17 मई, 2009

10. मुट्टस्सु नंबूरी -2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

एक बार ये नंबूरी कहीं गए थे। वहां उन्होंने एक शास्त्री को कुछ बालकों से संस्कृत महाकाव्यों का पाठ कराते देखा। शास्त्री की पढ़ाने की रीति और बच्चों के पढ़ने आदि को देखते हुए ये नंबूरी वहीं कुछ देर रुक गए। इस बीच शास्त्री लघु-शंका निवारण के लिए तालाब के किनारे गए। उस समय एक बालक जो रघुवंश पढ़ रहा था, एक शब्द का अर्थ समझ न सकने से पढ़ते-पढ़ते रुक गया। यह देखकर नंबूरी ने उससे पूछा, "क्या बात है, चुप क्यों हो गए?"

बालकः- एक शब्द का अर्थ समझ नहीं पड़ रहा है।

नंबूरीः- किस शब्द का?

बालकः- "करी" वाला यह शब्द।

नंबूरीः- वह मैं बताए देता हूं। "कोयले का टुकड़ा" यों कह दो बस। (मलयालम शब्द "करी" का अर्थ होता है "कोयला")।

माघ का पारायण करनेवाला दूसरा बालकः- "अच्छस्फटिकाक्षमला" इसका तात्पर्य मुझे भी नहीं मालूम पड़ रहा।

नंबूरीः- "अच्छस्फटिकाक्षमाला", यानी अच्छन (मलयलाम के इस शब्द का अर्थ होता है पिता) की स्फटिकाक्षमाला। अच्छन यानी मां का जार, नायर। स्फटिकाक्षमाला क्या है, यह मुझे भी नहीं मालूम। शास्त्री से ही पूछ लेना।

चूंकि नंबूरी ने यह सब एकदम गंभीर मुख मुद्रा बनाकर कहा था, बच्चे उनकी बात मानकर वैसा ही पढ़ने लगे। तब तक शास्त्री लौट आए और बच्चों को इस प्रकार की बेरसिरपैर की बातें बकते हुए देखकर बहुत नाराज हुए। तब बच्चों ने कहा कि नंबूरी ने उन्हें इस प्रकार कहने को कहा है। यह सुनकर शास्त्री और नंबूरी में नोक-झोंक शुरू हो गई।

शास्त्रीः- यह क्या नंबूरी! तुमने बच्चों को इस प्रकार की ऊटपटांग बातें क्यों सिखाई?

नंबूरीः- तेरी अपढ़ता के कारण ही तुझे यह सब ऊटपटांग लग रहा है। अपने आपको बहुत बड़ा शास्त्री बताने और अध्यापक बनकर इतराने से कुछ नहीं होता, प्यारे। थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर ही दूसरों को पढ़ाने बैठना चाहिए। नहीं तो कम से कम जानकार लोगों की सलाह मान लेने की तमीज होनी चाहिए।

शास्त्रीः- अच्छा! तब तू अपने आपको मुझसे बड़ा विद्वान समझता है, क्यों?

नंबूरीः- इसमें तुझे इतना संदेह क्यों हो रहा है, रे? अभी मैं एक सवाल पूछूं तो तारे नजर आने लगेंगे।

शास्त्रीः- ऐसी बात है? तब पूछ कर ही देख ले।

नंबूरीः- तूने अमरकोश पढ़ा है कि नहीं ?

शास्त्रीः- पढ़ा है, उससे तुझे क्या लेना-देना है?

नंबूरीः- उसी में से एक सवाल करता हूं। "इंदिरालोकमाता मा... भार्गवीलोकजननी" वाले श्लोक में "लोकमाता" और "लोकजननी" इन दोनों का एक-साथ प्रयोग क्यों हुआ है? क्या केवल एक से ही काम नहीं चल जाता?

शास्त्रीः- एक से भी काम चल जाता।

नंबूरीः- इसीलिए तो कहता हूं कि तुझे कुछ नहीं आता। अत्यंत संक्षिप्त रूप से लिखे गए इस ग्रंथ के प्रत्येक पद में अति गंभीर तात्पर्य कूट-कूटकर भरा है। इसलिए रचयिता ने अकारण इसमें कोई भी शब्द नहीं रखा है।

शास्त्रीः- तब इन शब्दों के प्रयोग का करण तू ही बता डाल।

नंबूरीः- (ऊपर की ओर और नीचे की ओर बारीबारी से उंगली से इशारा करते हुए) उस लोक की माता और इस लोक की जननी, यही इस पद में कहा गया है। इस प्रयोग से यह पता चलता है कि महालक्ष्मी इहलोक की जननी और परलोक की माता हैं। इनमें से केवल एक शब्द रखा जाता तो उसका यह अर्थ निकलता कि वे केवल एक लोक की ही माता हैं। समझ आया उल्लू? लेकिन समझ में कैसे आता? कुछ पढ़ा-वढ़ा हो तब न?

यों कहकर नंबूरी वहां से उठकर चले गए।

(... अगले लेख में जारी)

4 Comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

रोचक,
जारी रखें।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

वैसे मूत्र शंका की जगह "लघुशंका" शब्द का प्रयोग अधिक upayukat hotaa

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

गिरिजेश जी: इस सुझाव के लिए धन्यवाद। यह परिवर्तन कर दिया है लेख में। इस तरह के अन्य कोई अटपटे अंश हों, तो बताने की कृपा करें, ताकि उन्हें भी सुधारा जा सके।

Astrologer Sidharth said...

सर आपने आदत बिगाड़ दी। रोज बड़ा पढ़ते हैं आज छोटा लेख था सो लगा कि कुछ कम रह गया है। लेकिन था रोचक। जारी रखिएगा।

आभार।

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