(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
वररुचि तथा उनकी पत्नी मृत्युपर्यंत देश-विदेश घूमते रहे। उनकी मृत्यु के बाद उनके श्राद्ध के अवसर पर ऊपर उल्लिखित सभी लोग (वायिल्लाकुन्निलप्पन को छोड़कर) एक साथ आकर एक ही तिनके पर बलि का अन्न डालते थे। ऐसा वे मेलत्तोलाग्निहोत्री के घर पर करते थे। चूंकि अग्निहोत्री ब्राह्मण थे, इसलिए श्राद्ध के भोजन के लिए एक ब्राह्मण को ही न्योता जाता था। उस ब्राह्मण को परयन से लेकर अनेक ब्रह्मणेतर जाति के व्यक्ति मिलकर भोजन कराते थे। इसलिए उसे अग्निहोत्री के यहां आने में जरा संकोच होता था। अग्निहोत्री की पत्नी को भी विभिन्न जातियों के इन भाई-बहनों का उनके घर पर जमा होना पसंद नहीं था। इतना ही नहीं, उसने अपनी नापसंदगी एक दिन अपने पति को भी जतला दी। तब उन्होंने कहा, "ठीक है, इसका कुछ उपाय करेंगे।"
इसके बाद श्राद्ध का अवसर आया। श्राद्ध के पिछले दिवस शाम को दसों भाई-बहन तथा श्राद्ध के लिए निमंत्रित ब्राह्मण अग्निहोत्री के घर जमा हुए। इन भाई-बहनों को ठहराने के लिए अग्निहोत्री दंपति ने दस कमरे पहले से ही तैयार रखे थे। सभी भाई-बहन अपनी-अपनी रीति के अनुसार नित्यकर्मों से निपटकर अपने-अपने शयन-कक्ष में जाकर लेट गए।
जब वे सभी सो गए तब अग्निहोत्री ने अपनी पत्नी तथा श्राद्ध के लिए निमंत्रित ब्राह्मण को जगाया और एक दीपक हाथ में लेकर उन्हें दसों भाई-बहनों के कमरे में ले गए तथा उनसे कहा, "मुझे छूते हुए देखें।" जब पत्नी और निमंत्रित ब्राह्मण ने ऐसा किया तो उन्होंने सभी कमरों में एक-जैसे ही शंख-चक्र-गदा-पद्म से युक्त चार बांहोंवाले महाविष्णु को शेषनाग पर लेटे हुए देखा। दोनों जने तब अत्यंत भयभीत एवं विस्मित हुए और उन्होंने वहीं जमीन पर गिरकर उन भाई-बहनों की वंदना की। इस प्रकार अग्निहोत्री की पत्नी और ब्राह्मण के मन में इन भाई-बहनों को लेकर जो शंका थी वह मिट गई और उनकी समझ में यह आ गया कि ये सब महाविष्णु के ही अवतार हैं।
मेलत्तोल अग्निहोत्री का भवन पोन्नानी तालुके में मेषत्तूर नामक स्थल पर है। वल्लुवनाड तालुके के ओट्टप्पालम नामक स्थल के पास स्थित कडंबूरुमनैखल नंबूरी इस अग्निहोत्री के वंशज हैं। अग्निहोत्री की पत्नी एक बार पास से बहनेवाली नदी में स्नान करने गई तो एक थाली भी धोने के लिए साथ ले गई। उसने थाली को मांजकर पानी में डुबोकर रखा और उसे बह जाने से रोकने के लिए उस पर थोड़ी गीली मिट्टी रख दी। स्नान के बाद जब वह जाने को हुई तो उसने वह थाली उठानी चाही लेकिन वह उसे उठा न सकी, थाली वहीं जम गई थी। लोकप्रसिद्ध "तृत्थालप्पन" देव की उत्पत्ति यों हुई। तृत्थालप्पन की प्रतिमा आज भी देखने में ऐसी ही लगती है मानो मिट्टी का ढेर हो, पर उसमें पत्थर की कठोरता पाई जाती है।
28 अप्रैल, 2009
6. परयी से जन्मा पंदिरम कुल - 3 : मेलत्तोलाग्निहोत्री
लेबल: परयी से जनमा पंदिरम कुल
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2 Comments:
रोचक प्रसंग. जारी रखें दक्षिन भारत के धार्मिक मान्यताओं बारे में मुझे कुछ नही पता है. जानकारी बढ़ेगी.
क्या बात है! मज़ा आ रहा है पढ़ने में.
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