(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)
उन दिनों केरल भर के एकछत्र राजा चेरमानपेरुमाल का यह विचार था कि भगवती का एक देवालय बनवाना चाहिए, और वैकम के उदयनाथपुरम में भी सुब्रमण्यम के लिए एक मंदिर बनाना चाहिए। तदनुसार उन्होंने आजकल कुमारनेल्लूर कहे जानेवाले स्थान में भगवती के लिए और वैकम के उदयनाथपुरम में सुब्रमण्यम के लिए एक-एक भव्य मंदिर बनवा दिया और उनके भरण-पोषण के लिए विपुल व्यवस्था करने के बाद वे उनमें प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए शुभ मुहूर्त का इंतजार कर रहे थे। जिस मंदिर में वह पुजारी जाकर सोया था, वह चेरमान पेरुमाल द्वारा कुमारस्वामी (सुब्रमण्यम) की प्रतिष्ठा करने के लिए बनवाया गया मंदिर ही था। जब सुबह पुजारी की नींद खुली तो चारों ओर के नजारे से वह बहुत विस्मित हुआ और मंदिर की भव्यता देखकर बोल पड़ा, “यह कैसा आश्चर्य है!” तब उसकी नजर गर्भगृह की ओर गई और उसने देखा कि कल रात उसके आगे-आगे जो दिव्य स्त्री भागी चली गई थी, वह सुब्रमण्यम के लिए बनाए गए चबूतरे पर विराजमान है। वह साक्षात मुदुरैमीनाक्षी देवी ही थी, यह कहना तो आवश्यक नहीं है।
तब उस ब्राह्मण ने मंदिर से बाहर निकल आकर वहां उसे मिले सभी लोगों को बुला बुलाकर कहा कि देखो इस देवालय में मदुरै मीनाक्षी आ गई हैं। यह सुनकर सब लोग मंदिर के गर्भगृह में जाकर देख आए। उन्हें वहां कुछ नहीं दिखा। वे सब यही पूछने लगे, “कहां बैठी हैं वह?” तब उस पुजारी ने उंगली से इशारा करते हुए कहा, “यह तो रही वह, गर्भगृह के चबूतरे पर।“ पर देवी केवल उस ब्राह्मण को दिखाई दे रही थी, और बाकी सबके लिए वह अदृश्य थी। इसलिए उन सबने कहा, “लगता है यह ब्राह्मण सठिया गया है, बे सिर पैर की हांक रहा है,” और वे उसे चिढ़ाने लगे। यह सब समाचार कानों-कान चेरुमान पुरमाल तक पहुंच गया और वे अपनी आंखों से सब कुछ देखने परखने के लिए वहां आ गए। उन्हें भी देवी नहीं दिखी, और वे ब्राह्मण से बोले, "यहां तो कुछ भी नहीं दिख रहा।“ तब ब्राह्मण ने कहा, “मुझे छूते हुए देखिए।“ जब चेरुमान पेरमाल ने उस ब्राह्मण को छूते हुए देखा, तो उन्हें सचमुच देवी गर्भगृह के अंदर चबूतरे पर बैठी हुई दिखी। उसके बाद चेरुमान पेरुमाल ने देवी के इस तरह वहां आ धमकने का कारण सब उस ब्राह्मण से पूछा और उस ब्राह्मण ने जो कुछ भी उसके साथ घटा था, वह सब राजा को विस्तार से बता दिया। जब राजा को सब बातें मालूम हो गईं, तो उन्हें आश्चर्य और विस्मय तो हुआ ही, ब्राह्मण पर पूर्ण विश्वास भी हो गया। लेकिन उन्हें थोड़ा क्रोध और इच्छाभंग की अनुभूति भी हुई। वे सोचने लगे, “मैंने सुब्रमण्यम की प्रतिष्ठा के लिए जो मंदिर बनवाया उसमें सुब्रमण्यम की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी और यह देवी बिन बुलाए ही उसमें आ जमी। इस बत्तमीज देवी के लिए मैं कुछ भी नहीं करूंगा, न ही उसके देवालय के रखरखाव के लिए ही कुछ व्यवस्था करूंगा। यदि उसमें इतना ही पराक्रम है, तो वह स्वयं ही इन सबका बंदोबस्त कर ले। मैंने जो मुहूर्त निश्चय किया है उसमें मैं सुब्रमण्यम की प्रतिमा की प्रतिष्ठा अवश्य करूंगा, लेकिन अब मुझे वह देवी प्रतिष्ठा के लिए जो स्थल चुना था, वहां करना पड़ेगा। यह लो, मैं अभी ही वैकम के लिए प्रस्थान करता हूं। यह यहीं बैठी रहे।" यों सोचते हुए वे राजा उसी वक्त वहां से चले भी गए।
