(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
पुराने जमाने में तेक्कुमकूर राज्य के ऐट्टुमानूर तालुके से लगे हुए कुमारनेल्लूर के पश्चिमी भाग में "पुलिक्कलचेंबकश्शेरी" नाम के घराने में एक नंबूरी रहता था। एक समय इस घराने की ऐसी हालत हो गई थी कि उस नंबूरी की विधवा और उसके नन्हे बालक उण्णी के सिवा कोई उस परिवार में जीवित नहीं रह गया। ये दोनों भी अत्यंत दीन एवं दारिद्र्यपूर्ण अवस्था में जीवन व्यतीत करने को विवश हो गए।
इस परिवार की इकलौती संतान उण्णी जनेऊ धारण करने के बाद विद्याभ्यास करने लगा तब की बात है, एक दिन चार-पांच सौ सशस्त्र परदेशी नायर सैनिक कुमारनेल्लूर आ धमके। ये वे सैनिक थे जो कोषिक्कोड और कोच्ची के राजाओं के बीच हुए युद्ध में हारे थे और प्राण रक्षा के लिए पलायन कर रहे थे। दो-तीन दिनों से वे भूखे थे और अत्यंत विकल एवं दीन अवस्था में थे। कुमारनेल्लूर आकर उन्होंने कुछ ब्रह्मचारी बालकों को तालाब में स्नान करके मध्याह्न की पूजा के बाद घर लौटते देखा और उनके पास जाकर अत्यंत दुखी स्वर में बोले, "अन्न का दाना गले से उतरे दो दिन से अधिक हो गए हैं। कृपया बताएं कि किसकी शरण में जाने से हमें एक वक्त का भोजन और विश्राम मिल सकता है।"
कुछ बालक तो उनकी दीन याचना अनसुनी करके आगे बढ़ गए, पर दूसरे बालकों को शरारत सूझी और उन्होंने पीछे आ रहे विपन्न उण्णी की ओर इशारा करके सैनिकों से कहा, "उस ब्रह्मचारी को आप देख रहे हैं न, बस उसके पास चले जाइए। वह आपके भोजन एवं अन्य जरूरतों का प्रबंध कर देगा। वह खूब दौलतमंद है और दानी मिजाज का है।" सैनिक यह ताड़ न सके कि बालक उनसे मजाक कर रहे हैं, और बेचारे उण्णी के पास जाकर उन्होंने उससे अन्न की भिक्षा मांगी। उण्णी को यह समझते देर नहीं लगी कि उसके सहपाठियों ने ही उसके साथ यह भोंडा मजाक किया है। उण्णी गरीब था इसलिए उसके सहपाठियों के मन में उसके प्रति तिरस्कार की भावना थी। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने उण्णी को इस प्रकार अपमानित किया था। उण्णी ने तुरंत अपनी बाघनख जड़ित सोने की अंगूठी उतारकर सैनिकों को सौंप दी और उनसे कहा, "फिलहाल इसे बेचकर आप अन्न खरीदकर खा-पी लें। सांझ होने तक मैं आपके लिए कुछ और प्रबंध करने की कोशिश करूंगा। खाना खा लेने के बाद आप तुरंत मेरे यहां लौट आएं।"
बड़ी कृतज्ञता से सैनिकों ने वह आभूषण उण्णी से लिया और उसे बेचकर अन्न खरीदकर खाया। आसपास के लोगों से उस दानी ब्रह्मचारी के घराने और उसकी आर्थिक हालत के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद सैनिक उण्णी के पास जाकर बोले, "अब हम सब आपके वफादार गुलाम हैं। आप जैसा आदेश देंगे, वैसा ही हम करेंगे। आज से आप हमारे प्रभु हैं और हम आपके आज्ञापालक अनुचर। आज से हम किसी अन्य व्यक्ति का आश्रय न ग्रहण करेंगे, न किसी की चाकरी ही करेंगे।"
यह सुनकर उण्णी ने कहा, "यदि आपका यह निश्चय है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं। आप सबको भोजन-वस्त्र देना तो दूर, स्वयं अपने लिए दो जून की रोटी जुटाना मेरी या मेरे घराने की सामर्थ्य के बाहर है। उलटे आपको ही मेरी भी परवरिश करनी पड़ेगी। इसलिए सबसे पहला काम आप यह करें कि आज दुपहर जिन ब्रह्मचारियों ने मेरा अपमान करने की इच्छा से आपको मेरे पास भेजा था, उन सबके घरों में डाका डालकर उनका सब कुछ छीन लें।"
