(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
जब वररुचि अपने घर सुखपूर्वक रह रहे थे, एक दिन उन्हें यात्रा के दौरान भोजन के लिए एक ब्राह्मण के घर रुकना पड़ा। ब्राह्मण ने कहा, "जल्दी स्नान आदि से निपटकर आ जाइए। यहां भोजन का समय हुआ ही जाता है।" तब वररुचि ने इस ब्राह्मण की बौद्धिक शक्ति की परीक्षा लेने के इरादे से यों कहा, "मैं आपके यहां तभी भोजन कर सकता हूं जब आप मेरी कुछ शर्तों का पालन कर सकें। क्या आप मेरी शर्तों को पूरा कर सकेंगे? इसका उत्तर जानकर ही मैं स्नान आदि के लिए जाऊंगा।'
ब्राह्मणः- आपकी शर्तें क्या हैं? यदि संभव हुआ तो हम उन्हें अवश्य पूरा करेंगे।
वररुचिः- बस यही कि स्नान के बाद पहनने के लिए वीरवालिपट्टु चाहिए। सौ लोगों को भोजन कराने के बाद ही मैं भोजन करूंगा। इतना ही नहीं, मेरे भोजन में १०८ प्रकार के व्यंजन होने चाहिए। भोजन के बाद मुझे तीन लोगों को खाना होगा और चार लोगों को मुझे उठाए रखना होगा। ये ही मेरी शर्तें हैं।
यह सुनकर ब्राह्मण का सिर चकरा गया और वह बिना कुछ बोले हतप्रभ-सा खड़ा रहा। तभी भीतर से एक कन्या की आवाज आई, "पिताजी, आप बिलकुल चकित न हों। इन सब शर्तों की यहां व्यवस्था हो जाएगी, अतिथि को स्नान करके आने को कहिए।" ब्राह्मण ने ऐसा ही किया, पर वररुचि के जाने के बाद उसने अपनी लड़की को बुलाकर पूछा, "बेटी, तूने ऐसा क्यों कहा?" तब उस कन्या ने उत्तर दिया, "सब हो जाएगा, पिताजी। यह सब उतना मुश्किल नहीं है। अतिथि महोदय के कथन का सार आपकी समझ में नहीं आया इसलिए आप चकित हुए।
"वीरवालिपट्टु से तात्पर्य नहाने के बाद पहनने के लिए एक चिरी हुई लंगोटी से है। सौ लोगों को भोजन कराने का अर्थ है कि वे वैश्वदेव (वैश्वम) की पूजा करना चाहते हैं, जिससे सौ देवाताओं को तृप्त करने का फल मिलता है। एक-सौ आठ प्रकार के व्यंजनों का आशय अदरक की चटनी से है। भोजन में अदरक हो तो उससे १०८ प्रकार के व्यंजन खाने का फायदा होता है। भोजन के बाद तीन लोगों को खाने से पान, सुपारी और चूने की ओर इशारा है। (लगता है उन दिनों तंबाखू ज्ञात नहीं था।) चार लोगों द्वारा उठाए जाने का अर्थ है कि वे भोजन के बाद कुछ देर सोने के लिए एक पलंग चाहते हैं। पलंग पर लेटे होने पर शरीर का भार उसके चार पैरों द्वारा उठाया जाता है। बस उनकी फरमाइश इतनी ही है। इसे पूरा करना कौन बड़ी बात है?"