अभी चेरुमान पेरुमाल उत्तर दिशा में पांच कोस भी नहीं गए थे कि वह सारा प्रदेश अत्यंत घने और भीषण कुहरे से ढंक गया। राजा को और उनके साथ मौजूद व्यक्तियों को कुछ भी दिखना बंद हो गया। चूंकि उन्हें यह समझ नहीं पड़ रहा था कि रास्ता कहां है, उन सबको वहीं रुक जाना पड़ा। तब चेरुमान पेरुमाल के एक सहायक ने कहा, "हम पर यह जो विपत्ति आ पड़ी है, लगता है वह उस देवी की माया वैभव के ही कारण है। अन्यथा इस समय ऐसे कोहरे के आने का कोई वजह नहीं है। उस देवी का माहात्म्य बहुत अधिक प्रतीत होता है। उस देवी और उस ब्राह्मण के यहां आ पहुंचने के प्रसंग से ही यह बात स्पष्ट है। इसलिए मुझे लगता है कि हम सबको लौट जाना चाहिए और वहां सब व्यवस्था कर देनी चाहिए।“ यह सुनकर चेरुमान पेरुमाल बोले, “यदि यह सचमुच उस देवी के माया वैभव का फल है तो इसी क्षण हमें दिखने लगे, यदि ऐसा होता है, तो यहां से जो सब प्रदेश दिखाई देता है, वह सब प्रदेश मैं उस देवी को दे देने को तैयार हूं। इतना ही नहीं वहां जो कुछ भी जरूरी हो, वह सब भी कर दूंगा।" तुरंत ही कुहरा छंट गया और सब लोगों को सब कुछ पहले जैसे ही दिखने लगा। यह देखकर चेरुमान पेरुमाल ने उसी क्षण घोषित कर दिया कि वह सब प्रदेश उन्होंने उस देवी के हवाले कर दिया है, और वहां से लौट चले। कोहरे से भर गए उस देश को मंञ्ञूर (कोहरे को मलयालम में मंञु और प्रदेश को ऊर कहते हैं) कहा जाने लगा जो बाद में माञ्ञूर हो गया। आज भी माञ्ञूर कहा जानेवाला सारा प्रदेश कुमारनेल्लूर देवी की ही बनी हुई है।
इस घटना के बाद चेरुमान पेरुमाल उस स्थान को लौट आए जहां उन्हें देवी का सान्निध्य प्राप्त हुआ था। वहां उन्होंने देवी की प्रतिष्ठा कराने का निश्चय किया और इसके लिए आवश्यक सब व्यवस्था करने के लिए वहीं रुक गए। यहां प्रतिष्ठा करने के लिए सुब्रमण्यम की जो प्रतिमा उन्होंनं बनवाई थी, उसे उदयनाथपुरम भिजवा दिया और देवी विग्रह को यहां ले आने का आदेश जारी किया।
जब विग्रह प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकट आने लगा, तो राजा को यह सूचना मिली कि उदयनापुरम से देवी की प्रतिमा समय पर यहां नहीं पहुंच पाएगी। यह सुनकर उनकी बहुत ही विषम स्थिति हो गई। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया कि अब क्या किया जाए। नई प्रतिमा बनवाने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं था। यदि इसी मुहूर्त पर विग्रह प्रतिष्ठा नहीं की गई तो मान-हानि तो होगी ही, उन्होंने इस समारोह के लिए जो भारी द्रव्य खर्च किया था, वह भी सब व्यर्थ चला जाएगा। इतना ही नहीं, इतना बढ़िया और इतना शुद्ध मुहूर्त अब कई दिनों तक न मिल पाने की संभावना भी प्रबल थी। यह सब सोचकर चेरुमान पेरुमाल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।
