14 अप्रैल, 2009

२. कोट्टयम के राजा

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

ब्रिटिश मलबार के पूर्वी छोर पर स्थित तालुकों में से एक है कोट्टयम। इसी कोट्टयम तालुके में कोट्टयम के राजवंश का निवास है। चूंकि इस वंश के सभी स्त्री-पुरुष सदा विद्याव्यसनी रहे हैं, इस वंश में सभी लोग विद्वान हुआ करते थे। फिर भी एक समय अपवादस्वरूप एक मंदबुद्धि राजकुमार इस वंश में पैदा हुआ। इसी राजकुमार के संबंध में कुछ बताना हमारा यहां अभीष्ट है।

उन दिनों इस राजवंश पर एक राज्य के संचालन का दायित्व था और वंश की सबसे ज्येष्ठ पुरुष संतान यही मंदबुद्धि राजकुमार था। इसलिए राजकुमार के बाल्यकाल से ही उसके विद्याभ्यास की ओर विशेष ध्यान दिया गया, पर कोई खास लाभ न हुआ। राजकाज का बोझ संभालने की जिम्मेदारी अपने ऊपर होते हुए भी हमारा कथानायक मूढ़ का मूढ़ ही बना रहा। यद्यपि वह अत्यंत विदुषी राजमाता की कोख से जनमा था तथा उस सर्वशक्तिमती माता ने अपने बेटे की परवरिश में किसी चीज की कसर न रहने दी थी और सभी कला-विद्याओं के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों से पर्याप्त समय तक पूरी श्रद्धा से शिक्षा दिलवाई थी, तथापि राजकुमार की बौद्धिक क्षमता में जरा भी सुधार नहीं हो सका।

जब यह राजकुमार लगभग सोलह साल का हुआ, तब अयल राज्य के अधिपति कोषिक्कोड के सामूदिरिप्पाड तंबुरान (राजा) का निधन हो गया। इन दोनों राजवंशों में अत्यंत मैत्रीपूर्ण संबंध पुराने जमाने से ही चला आ रहा था। ऐसी विपत्तिपूर्ण स्थिति में तत्काल एक-दूसरे के यहां जाकर व्यक्तिगत रूप से सांत्वना दे आने की पुरानी परिपाटी दोनों राजवंशों में थी। चूंकि दोनों राजवंश अत्यंत शीलवान एवं प्रतिष्ठित थे, ऐसे अवसरों पर परस्पर संभाषण संस्कृत भाषा में ही होता था। इसलिए सामूदिरिप्पाड के निधन का समाचार सुनकर हमारे राजकुमार की माता महारानी को बड़ी व्यथा एवं चिंता हुई।

सामूदिरिप्पाड के देहांत की स्थिति में कोट्टयम से सांत्वना पहुंचाने यदि कोई कोषिक्कोड नहीं गया तो इसे राजमर्यादा तथा लोकाचार की दृष्टि से अत्यंत खेदजनक माना जाएगा। जाना तो चाहिए किसी को, लेकिन जाने लायक पुरुष यदि कोई था तो हमारा मूढ़मति राजकुमार ही। उसके कोषिक्कोड जाने से कोई प्रयोजन सिद्ध न होता, क्योंकि संस्कृत में एक भी शुद्ध वाक्य बोलना उसके बस की बात नहीं थी। सामने से कोई संस्कृत में उससे कुछ कहे, तो भी उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता। "हे भगवान! अब करें भी तो क्या करें! बड़ी मुसीबत आ पड़ी।" यह सोचकर महारानी चिंतित हो उठीं।

अंततः महारानी ने निश्चय किया कि यही राजकुमार वहां जाए पर वहां पर वह केवल एक वाक्य बोले, बाकी सब काम उसके साथ जाने वाले सुयोग्य विद्वान संभाल लें, राजकुमार बस गंभीर मुद्रा बनाकर बैठा रहे।

यह तय हो जाने के पश्चात महारानी ने अपने पुत्र को पास बुलाया और कोषिक्कोड जाने पर वहां कहने के लिए "मया किं कर्त्तव्यम्" (मेरा कर्तव्य क्या है?) यह सरल, सुबोध वाक्य रटाने लगी। लगातार तीन दिनों और रातों तक सिखाए जाने पर वाक्य राजकुमार को कुछ-कुछ कंठस्थ हो गया। तब महारानी ने यह सोचकर कि अधिक विलंब करने पर शोक की अवधि समाप्त होने से पहले कोषिक्कोड पहुंचना संभव न हो सकेगा, कुछ श्रेष्ठ विद्वानों के साथ अपने पुत्र को कोषिक्कोड रवाना कर दिया। उन्होंने अपने पुत्र को आज्ञा दी कि रास्ते भर "मया किं कर्त्तव्यम्" यह वाक्य दुहराता रहे। राजकुमार के साथ जाने वाले विद्वानों ने भी उसे उक्त वाक्य का निरंतर स्मरण कराया और राजकुमार उसका घोटा लगाता रहा।

