(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
एक बार जब ये एक मंदिर में गए तब वहां उत्सव चल रहा था। किसी कारण से वहां नृत्य के लिए आए हुए नंबियार से उनका मन-मुटाव हो गया। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि इस नंबियार को सबक सिखाना ही होगा। उत्सव का संचालन करनेवाला तहसीलदार मंदिर के रीति-रिवाजों से पूर्णतः अनभिज्ञ और मंदिर की चारदीवारी के अंदर कदम रखने से भी हिचकिचाने वाला सरल मनुष्य था। नंबूरी ने उसके समीप जाकर उसे यह झूठी जानकारी दी कि मंदिर में उत्सव के समय नंबियार मिषाव वाद्य (ढोलक जैसा एक भारी साज) को उठाकर दीपक की प्रदक्षिणा किया करते हैं। इस बार यह रस्म नहीं निभाई जा रही है। यह वाद्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। हुजूर को कुछ फर्क नहीं मालूम पड़ेगा, यही सोचकर नंबियार इस रस्म को छोड़ रहे हैं। इस रस्म का पालन न होना हुजूर की प्रतिष्ठा के लिए बहुत ही बुरा है।"
नंबूरी के इन झूठे वचनों पर विश्वास करके उस सीधे स्वभाव वाले तहसीलदार ने अगले दिन बेचारे नंबियार से महामेरु के समान भारी मिषाव वाद्य को उठवाकर दीपक की प्रदक्षिणा करवाई। केवल एक दिन ऐसा करने पर ही नंबियार के प्राण सूखने लगे। उसे हारकर नंबूरी की शरण में जाना पड़ा। तब नंबूरी ने तहसीलदार को दूसरे प्रकार से फुसलाकर नंबियार की दुर्दशा का अंत करवाया।
फिर एक बार यात्रा के दौरान मुट्टस्सु नंबूरी एक प्रतिष्ठित नंबूरी के घराने में भोजन करने के लिए गए। मुट्टस्सु नंबूरी जानते थे कि यह नंबूरी पथिकों को पीने के लिए पानी तक न देनेवाला महाकंजूस है। इसलिए उन्होंने यहां भी एक तरकीब से ही काम लिया। बरामदे में खड़े होकर उन्होंने धीमी-सी आवाज में खांसा तो घर के अंदर देवाराधना कर रहे गृहस्थ नंबूरी बुरा-सा मुंह बनाकर और लाल-लाल आंखें दिखाते हुए धीमे से बाहर आए और पूछा, "किसलिए आए हो?"
मुट्टस्सु नंबूरीः- मैं यहां से कुछ दूर एक जगह गया था और अब लौट रहा हूं। हमारी पूज्य माताजी का आज श्राद्ध है। यदि संभव हो तो मैं चाहता हूं कि यह श्राद्ध बिना रुकावट के आपके यहां हो जाए। पैसा चाहे जितना खर्च हो, कोई बात नहीं। मेरा आपसे यह भी अनुरोध है कि पुरोहित का स्थान भी आप ही ग्रहण करें। कृपा करके आप यह श्राद्ध करवा दें।
यह सुनकर गृहस्थ नंबूरी ने सोचा कि दक्षिणा और द्रव्य के रूप में काफी माल हथियाया जा सकता है और कहा, "तो क्या आप चतुर्विधि से श्राद्ध कराना पसंद करेंगे?
