03 जून, 2009

16. कालड़ी के भट्टतिरी - 4

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

16. कालडी के भट्टतिरी - 1

16. कालडी क भट्टतिरी - 2

16. कालडी क भट्टतिरी - 3

फिर एक बार कालड़ी का एक भट्टतिरी कोषिक्कोड़ के सामूतिरी राजा द्वारा दी जाने वाली दान की थैली प्राप्त करने कोषिक्कोड़ गया। वहां कौणारु नदी के उत्तरी तट तक के प्रदेशों के लोगों को ही दान दिया जाता था। कालड़ी के भट्टतिरी का घर उन दिनों कौणारु नदी के दक्षिणी तट पर था। इसलिए अधिकारियों ने उसे दान की थैली देने से इन्कार कर दिया। तब भट्टतिरी ने सोचा कि इतनी दूर से आकर दान की थैली लिए बगैर लौटना अपना अपमान होगा। इसलिए उसने कहा, "मेरा घर कौणारु के उत्तरी तट पर ही है।" वहां मौजूद कुछ लोग अच्छी तरह जानते थे कि भट्टतिरी का घर कहां है। उन सबने कहा कि भट्टतिरी का घर नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है। लेकिन भट्टतिरी अपनी बात पर अड़ गया और जोर देकर बोला, "मेरा घर उत्तरी तट पर ही है।" इस प्रकार वे विवाद करने लगे।

इसका समाचार सामूतिरी तक पहुंच गया। उन्होंने थोड़ा विचार करके एक उपाय निकाला। वह था कि भट्टतिरी को फिलहाल दान की थैली दे दी जाए, लेकिन एक आदमी को भेजकर इसका ठीक-ठीक पता लगाया जाए कि उसका घर नदी के उत्तरी तट पर है या दक्षिणी तट पर। उस आदमी के लौटने तक भट्टतिरी को यहीं रोके रखा जाए। यदि भट्टतिरी की बात सही हो तो उसे यहां से सम्मान से विदा किया जाए, झूठ हो तो दान की थैली उससे वापस ले ली जाए और उसे उचित दंड दिया जाए। यह उपाय भट्टतरी और वहां मौजूद सभी को मान्य हो गया। तब भट्टतिरी को दान की थैली दी गई और राजा का एक आदमी कौणारु की ओर चल पड़ा। वहां पहुंचने पर उसने देखा कि भट्टतिरी का घर नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है और नदी उसके दक्षिण से बह रही है। यह समाचार उसने राजा को सुना दिया। तब सामूतिरी ने भट्टतिरी को ससम्मान अपने सम्मुख बुलाया और उसे आदरपूर्वक विदा किया। वास्तव में भट्टतिरी का घर कौणारु के दक्षिणी किनारे पर ही था। जब इसे लेकर विवाद छिड़ा तो गणपति ने यह सोचकर कि भट्टतिरी का अपमान नहीं होना चाहिए, अपने इकलौते दांत से खोदकर नदी के प्रवाह को बदल दिया और नदी भट्टतिरी के घर के दक्षिण बहने लगी। यदि कोई उस स्थल पर जाए तो वहां की भू-प्रकृति को देखकर वह आसानी से समझ सकता है कि पहले यह नदी भट्टतिरी के घर के उत्तर में बहती थी।

बाद में गणपति कालड़ी के भट्टतिरियों को प्रत्यक्ष होना क्यों बंद हो गए, इसका कारण बताए बिना इस कथा को समाप्त करना उचित न होगा। इसलिए वह प्रसंग भी सुना देता हूं। एक बार एक समुद्री व्यापारी अपने जहाज में कीमती सामान भरकर उत्तर से दक्षिण की ओर जा रहा था कि उसका जहाज समुद्र में डूब गया। जहाज में सवार अधिकांश लोग सकुशल किनारे पहुंच गए। जहाज का मालिक भी बच गया। जहाज में भरे कीमती सामान खोकर दुखग्रस्त वह व्यापारी इधर-उधर फिरने लगा। तब उससे किसी ने कहा कि कालड़ी के भट्टतिरी को गणपति प्रत्यक्ष होते हैं और वे इसका कोई उपाय कर सकते हैं। तुरंत वह व्यापारी कालड़ी आया और भट्टतिरी को सारा समाचार सुनाकर कहा कि यदि आप जहाज और उसमें रखे सामान को सही-सलामत समुद्र से बाहर निकाल सकें, तो उस सामान की आधी कीमत आपको दूंगा। तुरंत भट्टतिरी इसके लिए राजी हो गया। फिर उसने गणपति के पास जाकर यह सारा समाचार कह सुनाया। तब गणपति ने कहा, "इस प्रकार के सब कार्य करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है।" यह सुनकर भट्टतिरी ने कहा, "यह काम कर देने का वचन मैंने व्यापारी को दे दिया है। किसी प्रकार से भी यह काम आप कर दें।" तुरंत गणपति ने समुद्र में जाकर अपने इकलौते दांत से जहाज ऊपर उठा कर दे दिया। इसके बाद गणपति ने भट्टतिरी से कहा, "आपने व्यापारी को वचन इसलिए नहीं दिया कि आपको धन का अत्यधिक लोभ था। वचन आपने इसलिए दिया कि आपको यह अभिमान हो गया है कि मैं आपके सामने प्रत्यक्ष होता हूं। इसलिए अब आप मुझे प्रत्यक्ष देख नहीं सकेंगे। लेकिन चूंकि आप बहुत दिनों से मेरी सेवा करते आ रहे हैं, इसलिए आपकी इच्छाएं मैं पूरी करूंगा। दूसरे लोगों के फायदे के लिए मुझसे दुस्साध्य कार्य न करवाएं तथा दुराग्रहपूर्ण बातों के लिए मुझसे आग्रह न करें।" यह कहकर गणपति अंतर्धान हो गए। इसके बाद उस घराने के लोगों ने गणपति को फिर नहीं देखा। लेकिन उनकी इच्छाओं को गणपति पूरा करके देते थे। समय बीतने के साथ-साथ इस घराने के लोगों में गणपति के प्रति आस्था भी कम होती गई और उनके हाथों गणपति की सेवा में भी कसर होने लगी। तब कार्यसिद्धि भी उसी अनुपात में घटती गई। फिर भी इस घराने में गणपति की शक्ति और माहात्म्य बिलकुल निश्शेष हो गई हो, सो बात भी नहीं। आज भी कालड़ी के भट्टतिरियों की तंत्र-साधना अन्य तांत्रिकों से अधिक कारगर साबित होती है। चूंकि अब कलियुग खूब पक गया है, इसलिए पहले के युगों के जैसे दृष्टांत मिलना भी अब मुश्किल है।

(समाप्त। अब नई कहानी)

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