(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
कालड़ी के भट्टतिरी का घराना कुमारनल्लूर ग्राम के अंतर्गत नेट्टश्शेरी नामक स्थान पर है। इस घराने के लोगों को तंत्रविद्या में प्रवीणता प्राप्त थी और उन्हें गणपति प्रत्यक्षदर्शन देते थे। यह सब तो प्रसिद्ध ही है। गणपति उन्हें कैसे प्रत्यक्ष होने लगे, इसी की कहानी यहां संक्षिप्त में देता हूं।
एक बार इस घराने का एक भट्टतिरी और दूसरा एक नंबूरी जो इस भट्टतिरी का मित्र था, तृश्शिवपेरूर का उत्सव देखने चल पड़े। जब वे इरिञ्यालक्कुडा के समीप पहुंचे तब तक दिन काफी बीत चुका था। इसलिए वे एक घर में गए और भोजन करके सायंकालीन संध्यावंदन आदि पूरा किया और तत्पश्चात वहां से चल पड़े। जब वे यक्षीप्परंबु नामक स्थान के निकट पहुंचे तो उन्होंने दो सर्वांगसुंदरी स्त्रियों को रास्ते में खड़े देखा। जब वे दोनों इनके निकट पहुंचे, तो वे स्त्रियां उनसे इस प्रकार बोलीं, "इतनी देर गए आप दोनों महानुभव किधर जा रहे हैं?" भट्टतिरी ने कहा, "हम दोनों उत्सव देखने जा रहे हैं।" तब स्त्रियों ने कहा, "यहां से यक्षीप्परंबु शुरू होता है। रात होनेवाली है और सूरज डूबने के बाद कोई भी मनुष्य इस इलाके में से गुजरने का दुस्साहस नहीं करता। आपने तो सुना ही होगा कि यहां अनेक अनिष्ट घटनाएं घट चुकी हैं। इसलिए आप दोनों इस समय इस खतरनाक स्थान में न जाएं। कल सुबह ही आपको आगे की यात्रा पर निकलना चाहिए। यही हमारी विनम्र सलाह है।" नंबूरी बोला, "हम दोनों इस इलाके में नए-नए आए हैं। आज अगर हमें यहीं रहना है तो रात बिताने की सुविधा कहां मिल सकती है? क्या यहां पास ही कहीं किसी शूद्रादि का घर है?" तब स्त्रियों ने कहा, "हम दोनों को आप अपनी दासी ही समझें। हमारा निवास यहां से नजदीक ही है। यदि आपको उचित लगे तो रात वहीं बिताएं।"
इस प्रकार उन स्त्रियों के साथ कुछ देर बात करने के पश्चात उन दोनों ब्राह्मणों को लगा कि इस समय इस प्रदेश में यात्रा करना अनावश्यक ही खतरा मोल लेना होगा। उन सुंदर स्त्रियों के साथ रात बिताने का लोभ भी वे संवरण नहीं कर सके। इसलिए उन्होंने स्त्रियों के साथ जाने का निश्चय किया। इसके बाद वे चारों वहां से चल पड़े। कुछ ही समय में एक बहुत बड़ा महल दिखाई दिया। स्त्रियां दोनों ब्राह्मणों को उसके अंदर ले गईं। महल में पास-पास स्थित दो बड़े-बड़े कमरे थे। उनमें से एक में भट्टतिरी को और दूसरे में नंबूदिरी को उन स्त्रियों ने लिटाया। दोनों कमरों में एक-एक स्त्री भी घुस गई। भट्टतिरी के कमरे में घुसी स्त्री ने जैसे ही उसे छुआ, वह मूर्छित हो गया। तुरंत उस स्त्री ने उसे खाना शुरू कर दिया। चूंकि नंबूरी रोजाना देवीमाहात्म्य का पारायण करता था, इसलिए उसके हाथ में वह ग्रंथ था। नंबूरी उसे सिरहाने रखकर ही रोज सोता था। उस रात भी उसने उस ग्रंथ को सिर के नीचे रख लिया था। इसलिए उसके पास जाकर उस स्त्री ने कहा, "इस ग्रंथ को पलंग के नीचे कहीं रखें, इसे सिर के नीचे रखने से आपको अच्छी नींद नहीं आएगी।" तब नंबूरी