कोषिक्कोड पहुंचने पर सामूदिरि के उत्तराधिकारी इलमकूर के राजा ने स्वयं आकर हमारे राजकुमार व उसके साथ आए विद्वानों का स्वागत-सत्कार किया और उन्हें यथोचित स्थान पर बिठलाया।

तुरंत अपनी माता के आदेशानुसार राजकुमार ने वह वाक्य उचार दिया जो उसे इतने दिनों से रटाया गया था। परंतु उसका उच्चारण शुद्ध न होने से उसके मुंह से वह वाक्य इस प्रकार निकला, "मय किं कर्त्तव्यम्"। राजकुमार ने "मया" का दीर्घ उच्चारण नहीं किया। इसे सुनकर इलमकूर राजा को पता चल गया कि यह राजकुमार कमजोर बुद्धि का है। यद्यपि उसने राजकुमार का आशय समझ लिया, पर उससे टोके बिना न रहा गया --"दीर्घोच्चारणम् कर्त्तव्यम्"!

जब किसी मित्र के यहां शोक का संदर्भ हो, तो वहां जाकर यही पूछना उचित होता है कि, "हम इस समय आपकी क्या सहायता कर सकते हैं? जो भी आवश्यक हो, वह हम करने को तैयार हैं।" यही सोचकर महारानी ने अपने मूढ़ बेटे को इस आशय का संस्कृत वचन रटा दिया था। पर उसका यह उलटा फल निकला।

कोषिक्कोड राजा का परिहासवचन सुनकर राजकुमार के साथ आए विद्वानों को बड़ी लज्जा महसूस हुई। वे तत्काल राजकुमार को लिए घर लौट आए। कोट्टयम पहुंचकर उन्होंने सारा वृत्तांत महारानी को सुनाया। सुनकर महारानी को कितनी व्यथा एवं लज्जा हुई, इसका वर्णन करना क्या आवश्यक है? एक बड़े राज्य के प्रतिनिधि के "मैं क्या सहायता कर सकता हूं"? यह पूछने का जवाब "बस दीर्घ उच्चारण कर दीजिए"! मिले, तो यह उस प्रतिनिधि और उसके राजवंश का कितना बड़ा उपहास है! इससे बड़ा अपमान किसी राजवंश का क्या हो सकता है? कोट्टयम राजवंश के पूरे इतिहास में किसी का इतना बड़ा अपमान नहीं हुआ था। इस निकम्मे बेटे के कारण ही तो इस यशस्वी वंश को यह अपमान सहना पड़ा है, ऐसे कुपुत्र का होना न होना बराबर है, यह सब सोचकर महारानी ने अपने भृत्यों को आज्ञा दी कि राजकुमार को पकड़कर तुरंत कुमारधारा में फेंक आओ। भृत्यों ने ऐसा ही किया भी।

कुमारधारा कोट्टयम की एक नदी का जलप्रपात है। यह एक पुण्यस्थल भी है। यहां एक पहाड़ी के ऊपर से हाथी की सूंड़ जितनी मोटी जलधारा एक कुंड में गिरती है। इस कुंड में यदि कोई क्षणभर लेट जाए तो उसका सारा शरीर काठ के समान अकड़ जाता था। पर लंबे समय तक इस पानी में पड़े रहने के बाद यदि कोई जीवित बच जाए तो वह चाहे कितना मूर्ख क्यों न रहा हो, बहुत बड़ा विद्वान एवं अच्छा कवि हो जाता था। इस स्थल की ऐसी ही महिमा थी। परंतु कुंड में अधिक देर तक कोई जीवित नहीं रह सकता था।

हमारे कथानायक के हाथ-पांव बांधकर कुमारधारा में फेंके जाने के अगले दिन जब राजकर्मचारी उसके शव को ले आने के लिए वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि राजकुमार की सारी देह जमकर निश्चेष्ट हो गई है, परंतु उसकी सांसें अभी भी चल रही हैं। राजकर्मचारी उसे तुरंत महारानी के पास ले आए।

महारानी ने तत्काल वैद्य को बुलवाकर राजकुमार के शरीर को गरम करने और रक्त-संचार को बढ़ाने के लिए सभी संभव प्रयास करवाए। कहानी को व्यर्थ बढ़ाने से क्या लाभ! कुछ ही समय में राजकुमार पूर्ण स्वस्थ होकर उठ बैठा। इसके साथ ही उसकी मूढ़ता भी दूर हो गई। जिसे ठीक से अक्षरज्ञान भी नहीं था, होश आने पर उसके होंठों से जो शब्दधाराएं झरीं, वे अमृत से भी मीठी और उत्कृष्ठ काव्य के रूप में थीं। यह देखकर उसकी माता महारानी और वहां मौजूद सभी लोगों को जो आश्चर्य एवं संतोष हुआ, उसका क्या वर्णन करूं?

