(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
कोलत्तु देश का एक ब्राह्मण शस्त्रविद्या सीखने की इच्छा से कोषिक्कोड आया। उन दिनों कोषिक्कोड का मून्नाममुरा राजा (तीसरा राजा या राजकुमार) बहुत ही कुशल योद्धा माना जाता था। इसलिए उसने उसी के पास जाकर अपनी इच्छा प्रकट की। राजा ने संतोषपूर्वक उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और अच्छे मुहूर्त में ब्राह्मण ने शस्त्रविद्या का अभ्यास प्रारंभ किया।
यों जब एक साल बीत गया, तब गुरुरूपी राजा ने शिष्यरूपी ब्राह्मण से पूछा, "अब आपको पकड़ने के लिए आनेवाले कितने लोगों से अपना बचाव कर सकेंगे?" तब ब्राह्मण ने कहा, "दस हजार लोग आएं तो मैं आसानी से उन सबको अपने से दूर रख सकता हूं।" "यह काफी नहीं है। आपको कुछ और अभ्यास करना चाहिए," राजा ने कहा और शिष्य की शिक्षा जारी रखी। ब्राह्मण भी अत्यंत जागरूकता से सीखता रहा। यों जब एक साल और बीता, राजा ने फिर से वही सवाल दुहराया। इस बार ब्राह्मण ने कहा, "पांच हजार लोगों से मैं अपनी रक्षा कर सकता हूं" और राजा ने उत्तर दिया, "अब भी काफी नहीं है," और उसकी शिक्षा जारी रखी।
इस प्रकार हर एक साल के बाद राजा वही सवाल पूछता और शिष्य क्रमशः "दो हजार, एक हजार, पांच सौ, दो सौ इत्यादि लोगों से बच सकता हूं," इस प्रकार घटती संख्या बताता गया। यों जब बारह बरस बीत गए तब राजा ने पूछा, "अब क्या लगता है?" शिष्य ने जवाब दिया, "एक व्यक्ति आए तो शायद मैं अपना बचाव कर लूं।" "यह भी काफी नहीं है। लगता है कुछ समय और आपको अभ्यास करना पड़ेगा," राजा ने कहा और उसकी शिक्षा पुनः जारी रखी और शिष्य एकाग्रता से सीखता रहा। गुरु-शिष्य की इस जोड़ी की ऊपर उल्लिखित प्रश्नोत्तरी से स्पष्ट होता है कि अल्पज्ञान अहंभाव को जन्म देता है। शुरू में ब्राह्मण ने निरोधमार्गों के बजाए आक्रमण-प्रत्याक्रमण के सिद्धांत आत्मसात किए थे और बाद में निरोधमार्ग भी समझ लिए, इसलिए उसने ऊपर बताए ढंग से उत्तर दिए।
कुछ समय और बीतने पर यह ब्राह्मण अव्वल दर्जे का योद्धा बन गया और उसे लगने लगा कि अब मैंने काफी शिक्षा प्राप्त कर ली। लेकिन उस शिष्यवत्सल राजा ने कहा, "अभी आपकी पढ़ाई नहीं पूरी हुई है। शरीर को आंखों के समान बनाना अभी बाकी है।" और शिष्य को सिखाना जारी रखा।
एक दिन यह ब्राह्मण सुबह रोज की भांति अभ्यास करके सारे शरीर पर तेल मलकर स्नान करने निकला। ब्राह्मण चारदीवारी के अंदर बैठकर तेल की मालिश करता था। वहां से बाहर निकलने का जो एकमात्र दरवाजा था उसके दोनों ओर राजा ने एक-एक भालाधारी सिपाही खड़ा कर दिया और उनसे कहा, "जैसे ही ब्राह्मण दरवाजा खोलकर बाहर आए, तुरंत तुम दोनों उस पर एक साथ भाले से एक-एक बार प्रहार करना" और स्वयं पास ही कहीं छिप कर दरवाजे पर नजर टिका दी। ब्राह्मण इस सबके बारे में पूर्णतः अनभिज्ञ था और दरवाजे से बाहर निकला। तुरंत दोनों तरफ से उस पर भाले से हमला हुआ। भाले की चोट लगने के बाद ही उसने दोनों सिपाहियों को देखा। लेकिन उसने तुरंत वहां से छलांग लगा दी। गुरुरूपी राजा आड़ से निकल आया और उसने दोनों भालों की नोक का निरीक्षण किया। उन पर जरा भी तेल नहीं लगा था। ब्राह्मण के शरीर पर कहीं भी वार के निशान नहीं थे। यह देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ और अपने शिष्य से कहा, "इसी को शरीर को आंख के समान बनाना कहते हैं। अब आगे अभ्यास करने की जरूरत नहीं है।" शिष्य ने भी जवाब दिया, "यह सब आप ही की कृपा का फल है।" इसके बाद राजा मंदिर की ओर और ब्राह्मण स्नान करने चले गए। राजा ने अपने प्रिय शिष्य के अभ्यासबल की परीक्षा लेने के लिए ही उस पर भालों का वार करवाया था। यह कहना आवश्यक नहीं होगा कि उसे पूरा विश्वास था कि इससे शिष्य को कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचेगा। आंख पर कोई चीज लगने वाली हो तो आंख अत्यंत तीव्रता से अपने को बंद कर लेती है। इसी प्रकार की चपलता शरीर की भी होनी चाहिए। इसी को कहते हैं, "शरीर का आंख के समान होना"। पूरे वेग से और पूर्ण निःशब्दता से दोनों ओर से भाले चलाने पर, उनकी नोक शरीर से टकराने के पहले छलांग लगा देने के लिए किस हद तक की शारीरिक चपलता चाहिए इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। इसे देखकर गुरु समझ गए कि शिष्य ने अपने शरीर को आंख के समान चपल बना लिया है, इसीलिए उन्होंने निर्देश दिया कि आगे अभ्यास करने की जरूरत नहीं है।
(... जारी)
22 मई, 2009
12. कोल्लेत्ताट्टिल गुरुक्कल -1
लेबल: कोल्लेत्ताट्टिल गुरुक्कल
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5 Comments:
हम भी जारी रखे हुए हैं.
अद्भुत!!
बेहद रोचक एवम प्रेरणादायी ........
दक्षिण भारत की गुरू शिष्य परम्परा में क्षत्रिय से ब्राह्मण को शिक्षा मिलने की कोई भी कथा पहली बार पढ़ रहा हूं। सुंदर कथा और सटीक संदेश।
अल्पज्ञान अहंभाव को जन्म देता है.
..इसे कहते हैं बोधकथा !
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