मुट्टस्सु नंबूरीः- मां का श्राद्ध हर साल इसी विधि से होता आया है। इसलिए इस बार भी चतुर्विधि श्राद्ध ही हो ऐसा मेरा आग्रह है। पैसे की कोई चिंता नहीं है।
गृहस्थः- तब सब प्रबंध हो जाएगा।
मुट्टस्सु नंबूरीः- तब आप कृपा करके तेल आदि लगाकर सुखपूर्वक स्नान करके आएं। तेल का खर्चा जो भी हो, वह मैं दूंगा।
गृहस्थ तुरंत राजी हो गया। फिर अंदर जाकर सब चीजों को यथाशीघ्र तैयार करने का आदेश देकर तेल लेकर मुट्टस्सु नंबूरी के साथ स्नान करने चला गया। मुट्टस्सु नंबूरी क्षणभर में ही स्नान पूरा करके बाहर आ गए और गृहस्थ से बोले, "मैं जाकर सब प्रबंध देखता हूं। आप इत्मीनान से स्नान करके आएं", और गृहस्थ के घर लौट आए। तब तक गृहस्थ की पत्नी ने श्राद्ध के भोजन के लिए आवश्यक सभी व्यंजन तैयार करवाकर उन सबको एक कमरे में रखकर दरवाजा भिड़ाया और अपनी नौकरानी से यह कहते हुए रसोईघर चली गई कि "जरा कह आ कि अब अंदर आया जा सकता है।" यह सुनकर मुट्टस्सु नंबूरी तुरंत कमरे में घुस गए और सभी खिड़की-दरवाजे बंद करके वहां बैठकर स्वयं ही परोसकर श्राद्ध का भोजन करने लगे। कुछ समय बाद गृहस्थ स्नान करके लौटा और दरवाजा खटखटाकर मुट्टस्सु नंबूरी को बुलाने लगा। तब मुट्टस्सु नंबूरी ने कहा, "बस मैं अभी आया। कृपा करके आप दो पल इंतजार करें। यह काम जरा पूरा कर लूं।" और इत्मीनान से खाते रहे। खाना खाकर दाएं हाथ को मोड़कर रखते हुए, बाएं हाथ से जब उन्होंने दरवाजा खोला तो गृहस्थ ने नंबूरी को देखकर कहा, "यह क्या, मां का श्राद्ध है बताकर सब तुम्हीं ने खा डाला?"
मुट्टस्सु नंबूरीः- आप क्रोध न करें। अपनी असावधानी से मुझसे एक गलती हो गई। यहां आने पर ही मुझे इसके बारे में पता चला। आज मेरी मां का श्राद्ध नहीं, मेरा जन्मदिन है। लेकिन इसमें परेशानी की कोई बात नहीं है। भोजन सब अव्वल दर्जे का था। अडप्रदमन (एक प्रकार की खीर) तो लाजवाब थी। सभी व्यंजन अच्छे बने थे।
यह सुनकर गृहस्थ नंबूरी को ऐसा क्रोध चढ़ा कि लाल-लाल आंखें तरेरने के सिवा उससे कुछ बोलते न बना। वह अभी यह सोच ही रहा था कि इसका उत्तर किन शब्दों में दिया जाए कि मुट्टस्सु नंबूरी हाथ धोकर वहां से चलते बने।
ये एक बार आराट्टुप्पुषा का उत्सव देखने गए। इस उत्सव में लोग अपने पास मौजूद सभी पूंजी और जितना भी पैसा उधार मिल सके, उससे सोने-चांदी-हीरे के तरह-तरह के आभूषण बनवाकर, उनसे सिर से पैर तक सजकर जाते थे। लेकिन मुट्टस्सु नंबूरी इस प्रकार नहीं गए। उनके घराने में जितनी कीमती चीजें थीं, उन सबको एक संदूक में डालकर उस संदूक को लिए वे उत्सव में पहुंचे। उत्सव के मैदान में एक पीपल के पेड़ के नीचे इस संदूक को सिर पर रखकर वे खड़े हो गए और उत्सव की गतिविधियां देखने लगे। कुछ लोगों ने उनसे उनकी इस असाधारण व्यवहार का कारण पूछा। तब मुट्टस्सु नंबूरी ने कहा, "प्रत्येक व्यक्ति के पास कितनी धन-दौलत है, यह प्रदर्शित करना ही यहां उद्देश्य है न? नहीं तो ये सब लोग इतने सोने के गहने का बोझ ढोते हुए यहां क्यों आए हैं? मैं भी अपनी कमाई हुई कुछ चीजें यहां लाया हूं। मैंने सोना नहीं वस्तुएं कमाई हैं। इसलिए मुझे उन्हें संदूक में डालकर यहां लाना पड़ा।
