19 अप्रैल, 2009

४. भर्तृहरि

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

भर्तृहरि के संबंध में एक मान्यता यह है कि वे शुरू से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते आ रहे थे, और दूसरी मान्यता के अनुसार उन्होंने विवाह किया था और अल्पकाल तक गृहस्थाश्रम में रहने के पश्चात विरक्त हुए और संन्यासाश्रम में प्रवेश किया। ऐहिक सुखों की उपेक्षा करके इनके वैरागी होने के पीछे एक अन्य कारण भी कुछ लोग बताते हैं, जिसकी मैं यहां चर्चा करूंगा।

जब भर्तृहरि अपनी पत्नी के साथ स्वगृह में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब एक दिन एक योगी अचानक उनके घर आया और भर्तृहरि को एक पका हुआ आम देकर बोला, "इसे खाने से जराजीर्ण हुए बिना सदा जीवित रहा जा सकता है। आप सभी प्रकार की योग्यताओं से पूर्ण तथा सौभाग्यवान हैं। आपको लोकहितार्थ सदा जीवित रहना चाहिए। इसीलिए मैं आपको यह दिव्य आम भेंट कर रहा हूं।" इतना कहकर वह योगी चला गया।

योगी के चले जाने के बाद भर्तृहरि सोचने लगे, "कुछ वर्षों में ही मेरी प्रिय पत्नी वार्धक्य की चपेट में आकर जराजीर्ण होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी। उसके मरने के बाद मेरा जीवन निरर्थक हो जाएगा। इसलिए यह आम मुझे उसी को देना चाहिए। वह सदा जिए।" इस निष्कर्ष पर पहुंचकर भर्तृहरि ने आम अपनी पत्नी को दे दिया और उसे उसका महात्म्य समझा दिया। जिस पत्नी को भर्तृहरि असाधारण रूप से प्यार करते थे और जिसे वे पतिव्रताशिरोमणि मानते थे, उसका एक प्रेमी था। यह और कोई नहीं भर्तृहरि ही का अश्वपाल (सईस) था। आम हाथ में आ जाने और उसका माहात्म्य जान लेने के बाद उस परपुरुषगामी स्त्री ने सोचा,"अपने प्रेमी के न रहने के बाद मेरा जीना व्यर्थ होगा। वह हमेशा जिए।" उसने चुपचाप अपने प्रेमी को बुलवाया और उसे आम देते हुए उसके माहात्म्य के बारे में बताया। उस सईस ने सोचा, "अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद मैं कैसे जी सकता हूं? वह हमेशा जिए।" और उसने आम अपनी पत्नी को दे दिया। सईस की पत्नी भर्तृहरि के ही घर में झाड़ू-पोंछे का काम करने के लिए नियुक्त थी। वह इस काम को समाप्त करके घर लौट ही रही थी कि उसके पति ने आकर उसे वह दिव्य आम दिया और उस फल के गुणों के बारे में उसे अवगत कराया। इसी समय भर्तृहरि भी बाहर के किसी काम को निपटाकर घर लौट रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाकात सईस की पत्नी से हुई। उस स्त्री के हाथ में उन्होंने वह दिव्य आम देखा जिसे उन्होंने कुछ समय पहले अपनी पत्नी को दिया था। उस स्त्री को रोककर भर्तृहरि ने पूछा, "तुझे यह आम कहां से मिला?" उत्तर में नौकरानी ने कहा, "मेरे पति ने मुझे दिया" और अपने रास्ते चली गई।