यह सुनकर ब्राह्मण अत्यंत प्रसन्न हुआ और अपनी लड़की की बुद्धि पर विस्मित हुआ। "तब फिर बेटी, सब चीजों का प्रबंध कर", यह कहकर उसने लड़की को विदा किया।
जब वररुचि स्नानादि से निपटकर आए तो पहनने के लिए एक चिरी हुई लंगोटी और वैश्वम की पूजा के लिए हविष्य, फूल, चंदन आदि सभी आवश्यक सामग्री मौजूद थी। भोजन में अदरक की चटनी भी तैयार की गई थी। भोजन के बाद खाने के लिए पान के बीड़े में पान, सुपारी और चूना रखा हुआ था। वररुचि ने वैश्वम की पूजा समाप्त करके भोजन किया और पान खाकर पलंग पर आकर लेट गए। उनकी कूट शर्तों का मर्म समझकर उनके अनुसार सभी चीजों की व्यवस्था करने के पीछे ब्राह्मण की कुशाग्रबुद्धि कन्या ही थी, यह समझने में वररुचि को देर नहीं लगी और उन्होंने यह भी मन ही मन निश्चय किया कि जो भी हो इस कन्या से ही विवाह करना चाहिए। अधिक विस्तार करना व्यर्थ है। वररुचि ने अपने मन की बात ब्राह्मण से कही और उसने इसकी अनुमति दे दी और बिना विलंब एक शुभ मुहूर्त में उस कन्या से विवाह करके वररुचि उसके साथ अपने घर लौट आए।
जब वे दोनों पति-पत्नी सुखपूर्वक अपने घर रह रहे थे, तब एक दिन भोजन आदि के बाद दोनों वार्तालाप करने लगे और वररुचि ने अपनी पत्नी के बालों को प्रेमपूर्वक अपने हाथों में लेकर उनकी चोटी गूंथी। तब उन्होंने पत्नी के सिर के बीचों-बीच एक घाव का निशान देखा और उसके बारे में उससे पूछा। वह बोली, "मेरी मां ने मुझसे एक बार कहा था कि यह एक बत्ती से सिर जल जाने का निशान है। एक दिन जब मेरी मां नदी में नहा रही थीं तब उन्होंने एक छोटी-सी नाव में एक नवजात शिशु को अकेले अपनी ओर आते देखा। वह शिशु मैं ही थी। मेरी मां ने उस नाव को अपनी ओर खींच लिया और मुझे उठाकर अपने घर ले गईं और पाल-पोसकर बड़ा किया। मैं उनकी कोख से जनमी बेटी नहीं हूं।"
तब बुद्धिशाली वररुचि समझ गए कि यह लड़की उसी परयन की लड़की है जिसे उन्होंने ही नाव में रखवाकर नदी में बहा दिया था। उनके मन में कुछ निराशा तो हुई, पर "लिखितमपि ललाटे प्रोञ्छितुं कः समर्थः" वाली बात याद करके उन्होंने भी सारी पूर्वकथा अपनी पत्नी को सुना दी और कहा, "अब हम यहां नहीं रहेंगे, बाकी आयु देशभ्रमण में ही काटेंगे"।
इसके बाद वररुचि पत्नी सहित पैदल ही चल पड़े। उनका भ्रमण-क्षेत्र इसके बाद केरल प्रदेश ही था, यह सूचित कर देने के बाद यह कहना शायद अनावश्यक है कि ये दोनों व्यक्ति केरल के बाहर के प्रदेशों के निवासी थे और ऊपर बताई गई सारी घटनाएं केरल के बाहर घटी थीं।
इस प्रकार से जब वे देशभ्रमण कर रहे थे, तब वररुचि की पत्नी गर्भवती हुई। जब गर्भकाल पूरा हो गया और प्रसव-पीड़ा आरंभ हुई तो वररुचि ने अपनी पत्नी से जंगल में जाकर बच्चा जन्म कर आने को कहा और आप मार्ग के किनारे इंतजार में बैठ गए। उनकी पत्नी जंगल में गई और तुरंत बच्चे को जन्म दे दिया। बच्चे को हाथ में लेने या अन्य प्रकार से सहायता करनेवाला वहां कोई नहीं था, यह कहने की क्या आवश्यकता है? "जिसका कोई नहीं उसका सहारा भगवान" कहावत भी प्रसिद्ध है। प्रसव के बाद वररुचि ने पूछा, "बच्चे का मुंह