यह सुनकर सैनिक तुरंत बोल उठे, "जो आज्ञा" और उण्णी को दुबारा प्रणाम करके अपने हथियार संभालकर वहां से चल पड़े। कुछ ही दिनों में सैनिकों ने आसपास के घरों से सब कुछ लूट लिया। इतना ही नहीं, इस लड़ाई-झगड़े में बहुत-से ब्रह्मचारी व उनके परिवार के सदस्य मौत के घाट उतार दिए गए।
फिर एक दिन पुलक्कलचेंबकश्शेरी के उण्णी ने उस प्रदेश के तत्कालीन शासक तेक्कुमकूर राजा के दरबार में जाकर याचना की कि मेरे पास न रहने की कोई जगह है न जगह खरीदने के लिए धन। मैं एक अत्यंत निर्धन घराने का ब्राह्मण हूं और मेरे घराने में मेरे और मेरी बूढ़ी मां के सिवा कोई और जीवित नहीं बचा है। इसलिए आप दया करके मेरे रहने और गृहस्थी बसाने के लिए थोड़ी-बहुत जमीन दें।
राजा ने कहा, "एक दिन में तुम जितनी जमीन काटकर अलग कर सकते हो, उतनी जमीन मैं अपने राज्य में से तुम्हें देता हूं।"
तुरंत उण्णी ने कहा, "कृपा करके इस आशय की लिखित आज्ञा जारी करें, नहीं तो कोई मेरी बात पर यकीन नहीं करेगा।"
यह सुनकर राजा ने अपने मंत्री पुतियिडम के उण्यादिरी को बुलाया और राजाज्ञा तैयार करने के लिए कहा। बुद्धिमान मंत्री ने राजा को अलग ले जाकर यों सलाह दी, "इसमें मुझे धोखे का अंदेशा हो रहा है। इसे इस तरह भूमिदान करने का नतीजा कहीं आपके लिए उसी प्रकार अकल्याणकारी न सिद्ध हो जैसे वामन को तीन डग भूमि दान करने से महाबली को हुआ था। यह व्यक्ति न तो निर्धन है न दीन, जैसा कि इसके मुखमंडल के तेज एवं हाव-भाव से स्पष्ट है।"
परंतु राजा ने अपने मंत्री के उपदेशों में सार नहीं देखा और कुछ ही समय में मंत्री राजाज्ञा तैयार करके ले आया और उस पर राजा ने हस्ताक्षर करके राज मुहर लगा दी।
अगले दिन भोर होते ही उण्णी हाथ में तलवार लेकर निकल पड़ा और कुमारनेल्लूर के पश्चिमी भाग के एक बहुत बड़े भू-भाग के चारों ओर के प्रत्येक वृक्ष पर तलवार से काट का एक-एक निशान बनाता गया। इस प्रकार इस समस्त क्षेत्र को उण्णी ने अपने नियंत्रण में ले लिया। राजाज्ञा में यही तो लिखा था कि दिन-भर में जितनी जमीन काटी जा सके, उतनी पर अधिकार कर लो! चूंकि तलवार (उडवाल) से काट कर इस प्रदेश (ऊर) को प्राप्त किया गया था, इसलिए उसने इसका नाम उडवालूर रखा, जो आगे चलकर कुडमालूर हो गया। आज भी इस प्रदेश को इसी नाम से जाना जाता है। उण्णी ने जल्द ही इस जगह एक भव्य इमारत बनवा ली और उसके चारों ओर एक मजबूत किला खड़ा कर लिया। यहां से उसके नायर सैनिक चारों ओर फैलकर लूटपाट करते और लूटी गई संपत्ति उसके चरणों में अर्पित करते। इस प्रकार उण्णी के ऐश्वर्य में दिन दुगुनी रात चौगुनी वृद्धि होने लगी।
धन और सेना के साथ वहां बस जाने वाले उण्णी को जनसाधारण "पुलिक्कलचेंबकश्शेरी के तंबुरान (राजा) " कहकर पुकारने लगा। इस खिताब में से कालांतर में "पुलिक्कल" पद लोप हो गया और उण्णी चेंबकश्शेरी के तंबुरान या चेंबकश्शेरी के राजा के रूप में प्रख्यात हुआ। इस प्रकार भाग्य के पलटे से चेंबकश्शेरी का गरीब नंबूरी चेंबकश्शेरी का राजा बन गया। बाद में उण्णी के सैनिकों ने वेंपनाड के राजा से अंबलप्पुषा नामक जिला भी जीत लिया और यह भू-भाग भी चेंबकश्शेरी ही कहलाया जाने लगा। उण्णी ने अंबलप्पुषा में ही अपनी राजधानी और स्थिर वासस्थान भी बनाया।