घर पहुंचकर भर्तृहरि ने अपने सईस को बुलाकर उससे जवाब-तलब किया कि उसे वह आम कैसे मिला। पहले तो उसने बात टालने की चेष्टा की लेकिन जब भर्तृहरि ने उसे बहुत धमकाया तब उसने सच्ची बात उगल दी। इसे सुनककर भर्तृहरि को गहरा मानसिक आघात पहुंचा, जो स्वाभाविक ही है। "अहो दुर्भाग्य! मैं इसी कुलटा औरत से असीम स्नेह करता था और उस पर विश्वास रखता था। औरतों का कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। मेरी किस्मत तो देखिए। इसे मेरा ही यह नीच कुल का बदसूरत नौकर पसंद आया। यह आश्चर्य की बात नहीं तो क्या है। यह सईस उसका प्रेमी न होता तो वह इसे वह दिव्य फल क्यों देती? जो भी हो, इसके संबंध में अभी कुछ नहीं कहना चाहिए। आगे का कदम सोच-समझकर उठाना ही उचित होगा।" यह तय करके भर्तृहरि ने सईस को जाने दिया और स्वयं अपने शयनकक्ष में जाकर लेट गए और सोच में डूब गए।

जो कुछ उसके साथ हुआ था उसकी सूचना सईस ने एक दूती के मुंह से भर्तृहरि की पत्नी से कहलवा दिया। जब उस स्त्री को पता चला कि उसके गुप्त प्रेम की सारी बातें उसके पति को मालूम हो गई हैं, वह बेचैन और भयाकुल हो उठी। उसे समझते देर नहीं लगी कि इसका अवश्यंभावी परिणाम उसके प्रेमी के लिए कठोर दंड और उसके लिए बदनामी ही होगा। उसने निश्चय किया कि इन दोनों से बचने के लिए अपने पति का काम तमाम करना ही होगा। तुरंत उसने विष मिलाकर ओट्टप्पम (एक प्रकार का व्यंजन) तैयार किया। उसे लेकर वह भर्तृहरि के पास गई और बनावटी स्नेह जलताते हुए बोली, "भोजन तैयार होने में कुछ समय लगेगा। आपको भूख लगी होगी। इसलिए फिलहाल इसे खा लीजिए।" और ओट्टप्पम भर्तृहरि के हाथ में दे दिया। "गलत रास्ते पर चल पड़ी औरत से बढ़कर दुष्टबुद्धि और किसी की नहीं होती।" यह कहावत तो प्रसिद्ध ही है।

ओट्टप्पम हाथ में लेते हुए भर्तृहरि ने मन ही मन कहा, "यह इसने मुझे मारने के लिए विष मिलाकर बनाया होगा। अब इसके साथ रहना छोड़ना ही पड़ेगा। चारों आश्रमों में सर्वोत्तम, सुखमय तथा क्लेशरहित चतुर्थाश्रम ही है। इसलिए उसी को स्वीकारना चाहिए। मन में यह निश्चय कर लेने के बाद "ओट्टप्पम घर को फूंक देगा" यों कहकर भर्तृहरि ने ओट्टप्प को घर के छप्पर के बीच खोंस दिया और भिक्षा मांगने के लिए मिट्टी का एक बर्तन हाथ में लेकर घर से सदा के लिए निकल पड़े। जैसे ही भर्तृहरि ने अपने घर की सीड़ियां पार कीं, छप्पर में से आग की लपटें उठने लगीं और पूरा घर जलकर राख हो गया।

तत्पश्चात भर्तृहरि संन्यासी बन गए और भिक्षा मांगकर जीने लगे। उन्होंने कई स्थलों की यात्रा की। अंत में उन्हें लगा कि भीख मांगकर जीना उचित नहीं है और लोग स्वेच्छा से जो कुछ दें, उसी पर निर्वाह करना चाहिए। तब वे परदेश के एक बहुत बड़े देवालय के निकट पहुंचे। (कुछ लोगों के अनुसार यह चिदंबरम का देवालय था।) इसके दक्षिणी गोपुरम पर "पट्टणमपिल्लै" के नाम से विख्यात संन्यासी बैठते थे। इसलिए भर्तृहरि पश्चिमी गोपुरम के पास बैठ गए और भिक्षा पात्र अपने सामने रख लिया। उसमें लोग जो कुछ भी डालते, उसे खाकर वे गुजारा करने लगे। बिना खाए ही वे कई-कई दिन रहने के भी आदी हो गए। लेकिन इससे उनके स्वास्थ्य पर कोई बुरा असर पड़ा हो, ऐसा भी नहीं है।

