो गई। इतना ही नहीं, वे अच्छे खासे संपन्न व्यक्ति बन गए। इसलिए मंदिर में पुरोहिताई का काम मडिप्पल्ली नंबूतिरी के हाथों में पूर्णतः सौंपकर वे अपने देश वैक्कम लौट गए और वहीं स्थायी रूप से रहने लगे। लेकिन महीने में एक दिन वे तिरुनक्करा मंदिर आकर वहां की पूजा का नेतृत्व करते रहे। उनके गुजर जाने के बाद उनके घराने का सबसे वरिष्ठ सदस्य यह दायित्व पूरा करने लगा। आज भी ऐसा ही हो रहा है।
जब मडिप्पल्ली नंबूतिरी तिरुनक्करा मंदिर की पुरोहिताई संभाले हुए थे, तब भी मासिक उत्सव की घोषयात्रा का संचालन पूर्व-निश्चित परिपाटी के अनुसार पारेप्परंबू घराने का वरिष्ठ व्यक्ति ही करता था। एक बार इस वरिष्ठ व्यक्ति और तेक्कुमकूर राजवंश के बीच किसी कारण को लेकर वैर ठन गया और राजा ने उसे गोली मार देने का आदेश जारी कर दिया। पर जिसे यह आदेश मिला था, उस भृत्य ने मडिप्पल्ली नंबूतिरी को ही पारेप्परंबु का वरिष्ठ सदस्य समझकर उसे गोली से उड़ा दिया। इससे संत्रस्त होकर मडिप्पल्ली नंबूतिरी की पत्नी ने तिरुनक्करा देव के सामने ही आत्म हत्या कर ली। उसके इस तरह प्राण त्याग देने के साथ ही उस नंबूतिरी का खानदान भी निश्शेष हो गया। इस दुखद घटना के बाद से इस मंदिर में ऐसा नियम बना दिया गया कि उसकी दीवारों के भीतर स्त्रियों को प्रवेश नहीं दिया जाएगा। एक अन्य नियम भी बना दिया गया कि मंदिर के उत्सव की घोषयात्रा का संचालन पुजारी के परिवार का ज्येष्ठ सदस्य नहीं करेगा, बल्कि कोई कनिष्ठ सदस्य ही करेगा। इन दोनों नियमों का पालन आज भी इस मंदिर में होता है।
ऐसा कहा जाता है कि तिरुनक्करा देव के सांड़ के शरीर पर कुछ वर्षों में फोड़े फूट निकलते थे, और इन वर्षों में तेक्कुमकूर देश में कोई न कोई बड़ी विपत्ति आ जाती थी। सुना है कि जिन वर्षों में तेक्कुमकूर के राजाओं का स्वर्गवास हुआ था, यथा 933, 973, 986, 990, 1004,1022, 1036, और 1055 के वर्ष, उन सब वर्षों में सांड़ के शरीर पर फोड़े निकले थे। जिन वर्षों में सांड़ के फोड़े निकल आते थे, उन वर्षों में कुछ निराकरणात्मक पूजाएं मंदिर में कराई जाती थीं, और लोगों का मानना था कि इससे विपत्ति टल जाती थी। इन पूजाओं के लिए तेक्कुमकूर की सरकार की ओर से हजारों रुपए खर्च किए जाते थे। शायद आजकल लोगों में पहले जैसी परिष्कृतता न होने से और उनमें इस तरह की बातों में आस्था कम हो जाने से अथवा अन्य कारणों से अभी हाल के वर्षों में सांड़ के फोड़े निकलने की घटनाएं देखने में नहीं आ रही हैं और ऐसा ही लगता है कि अब आनेवाले वर्षों में भी इसकी कोई संभावना नहीं है।
(समाप्त। अब नई कहानी।)
23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 1
23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 2
28 जून, 2009
23. तिरुनक्करा देव और उनका सांड़ - 3
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3 Comments:
पहले के जमाने में भूत, प्रेत, चुड़ैल और चमत्कारी बातें बहुत सुनाई और दिखाई देती थीं क्यों कि लोग उनमें भरोसा करते थे। अब नह्वीं दिखतीं क्यों कि लोगों ने भरोसा करना छोड़ दिया।
अब आगे क्या है?
कहानी पढने मै बहुत रोचक लगी.
धन्यवाद
गजब. आस्था कम होने से सांड के शरीर में फोड़ा निकलना ही बंद हो गया.
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