एक अत्यंत योग्य शास्त्री की देखरेख में राजकुमार की शिक्षा-दीक्षा नए सिरे से विधिवत आरंभ हुई। कुछ ही समय में राजकुमार सभी कलाओं और विद्याओं में पारंगत हुआ और एक उत्कृष्ट कवि में बदल गया। आगे चलकर इसी राजकुमार ने चार प्रसिद्ध आट्ट कथाओं (कथकली के लिए लिखे जानेवाले काव्य) का प्रणयन किया जो कोट्टयम कथाओं के नाम से जानी जाती हैं।

मंदोत्कंठाः कृतास्तेन गुणाधिकतया गुरौ।
फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः॥

कोट्टयम राजवंश में इससे पहले जितने भी प्रतापी राजा-महाराजा हुए थे, उन सबसे अधिक कीर्तिशाली एवं प्रतापी हमारा कथानायक हुआ और उसने पर्याप्त समय तक राज्य-संचालन करते हुए सुखी एवं ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत किया। कोट्टयम के इस राजा ने मुक्तक एवं अन्य काव्य-विधाओं में बहुत सी रचनाएं कीं लेकिन उसकी ऊपर बताई चार रचनाओं को जो आदर और लोकप्रियता मिली उतनी उसकी किसी अन्य रचना को नहीं।

उसकी रची पहली आट्ट कथा थी "बकवद"। उसके पूर्ण होते ही राजा ने उसे अपने गुरु को दिखाया। रचना पूरा पढ़कर गुरु ने टिप्पणी की--"यह स्त्रियों के कैकोट्टिक्कली (एक प्रकार का नृत्य) के लिए बहुत उपयुक्त रहेगी।" यह सुनकर राजा ने समझ लिया कि काव्य में गंभीरता एवं अर्थपुष्टि की कमी है, आगे इस कमजोरी से बचना चाहिए। यों विचारकर राजा ने "कृम्मीरवधम्" नामक दूसरी कृति रची। पूरी होते ही उसे भी गुरु को दिखाया। इस बार गुरु ने कहा--"यह पहली रचना से भिन्न है। इसकी एक भाष्य भी रच डालो। उससे श्रोताओं को अर्थ समझने में सहायता मिलेगी।" इस टिप्पणी का तात्पर्य राजा ने यह लिया कि काव्य बहुत कठिन हो गया है। पहली रचना कुछ हलकी-फुलकी बन पड़ी थी, यह दूसरी कुछ ज्यादा गंभीर एवं कठिन। राजा ने समझ लिया कि इन दोनों छोरों के मध्य की रचना चाहिए। यह थी "कल्याणसौगंधिकम्" नाम की तीसरी रचना। इसे पढ़कर गुरु ने टोका, "इसके कथ्य के कारण लोग कहेंगे कि कवि स्त्रियों को जीतनेवाला है।" यह रचना चूंकि पांचाली की इच्छापूर्ति हेतु कल्याणसौगंधिक पुष्प लाने को उद्यत हुए भीमसेन पर थी, शायद इसलिए गुरु ने ऐसा कहा, यों सोचकर राजा ने उर्वशी के प्रेम की अर्जुन द्वारा उपेक्षा की कथा पर चौथी रचना "निवातकवचकालकेयवधम्" लिख डाली। गुरु ने इस पर सम्मति दी, "यह आट्टकथाकारों के लिए उपयुक्त है। आट्टम (खेल) देखनेवालों को पान खाने और पेशाब करने का अवसर देने के लिए ही शायद वजूबा-हवजुकेतु के पात्र काव्य में रखे गए हैं।" यह सुनकर राजा को विश्वास हो गया कि यह काव्य गुरु को पसंद आया है, और वह बड़ा खुश हुआ।