ने कहा, "इसे नीचे नहीं रखा जा सकता। इसे सिरहाने रखकर सोने की मेरी पुरानी आदत है।" लेकिन उस स्त्री ने नंबूरी से फिर जोर देकर कहा कि वह ग्रंथ को नीचे रखें। पर नंबूरी सहमत नहीं हुआ। तब तक दूसरे कमरे से भट्टतिरी की हड्डियों के चटकने और उस स्त्री के रक्तपान करने की आवाजें नंबूरी के कमरे में सुनाई देने लगी थीं। इससे नंबूरी का भयभीत होना स्वाभाविक ही था और उसके मन में अनेक प्रकार की शंकाएं कुलबुलाने लगीं। लेटे-लेटे ही उसने भट्टदिरी को पुकारा। तब तक उस स्त्री ने भट्टदिरी को तीन-चौथाई खा लिया था। इसलिए जवाब कौन देता? भट्टदिरी से जवाब न मिलने से और उस स्त्री द्वारा ग्रंथ को नीचे रखने के लिए बार-बार कहने से नंबूरी समझ गया कि सब मिलाकर स्थिति काफी विषम है और यह भी कि ये दोनों स्त्रियां साधारण मनुष्य-स्त्रियां नहीं हैं। नंबूरी बहुत ही डर गया। दोनों हाथों से ग्रंथ को मजबूती से पकड़कर वह लेटा रहा। उसे जरा भी नींद नहीं आई, यह कहना तो आवश्यक ही नहीं है। रात के अंतिम पहर तक वह स्त्री उसके पास बैठी रही। फिर वह बाहर चली गई। नंबूरी थका-हारा उस पलंग पर लेटा रहा।
जब सुबह हुई तब वहां न महल था न वे स्त्रियां। नंबूरी ने पाया कि वह एक बहुत बड़े ताड़ वृक्ष के ऊपर बैठा है।
बड़ी मुश्किल से वह उस पर से नीचे उतरा। तब उसने देखा कि उसके पास वाले वृक्ष के नीचे भट्टतिरी के नाखून और शिखा पड़े हुए हैं। नंबूरी समझ गया कि दोनों स्त्रियां वास्तव में नरभक्षी यक्षियां थीं और उन्होंने अपने मायाबल से ताड़ वृक्षों को महल का आभास दे दिया था और दूसरी यक्षी ने भट्टतिरी को खा लिया है। उसके पास देवीमाहात्म्य का ग्रंथ होने से वह बच गया। उत्सव जाने की बात सब भूलकर वह तुरंत घर की ओर लौट पड़ा।
उस दिन जिस भट्टतिरी का दुखद अंत हुआ था, उसके सिवा उसके घर में और कोई पुरुष नहीं था। दिवंगत भट्टतिरी की पत्नी उन दिनों गर्भवती थी। नंबूरी ने जाकर भट्टतिरी की मृत्यु की शोकवार्ता भट्टतिरी की पत्नी से कही। उसे सुनकर विधवा हुई उस अभागी स्त्री को अत्यंत शोक हुआ। उस पतिव्रता ने अपने पति का अंतिम संस्कार सब विधिवत कराया। कुछ समय बाद उस स्त्री को एक अत्यंत तेजस्वी पुत्र पैदा हुआ। स्त्री ने बालक का जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, उपनयन, समावर्तन आदि सब यथासमय उचित ढंग से किया। उसे भली प्रकार से विद्याभ्यास, वेदाध्ययन आदि सब कराया। अत्यंत बुद्धिशाली वह बालक सोलह साल की उम्र में ही वेदवेदांतपारंगत और सभी शास्त्रपुराणों का ज्ञाता हो गया।
(... जारी)
31 मई, 2009
16. कालड़ी के भट्टतिरी - 1
लेबल: कालड़ी के भट्टतिरी
Subscribe to:
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
4 Comments:
फिर क्या हुआ?
प्रतीक्षा में..
दक्षिण की कहानियों में सस्पेंस गजब का होता है। :)
अगली कड़ी शीघ्र दीजिएगा।
aapne keral puran ke bare me achha likha hai. aisa lagta aapko itihas ki bhi achhi jankari hai.jankari dene ke liye sukriya.
Post a Comment