है या नहीं?" "हां हैं।" उसकी पत्नी ने जवाब दिया। "मुंह है तो भगवान ने उसके खाने का भी प्रबंध निश्चय ही किया होगा। इसलिए बच्चे को साथ लेने की जरूरत नहीं।" यह कहकर वररुचि बच्चे को वहीं छोड़कर पत्नी सहित वहां से चल दिए। प्रसव के बाद आराम, दवा-दारू या पौष्टिक आहार कुछ भी उस स्त्री को मयस्सर नहीं हुआ। जंगल के कंद-मूल और भिक्षा में प्राप्त थोड़े-बहुत अन्न से ही उसे संतोष करना पड़ा। पर इससे उस पतिव्रता को कोई हानि भी नहीं हुई।
इस प्रकार अनेक स्थानों पर उसने ग्यारह बच्चों को जन्म दिया। सभी बच्चों को जंगल में ही छोड़ भी दिया। इन ग्यारहों बच्चों को ब्राह्मण सहित ग्यारह जातियों के व्यक्तियों ने ले जाकर पाला-पोसा।
जब बारहवें बच्चे के जन्म का समय आया तो उस साध्वी ने सोचा, "अहो दुर्भाग्य! ग्यारह बच्चों को जनने के बावजूद मेरे पास आज एक भी बच्चा नहीं है। जब इस बार बच्चा होने पर पति पूछेंगे कि "बच्चे का मुंह है या नहीं?" तो मैं जवाब दूंगी कि नहीं है। तब शायद वे मुझे बच्चे को पालने देंगे। बाद में मैं उन्हें किसी प्रकार मना लूंगी। यह तय करके जब शिशु का जन्मकाल समीप आया और जब बच्चे के पैदा होने पर पति ने पूछा कि "बच्चे का मुंह है?" तो उसने जवाब दिया, "नहीं है।" तब वररुचि ने बच्चे को साथ ले जाने की अनुमति दे दी। तुरंत उस नवजात बच्चे को लेकर दोनों चल पड़े। कुछ समय बाद सचमुच उस बच्चे का मुंह गायब हो गया क्योंकि विशिष्टतायुक्त साध्वियों का कथन कभी झूठा नहीं निकलता। वररुचि ने उस बच्चे को एक पहाड़ी के ऊपर ले जाकर वहीं प्रतिष्ठित कर दिया। इसी को "वायिल्लाकुन्निलप्पन" (बिना मुंहवाला पहाड़ी देवता) कहते हैं। इस तथा अन्य ग्यारह संतानों को "परयिपेट्ट पंदिरमकुलम्" यानी "परयी की कोख से जनमे बारह व्यक्तियों का कुल" कहा जाता है। इन सबके नामों का उल्लेख करनेवाला एक श्लोक मैं नीचे लिखता हूं:-
मेष(ल)त्तेलग्निहोत्री रजकनुलियनूरत्तच्चनुम पिन्ने वल्लोन
वायिल्लाकुन्निलप्पन वडुतल मुरुवुम्
नायर कारय्खल माता
चेम्मे केलुप्पुकूट्टन पेरिय तिरुवरंगत्तेषुम् पाणनारुम
नेरे नाराणभ्रांतनुम मुडनकवूर
चाथनुम् पाक्कनारुम्।
(इस श्लोक में आए बारह नाम इस प्रकार हैं:- १. मेलत्तोल के अग्निहोत्री, २. रजकन, ३. नुलियनूर के अच्चन, ४. वल्लोन, ५. वल्लोन के वायिल्लाकुन्निलप्पन, ६. वडुतल मरु नायर, ७. कारय्खल माता, ८. केलुप्पुकूट्टन, ९. पेरियतिरुवरंगम के पाणनार, १०. नारायणत्तुभ्रांतन, ११. मुडनकवूर का चाथन, और १२. पाक्कनार।)
ये केरल के विभिन्न स्थानों में निवास करते थे। पर बाल्यकाल समाप्त होने पर इन्हें मालूम हो गया कि ये एक-दूसरे के भाई-बहन हैं और इनमें परस्पर बड़ा प्रेम था। इनके दिव्यत्व तथा चमत्कारपूर्ण कृत्यों की कथाएं अनगिनत हैं।
27 अप्रैल, 2009
६. परयी से जनमा पंदिरम कुल - 2 : वररुचि का विवाह और दांपत्य जीवन
लेबल: परयी से जनमा पंदिरम कुल
Subscribe to:
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 Comments:
कथा बहुत गूढ़ और सुंदर है। पर लगा कि पहले पढ़ चुका हूँ।
अति सुन्दर।
Post a Comment