ऐसा भी सुनने में आया है कि गुरु ने "कल्याणसौगंधिकम्" में आए "पंचसायकनिलये", इस शब्द को दोषपूर्ण बताया था। तब राजा ने उसके स्थान पर कोई दूसरा शब्द सुझाने के लिए गुरु से निवेदन किया। बहुत सोचने पर भी गुरु को उतना ही मधुर दूसरा शब्द न सूझा और उन्होंने उस शब्द को ही बनाए रखने की अनुमति दे दी। "बकवद" में आए शब्द, "काडे गति नमुखु" (जंगल-जंगल भटकना हमारी नियति लगती है) के संबंध में यह किंवदंती है कि राजा ने इसके जरिए इस ऐतिहासिक तथ्य की ओर सूक्ष्म संकेत किया है कि उसे टीपू सुलतान से डरकर देश छोड़कर भागना पड़ा था। यह धारणा जनमानस में काफी बद्धमूल है।

इस राजा तथा इसकी रचनाओं को लेकर ऐसे और भी बहुत से किस्से-कहानियां कहने के लिए हैं, परंतु विस्तार-भय से मुझे यह लोभ संवरण करना पड़ रहा है। कोट्टयम का यह अत्यंत प्रसिद्ध राजा शायद महाकवि मेलपत्तूर नारायण भट्टदिरी का समकालीन था। इसलिए उसका समय आज से लगभग तीन सौ-साढ़े तीन सौ साल पहले का रहा होगा। अब राजा-महाराजाओं का तो जमाना लद गया, लेकिन कोट्टयम का राज परिवार मौजूद है। ब्रिटिश सरकार के शासन में यह परिवार अपने पूर्व स्थान कोट्टयम में ही सुखपूर्वक दिन व्यतीत कर रहा है।

10 Comments:

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

"बहुत बढ़िया, बालसुब्रमन्यम जी. आपकी बहुत अच्छी भाषा में इतनी अच्छी जानकारी भरी हुई दिलचस्प पोस्ट हमें पढ़ाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. "

Sanjeet Tripathi said...

बहुत ही रोचक।
बहुत मेहनत कर रहे हैं आप इन सब का हिंदी अनुवाद हम तक पहुंचाने के लिए।
आभार

और आपकी इस लगन को साधुवाद।

Pawan mall said...

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं.

रचना गौड़ ’भारती’ said...

very nice. keep it up.

नीरज मुसाफ़िर said...

ब्लॉग जगत में स्वागत है जी आपका. ऐसे ही लिखते रहिये.
बढ़िया जानकारी.

alka mishra said...

स्वागत है मित्र ब्लॉग की दुनिया में ,लेकिन एक प्रार्थना भी कि अगर अपने ब्लॉग पर लिखने में आप एक घंटा समय देते हैं तो दूसरे ब्लागों को पढने के लिए भी दो घंटे का समय सुरक्षित रखें. ब्लॉग कi दुनिया में आने का असली लाभ तभी हासिल होगा.
जय हिंद

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

आप सबको आभार।

अल्का जी मैं जितना समय अपने ब्लोगों में बिताता हूं, उससे कई गुना समय दूसरों के ब्लोग पढ़ने और उन पर टिप्पणी करने में बिता देता हूं। कई ऐसे हिंदी ब्लोगर होंगे जो मेरी टिप्पणियों से तंग आ चुके होंगे और सोचते होंगे कि यह बालसुब्रमण्यम तो आफत बन गया है, न जाने इतनी लंबी-लंबी टिप्पणियां क्यों छोड़ता रहता है हमारे लेखों पर।

बात यह है कि केरल पुराण जरूर मेरा नया ब्लोग है, पर मेरा मुख्य ब्लोग जयहिंदी है जो कुछ महीनों से चल रहा है। उसके माध्यम से मैं अनेक हिंदी ब्लोगरों से परिचत हुआ हूं और उन्हें अपनी टिप्पणियों से हैरान करता रहता हूं।

अब आपकी जानकारी मिल गई है तो आप भी अधिक समय बची नहीं रह पाएंगी। यह मेरा वादा है।

मेरा एक ब्लोग और है प्रिंटेफ-स्कैनेफ जिसमें मैं कंप्यूटर भाषाओं के हिंदी में ट्यूटोरियल लिख रहा हूं। यदि आपके बच्चे स्कूल-कालेजों में सी, एचटीएमएल आदि भाषाएं सीख रहे हों, तो यह ब्लोग उनके काम का हो सकता है।

P.N. Subramanian said...

कोट्टायम राजवंश की यह कहानी हमारे लिए नयी ही थी. आभार.

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

narayan....narayan...narayan

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

दक्षिण की समृद्ध कथा परम्परा से उत्तर भारतीयों को परिचित करा कर आप एक राष्ट्रीय कार्य कर रहे हैं.


सरल लिखना एक बहुत ही कठिन कला है जिसे आप ने साध लिया है. आप भूरि भूरि प्रशंसा के अधिकारी हैं.


बहुत बहुत धन्यवाद.

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