उस रात जब चेरुमान पेरुमाल सो रहे थे, तब उन्हें एक सपना दिखाई दिया जिसमें किसी ने उनके पास आकर कहा, “आप बिलकुल चिंता न करें। यहां से उत्तरपूर्वी दिशा में दो कोस की दूरी पर जंगल में एक पुराना कुंआ है। उस कुंए में मेरी एक अच्छी प्रतिमा पड़ी है। उसे बाहर निकालकर यहां प्रतिष्ठित कर दीजिए।“ सुबह उठने पर चेरुमान पेरुमाल ने निश्चय किया कि यह पता लगाना जरूरी है कि यह सपना सही है या नहीं, और दलबल के साथ उत्तरपूर्वी दिशा में पर्वत चढ़ने लगे। वहां सब घना जंगल था। राजा को जंगल काटकर साफ करते हुए आगे बढ़ना पड़ा। यों कुछ दूर जाने पर उन्हें एक कुंआ मिला। उसमें आदमी उतारा गया। तब उनहें बिना किसी प्रकार की खोट वाली देवी की एक सुंदर मूर्ति उस कुंए से मिली। चेरुमान पेरुमाल उस श्रेष्ठ मूर्ति को सावधानीपूर्वक उठवाकर मंदिर ले आए और शुभ मुहूर्त में उसकी प्रतिष्ठा करवा दी, लेकिन कुमार (सुब्रमण्य) स्वामी की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने जो भव्य मंदिर बनवाया था, उसका नाम पहले के उनके निश्चय के अनुसार कुमारनेल्लूर ही रहने दिया। इसके बाद चेरुमान पेरुमाल ने सारे माञ्ञूर प्रदेश से अपनी सत्ता हटा ली, और उस प्रदेश को देवी के हवाले कर दिया। वहां से जाने से पहले मंदिर में नित्य पूजा, मासिक पूजा, उत्सव आदि की पूरी व्यवस्था कर दी। इन सबके लिए उन्होंने पर्याप्त द्रव्य सामग्री और नियमावलियां और परिपाटियां निश्चित कर दीं। उन्होंने एक देवस्वम की स्थापना की और उसका संचालन उस प्रदेश के कुछ नंबूतिरी घरानों के हाथों में सौंप दिया। इस तरह कुमारनेल्लूर एक समुदाय-शासित देवालय में बदल गया।
चेरुमान पेरुमाल ने तय किया था कि कुमारनेल्लूर में तुला माह की रोहिणी से लेकर वृच्छी माह की रोहिणी तक इक्कीस दिनों का उत्सव मनाया जाएगा। उस मंदिर के माञ्ञूर के नंबूतिरियों के हाथों में आ जाने के कई वर्षों तक इस परिपाटी का पालन होता रहा। बाद में उत्सव के दिनों को थोड़ा घटाकर वृच्छी माह के कार्ती के नौवें दिन से शुरू करके दस दिनों का कर दिया गया। आज भी वहां दस दिनों का उत्सव ही होता है। देवी के माहात्म्य और शक्ति के कारण उस मंदिर की अभिवृद्धि निरंतर होती गई। आज भी यही हाल है। यही कहा जाता है कि देवालय का संचालन यदि कोई देवी करे, तो वह अवगुण युक्त माना जाएगा। लेकिन कुमारनेल्लूर इसका स्पष्ट अपवाद प्रतीत होता है। उस भगवती के कारनामों का यदि वर्णन शुरू किया जाए तो उसका अंत ही नहीं होगा। आज भी उस मंदिर में देवी सान्निध्य देखा जा सकता है।
देवी के साथ मदुरै से जो ब्राह्मण चला आया था, उसके वंशज आज भी कुमारनेल्लूर में हैं। उन्हें मदुरै नंबूतिरी कहा जाता है।
22. कुमारनेल्लूर भगवती - 1
(समाप्त। अब नई कहानी।)
24 जून, 2009
22. कुमारनेल्लूर भगवती - 2
लेबल: कुमारनेल्लूर भगवती
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3 Comments:
क्या बात है, बहुत सुंदर कहानी
धन्यवाद
स्थापित मंदिरों के साथ कहानियां होना सामान्य बात है। कुछ तो प्रभाव होता ही है। राजा ने देवी से कहा खुद कर लेना व्यवस्था और देवी ने राजा को मजबूर कर दिया। कुछ तो खास है ही उस मंदिर में। कभी मौका मिला तो देखने जाउंगा।
कहानी के लिए आभार।
'माञ्ञूर' कैसे पढ़ें?
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