जितना वे उठा सकते थे, उससे भी अधिक वजन के आभूषणों के बोझ के बावजूद इतराते बहुत से "योग्यों" की अकड़ यह सुनकर कुछ दूर हो गई, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है।
जब ये पहली बार तिरुवनंतपुरम गए तब मंदिर की घोषयात्रा के दौरान धोती से सिर को पूरा ढक कर मंदिर के चबूतरे में बने पत्थर के एक बड़े हौज में बैठ गए और वहां के राजा पोन्नुतंबुरान को सिर्फ अपना चेहरा दिखाने का यत्न करने लगे। जब राजा की नजर उस हौज की ओर गई तो उन्होंने इस चेहरे को देखकर पूछा, "पत्थर के हौज में कौन बैठा है, उसे पकड़कर यहां लाओ।" फौरन राजसेवकों ने मुट्टस्सु नंबूरी को राजा के सामने हाजिर किया। तब राजा ने उनसे पूछा, "हौज में किस लिए बैठे थे?"
नंबूरीः- यहां आने पर आपको चेहरा दिखाना चाहिए, ऐसा मैंने सुना था। हौज में बैठने पर ऐसा करने में तकलीफ नहीं होगी, यह सोचकर मैं उसमें बैठ गया।
यह वक्रोक्ति सुनकर राजा नाराज होने के बदले अत्यंत प्रसन्न हुए और नंबूरी को इनाम दिया। यह सब इनके खाए मूकांबिका के त्रिमधुर प्रसाद का माहात्म्य था। ये चाहे जो कहें या करें, उससे इन्हें कोई हानि नहीं होती थी। ये हर साल त्रिप्पूणित्तरा के पूरम (उत्सव) में भाग लेने जाते थे। आट्टम (नाटक), ओट्टम तुल्लल (नृत्य-नाटिका), ञाणिन्मेलक्कलि (तनी हुई रस्सी पर नृत्य), वालेरु (तलवार फेंकने की स्पर्धा), चेप्पडिविद्या (बाजीगिरी), अम्मानाट्टम (एक प्रकार का खेल जिसमें गेंद को फेंककर पकड़ा जाता है), कुरत्तियाट्टम (मदारियों का एक खेल), आंडियाट्टम (एक प्रकार का धार्मिक नृत्य) आदि सभी में ये भाग लेते थे। कभी-कभी ये अपने स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति को भाग लेने को कहते और बदले में उसे पैसे देते। नाटक के संवाद चूंकि दूसरों से नहीं बुलवाए जा सकते, इसके लिए मुट्टस्सु नंबूरी को स्वयं आना पड़ता। वे नाटक के पात्र का वेष धारण करके दीपक के सामने आकर खड़े हो जाते, बोलते कुछ नहीं, क्योंकि उन्हें पात्र के संवाद याद नहीं होते थे। इसलिए उनके नाटकों को देखने कोई नहीं जाता था। एक बार उन्होंने तय किया कि सभी लोगों को अपनी ओर खींच कर ही रहूंगा। जो तरीका उन्होंने अपनाया वह बहुत सरल था। दोनों हाथों से सिर को थामकर वे जोर से चिल्ला उठे, "हाय, मेरे भाई!" यह सुनकर लोग सब यह जानने के लिए उनके पास दौड़े आए कि माजरा क्या है। तब उन्होंने कहा, "यों चिल्लाते हुए शूर्पणखा अपने भाई खर के पास दौड़ी", और झट से अपना संवाद पूरा कर दिया। यह कहने की जरूरत नहीं कि इस प्रकार छकाए जाने से सभी लोग बहुत झल्लाए।
