14 मई, 2009

9. काक्कश्शेरी भट्टतिरी - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

काक्कश्शेरी भट्टतिरी दीक्षांत से पहले ही सर्वज्ञ, वागीश तथा तार्किक हो गए थे। इसलिए केरल के सभी ब्राह्मणों ने उनसे प्रार्थना की कि शक्तन तंबुरान की सभा में जाकर वे शास्त्रार्थ में उद्दंडशास्त्री को हराएं। वे तुरंत राजी हो गए। सभा जुड़ने के दिन वे तलियिल देवालय में पहुंचे। उद्दंडशास्त्री के पास एक तोता था जो वाद-विवादों में उनका प्रतिनिधि बनकर भाग लेता था। शास्त्रार्थ के लिए जाते समय शास्त्री इस तोते को भी साथ ले जाते थे। काक्कश्शेरी भट्टतिरी उनकी इस आदत से परिचित थे। इसलिए उन्होंने सेवक द्वारा एक बिल्ली भी उठवा ली। उस सेवक को सभागृह के बाहर खड़ा करके वे स्वयं अंदर प्रविष्ट हुए। सभागृह में शक्तन तंबुरान, उद्दंडशास्त्री व अनेक विद्वान एकत्र थे।

तंबुरान ने भट्टतिरी को देखकर कहा (उस समय भट्टतिरी ब्रह्मचारी ही थे):- "बेटे, यहां किस लिए आए हो? शास्त्रार्थ में भाग लेना चाहते हो?" भट्टतिरी ने उत्तर दिया, "हां"। तब शास्त्री ने टोका, "आकारो ह्रस्वः!" तुरंत भट्टतिरी ने जवाब दिया, "नहि, नह्याकारो दीर्घः। अकारो ह्रस्वः" (अर्थात, नहीं, आकार दीर्घ है ह्रस्व तो अकार है)। शास्त्री ने भट्टतिरी के छोटे कद (आकार) को देखकर आकारो ह्रस्वः यानी छोटे आकार का--बौना, इस अर्थ में कहा था। भट्टतिरी ने "आकार" का अर्थ "आ" अक्षर लेते हुए उत्तर दिया और पासा शास्त्री पर पलट दिया। शास्त्री को हार स्वीकार करनी पड़ी, और वे बहुत लज्जित हुए।

इस नोंक-झोंक के बाद सभा जुड़ी और वाद-विवाद शुरू हुआ। शास्त्री ने अपने तोते को सामने रख दिया। तुरंत भट्टतिरी ने अपनी बिल्ली को मंगवाकर तोते के सामने बैठा दिया। बिल्ली को देखकर तोते को मानो सांप सूंघ गया और वह कुछ न बोल सका। इसलिए स्वयं शास्त्री को सामने आना पड़ा। शास्त्री जो कुछ भी कहते, उस सबको भट्टतिरी गलत बताते और युक्तिपूर्वक अपनी बात की पुष्टि करते। जब यह स्पष्ट हो गया कि लाख कोशिश करने पर भी शास्त्री भट्टतिरी को हरा नहीं सकते, तब शक्तन तंबुरान ने कहा, "अब अधिक शास्त्रार्थ व्यर्थ है। रघुवंश काव्य के प्रथम श्लोक का आपमें से जो अधिक संख्या में अर्थ बताएगा, उसी को विजयी मान लिया जाएगा।" तंबुरान को विश्वास था कि शास्त्री के समान कोई भी इस श्लोक का अर्थ नहीं बता सकता। वे उस योग्य ब्राह्मण को इस प्रकार एक नौसिखिए से हारते हुए देखना नहीं चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उद्दंडशास्त्री के अनुकूल बात कही थी। दोनों प्रतिद्वंद्वियों ने राजा की बात मान ली। शास्त्री ने पहले अर्थ बताना शुरू किया और श्लोक की चार प्रकार से अर्थ निष्पत्ति की। यह सुनकर राजा तथा सभा के सभी सदस्यों ने यही सोचा कि इससे अधिक अर्थ इस श्लोक के हो ही नहीं सकते और सभी १०८ पुरस्कार शास्त्री के हिस्से में जाएंगे। लेकिन भट्टतिरी ने उस श्लोक के आठ अर्थ शास्त्री से भी अधिक स्पष्टता से, सरलता से, पूर्णता से तथा अक्लिष्ट रूप से बताए। यह सुनकर स्वयं शास्त्री ने अपनी हार मान ली। सभी १०८ पुरस्कार भट्टतिरी को मिले। तब शास्त्री ने कहा, "सबसे अधिक आयु वाले व्यक्ति के लिए निश्चित पुरस्कार मुझे मिलना चाहिए। यहां इकट्ठा हुए लोगों में मुझसे अधिक आयु वाला कोई नहीं है।" तुरंत भट्टतिरी ने कहा, "यदि उम्र ही मुख्य अर्हता है तो इस थैली का हकदार मेरा यह सेवक है जो पूरे पचासी वर्ष का है। मुझसे अधिक विद्यावृद्धता किसी की नहीं है, यह तो आप सब मान ही चुके हैं। इसलिए यह आखिरी पुरस्कार भी मुझे ही मिलना चाहिए।" क्यों कहानी व्यर्थ बढ़ाएं! युक्ति से भट्टतिरी को पराजित करनेवाला कोई और न होने से १०९वां पुरस्कार भी उन्हीं को देना पड़ा। उद्दंडशास्त्री व अन्य सभी परदेशी ब्राह्मणों का सिर लज्जा से नत हो गया और केरल के ब्राह्मण खुशी से फूले न समाए।