एक दिन एक भिखमंगे ने दक्षिणी गोपुरम पर बैठे पट्टणमपिल्लै से भीख मांगी। तब पट्टणमपिल्लै ने कहा, "मैं भी तुम्हारे ही समान कंगाल हूं। तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। लेकिन पश्चिमी गोपुरम पर एक धनी व्यक्ति बैठे हैं। वहां जाकर मांगो तो कुछ हाथ लग सकता है।" यह सुनकर भिखमंगा तुरंत पश्चिमी द्वार पर पहुंचा और भर्तृहरि से उसने भीख मांगी। तब भर्तृहरि ने कहा, "देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। मैं भी तुम्हारे ही समान निर्धन हूं।" तब भिखमंगे ने कहा, "पट्टणमपिल्लै ने तो कहा था कि पश्चिमी द्वार पर बैठा व्यक्ति धनवान है।" यह सुनने पर भर्तृहरि को विदित हुआ कि भिक्षापात्र रखने के ही कारण पट्टणमपिल्लै ने यह टिप्पणी की है। विरक्त व्यक्ति के लिए अपने पास भिक्षापात्र रखना अनुचित ही नहीं, अनावश्यक भी है। भिक्षापात्र रखने का यही अर्थ निकलता है कि मैं लोगों से भिक्षा मिलने की आशा रखता हूं। पट्टणपिल्लै मेरी इसी कमजोरी की ओर इशारा करना चाहते हैं। "अब कोई इस प्रकार की आपत्ति नहीं उठा पाएगा।" यों कहकर भर्तृहरि ने भिक्षापात्र दूर फेंक दिया। मिट्टी का बना वह पात्र गिरते ही टुकड़े-टुकड़े हो गया। कहते हैं कि इसके बाद भर्तृहरि उसी पावन मंदिर में मृत्युपर्यंत रहे और वहीं रहते हुए अपनी सभी विशिष्ट कृतियों की रचना की।

10 Comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

भर्तृहरि जन जन के हो गए हैं। उन के नाम से प्रत्येक राज्य में कुछ न कुछ मिल जाता है।

P.N. Subramanian said...

मजा आ गया. यह आजकल भी होता ही है.

Anil Kumar said...

"भिक्षापात्र को हाथ में देखकर लोग समझने लगे कि वे भिक्षा की अपेक्षा लेकर वहाँ बैठे हैं" - देखा जाये तो बहुत गूढ़ रहस्य छिपा है इसमें! रोचक प्रसंग, धन्यवाद!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

राजा भर्तृहरि छप्पर के मकान में रहते थे? बात कुछ हज़म नहीं हुई. कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरुष प्रधान समाज में नारी को लांछित करने के लिए यह कथा लिखी गई?

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

गिरिजेश जी: पुराने जमाने में सिमेंट-कंक्रीट-कांच कहां होते थे, मकान लकड़ी-बांस-घास आदि से ही बनाए जाते थे, चाहे वे झपड़ी हों या महल। केरल में पुराने मकान घास के छाजन के ही होते थे। अभी भी ऐसे पुराने मकान केरल के ग्रामीण इलाकों में देखे जा सकते हैं।

Astrologer Sidharth said...

अब जानना शुरु किया है दक्षिण भारत को। कहें तो केरल को। अब तक केवल ओणम का नाम सुना था और इडली डोसा खाया था। भेजे का भोजन तो अब मिलना शुरू हुआ है। :)

RAJ said...
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RAJ said...

इसी से मिलती जुलती कुछ कहानी मैने यहाँ उत्तर भारत की पुस्तकों में भी पढ़ी है ....

क्या यही भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा भर्तृहरि थे ? जैसा की विकिपेडिया मे दिया है......

http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF

Smart Indian said...

बहुत रोचक! साधुवाद!

Pranay Munshi said...

I heard that he belongs to Ujjain City of Madhyapradesh. And still there is cave which is known by his name भर्तृहरि Cave

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