एक दिन एक अच्छा विद्वान नंबूरी को धिक्कारने के उद्देश्य से उनके पास गया। वह नंबूरी के संवादों को सुनकर उनमें गलती निकालना चाहता था। तब नंबूरी ने
घडा पडा घडपडा घडपाड पाडा
भाडा चडा चड चडा चड चाड चाडा
मूढा कडा कडकडा कडकाड काडा
कूडा कुडा कुडुकडा कडियाडि कूड
इस प्रकार का एक श्लोक कहा और मनमाने ढंग से मूढ़तापूर्ण बातें बताकर उसकी व्याख्या की। इसके तुरंत बाद उस विद्वान ने कहा, "अरे, यह श्लोक किस काव्य का है? इसका अर्थ एक बार और बताएं तो अच्छा।"
नंबूरीः- ऐ, धोबी! तेरे कहने पर सब अर्थ बताने के लिए मैं क्या तेरा शिष्य हूं? काव्य के बारे में जानना है तो ग्रंथों के जानकार किसी पुरुष से जाकर पूछ। मुझे बताने के लिए फुरसत नहीं है। लगता है कि यहां मेरे सिवा कोई और विद्वान आया ही नहीं है।
मुट्टस्सु नंबूरी ने अनेक अवसरों पर अनेक श्लोक मलयालम भाषा में रचे हैं। वे सब कुछ-कुछ अश्लील होने से यहां दिए नहीं जा सकते। ये सभी श्लोक खासे अच्छे बन पड़े हैं।
यात्रक्कली (एक प्रकार का देशी नाटक) के दौरान ये कोंगिणी (बनजारी स्त्री) आदि का वेष धारण करते थे। सुना है कि इनके सब वेष काफी अच्छे होते थे। इनके वचन हमेशा हास्यरसपूर्ण होते थे। वेष धरकर जब ये मंच पर आते थे तब इनके जाने तक कोई अपनी हंसी रोक नहीं पाता था। इनका वेष देखनेवाले बहुत से लोग आज भी जीवित हैं। ये नंबूरी कुछ समय के लिए तिरुवारप्पु में बड़े मेनोन (मंदिर के मुख्य प्रबंधक) के रूप में भी रहे थे।
(समाप्त)
19 मई, 2009
10. मुट्टस्सु नंबूरी - 4
लेबल: मुट्टस्सु नंबूरी
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5 Comments:
Prerak katha.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
इसका मतलब अच्छे मसखरे थे नम्बूरी.
जाकिर अली जी: केरल पुराण में आपका स्वागत है। क्या आपने इसके पूर्व की कहानियां पढ़ीं?
इष्ट देव जी:आपने सही समझा, ये मसखरे ही थे। ऐदीह्यमाला में केरल समुदाय के सभी प्रकार के लोगों की कहानियां हैं। आगे की कहानियों में आते हैं - पहलवान, योद्धा, गृहणी, वैद्य, मुसलमान, शराबी, बावर्ची, और हाथी, जी हां हाथी भी, भूलिए मत हाथी केरल के जीवन का एक अभिन्न अंग है। दरअसल, ऐदीह्यमाला में एक नहीं अनेक गजकथाएं हैं।
बीरबल और तेनालीरामा ने भी बचपन में देवी के प्रसाद के रूप में दही और शहद मिश्रण खाया था। ऐसा कहीं पढ़ा है। अलग अलग। अब नंबूरीजी भी मिल गए। मैंने सोचा था कि यहां भी कोई ज्योतिषी होगा जो ज्ञान एकत्र करने के बाद प्रतिभा दिखाएगा।
अच्छा है यह कोण भी। बताते रहिएगा केरल के बारे में उनके पुराणों के बारे में।
एक नियमित पाठक ...
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