इसके बाद भी अनेक स्थानों पर और अनेक अवसरों पर उद्दंडशास्त्री और भट्टतिरी के बीच शास्त्रार्थ हुए। सभी में भट्टतिरी विजयी रहे। इन सभी मौकों पर काफी असभ्यतापूर्ण बातें कही गई थीं, इसलिए तथा विस्तार भय से मैं उन सबका विवरण यहां नहीं दे रहा हूं।

(... अगले लेख में जारी)

5 Comments:

P.N. Subramanian said...

मजा आ रहा है. पठन जारी है. आप भी जारी रखें. आभार

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

केरल की कथाओं और उनके माध्यम से केरल को जानने का मेरा कार्यक्रम इस ब्लॉग के माध्यम से बढिया चल रहा है.

निरंतरता बनाएं रखें. अगर हो सके तो मोपला उत्पात के बारे में भी कुछ लिखें. मेरी जानकारी सावरकर के मोपला उपन्यास और सेकुलरी दुष्प्रचार तक ही सीमित है. वहाँ के साहित्त्य में मोपला उत्पात के बारे में क्या उपलब्ध है?

RAJ said...

I am feeling great to know about shri Kakksheri Bhhattatari.....
Really Very well written ...
Please give some more explanation in Hindi I am unable to find exact meaning of shlokes.

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

गिरिरेशजी:- मेरा इरादा केरल पुराण को केरल के बारे में जानकारियों से भरा-पूरा ब्लोग बनाने का है। इसलिए मोपिल्ला तथा केरल से संबंधित अन्य विषयों के बारे में मैं जरूर लिखूंगा। फिलहाल ऐदीह्यमाला के अनुवाद में व्यस्त हूं। इसमें मोपिल्ला अर्थात केरल के मुसलमानों के बारे में अधिक कुछ नहीं है। असल में मोप्पिल्ला इतिहास का विषय है। के एम पणिक्कर आदि इतिहासकारों ने इस विषय पर काफी कुछ लिखा है। इनकी किताबें अच्छे पु्स्तकालयों में उपलब्ध होनी चाहिए।

फिर भी, कोशिश करूंगा, और यदि मोप्पिल्लों के बारे में कुछ जानकारी मिली तो यहां पोस्ट करूंगा।

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

राज जी: इन कहानियों में जो श्लोक आए हैं, वे या तो संस्कृत के हैं या मलिप्रवालम नाम की एक भाषा के। मलिप्रवालम मलयालम भाषा का आदि रूप है और यह संस्कृत वाक्यों में मलयालम के शब्द और यहां तक कि व्याकरणिक रूप शामिल करके बना है। यह एक प्राचीन भाषा है और इसमें काफी साहित्य रचा गया है। पर आधुनिक मलायम इससे काफी भिन्न है। इस लेख में जो दूसरा श्लोक आया है, वह मलिप्रवालम भाषा का है। इस श्लोक का काफी विस्तार से मूल लेखक ने, और इस अनुवाद में मैंने, समझाया है। लेकिन यह केवल उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से समझ में आएगा जो मलयालम भी जानता हो, क्योंकि इसके कई शब्द मलयालम के हैं। यदि आप मलयालम नहीं जानते, तो आपके लिए इस श्लोक का पूरा मजा लेना जरा कठिन होगा।

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