चेंबकश्शेरी का राजा बनने के बाद उस नंबूरी ने विवाह संबंध जोड़ा भी तो कुडमालूर के मठ से ही। (उण्णी के कुडमालूर के भवन को पुराने जमाने से मठ कहकर ही पुकारा जाता था।) इतना ही नहीं, राजा ने यह भी व्यवस्था कर दी कि यद्यपि वह स्वयं अधिकांश समय अंबलप्पुषा में ही बिताएगा, लेकिन रानी व उसकी सहेली-दासियां कुडमालूर में रहेंगी।
पुलिक्कलश्शेरी का राजा अपनी दुर्दशा के दिनों में कुमारनेल्लूर देवालय में पुरोहित था। अपने नायर सैनिकों से वह जिन घरानों में लूटपाट कराता था, वे सब भी इसी देवालय के अन्य पुरोहितों के ही घर थे। इस प्रकार सताए जाने का बदला लेते हुए इन पुरोहितों ने पुलिक्कलश्शेरी के राजा से देवालय के पुरोहित की पदवी छीन ली और भविष्य में उसके लिए इस देवालय में प्रवेश वर्जित कर दिया। इतना ही नहीं देवालय के उत्तरी द्वार पर दीवार के बाहर पुलिक्कलचेंबकश्शेरी के घराने के नंबूरियों का जो मठ था, उसे भी पुरोहितों ने मिलकर जला डाला। जहां यह मठ था, उस जगह का नाम आज भी लोगों की जबान पर पुलिक्कल मठ ही है।
चेंबकश्शेरी का यह राजा जब ब्रह्मचारी था, तब कुमारनेल्लूर देवालय के पुजारियों पर उसने जो जुल्म ढाए थे, उससे देवालय की भगवती उस पर अत्यंत अप्रसन्न हो गई। इससे एक के बाद एक विपत्ति उस पर टूटने लगी। ज्योतिषियों ने प्रश्न विचार कर बताया कि इन विपत्तियों का कारण भगवती का क्रोध है और इसका हल यही है कि राजा देवालय जाकर अपनी गलती स्वीकार करके प्रायश्चित्त करे और देवालय को एक हाथी भेंट करे।
तदनुसार राजा कुमारनेल्लूर गया, परंतु उसे वहां के पुरोहितों ने मंदिर के अंदर घुसने नहीं दिया। हारकर चेंबकश्शेरी राजा को देवालय की दीवार पर चढ़कर वहां से पुकार कर भगवती से क्षमा मांगनी पड़ी। अपने साथ लाए हाथी की सांखल खोलकर उसने उसे बाहर से ही देवालय के अंदर धकेल दिया। इस हाथी के मस्तक पर उसने सोने का एक भव्य कवच मढ़वा दिया था। यह सब करके चेंबकश्शेरी राजा कुडमालूर लौट गया।
हाथी के मस्तक पर राजा द्वारा लगवाया गया सोने का कवच आज भी कुमारनेल्लूर के देवालय के भंडार में मौजूद है। विषु के उत्सव में पुजारीगण उसे बड़ी सावधानी से बाहर निकालते हैं और जनसाधारण भक्ति-भाव से उसका दर्शन करने आते हैं। कवच की कारीगरी से ही पता चलता है कि वह कुमारनेल्लूर में नहीं अंबलप्पुषा में बना है। इतना ही नहीं, उसके एक कोने में "चेंबकश्शेरी की ओर से" ये शब्द भी खुदे हुए हैं।
अंबलप्पुषा का राजा बन जाने वाले उण्णी का पहला बेटा अंबलप्पुषा पुराडंपिरन्न तंबुरान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह सभी कलाओं और विद्याओं का पारखी और अत्यंत गंभीर स्वभाव का व्यक्ति था। उसकी तीन-चार पीढ़ियों के बाद अंबलप्पुषा का राज्य तिरुवितांकूर के राज्य में विलीन हो गया।
अंत में इस वंश में केवल एक स्त्री शेष रह गई। वह भी दस-पंद्रह वर्ष पहले परलोकवासी हो गई। आज इस घराने में जो रह गए हैं, वे वेलियकोल नाम के एक नंबूरी के घराने से गोद लिए गए व्यक्तियों की संतानें हैं। अंबलप्पुषा के राजा की जगह देवालय के उत्सवों में आज तिरुवितांकूर के महाराजा द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि भाग लेता है। इस समय यह प्रतिनिधि दक्षिणी कुडमालूर का भट्टतिरिप्पाड है।
14 अप्रैल, 2009
१. चेंबकश्शेरी के राजा
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