(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
देवी-देवताओं को चर्मचक्षु से देखने की क्षमता रखनेवाले स्वामी विल्वमंगल के संबंध में जो न जानते हों ऐसे व्यक्ति कम से कम केरलवासियों में तो मेरे विचार से अधिक संख्या में नहीं होंगे। इन स्वामी जी के कारण केरल में अनेक देवालयों और रीतिरिवाजों का उद्भव हुआ है। इन सबके संबंध में न जाननेवाले कुछ लोग हो सकते हैं। उनकी जानकारी के लिए मैं इन स्वामी जी से संबंध रखनेवाले कुछ प्रसंगों का विवरण यहां देता हूं।
जब एक बार वृच्चिक माह में कार्ती के दिन स्वामी विल्वमंगल तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन देवालय में भगवद-दर्शन के लिए गए तो उन्होंने पाया कि भगवान गर्भगृह से गायब हैं। भगवान की अनुपस्थिति में उनकी आराधना कैसे करें, यों सोचकर वे बाहर आकर गर्भगृह की प्रदक्षिणा करने लगे। तब उन्होंने देखा कि भगवान देवालय की उत्तरी दीवार पर चढ़कर बड़े ध्यान से उत्तर की ओर देख रहे हैं। स्वामी तुरंत उनके पास गए और उनकी वंदना करके विनीत स्वर में पूछा, "यह क्या, आप यहां पधारे हुए हैं!" तब भगवान ने कहा, "अपनी परम प्रिय कुमारनेल्लूर कार्त्त्यायनी को स्नान आदि के बाद बड़े आडंबर और आघोष के साथ जाते हुए देखने के लिए ही मैं यहां आया हूं।" (उत्सव के अंतिम दिन सभी मंदिरों में मूर्ति का प्रक्षालन रात को ही होता है, लेकिन कुमारनेल्लूर में उत्सव के दिन प्रतिदिन सुबह भी मूर्ति का प्रक्षालन होता है और उसके बाद उसे सजाकर बड़ी धूम-धाम से घोषयात्रा में निकाला जाता है। यह घोषयात्रा नौवें दिन कार्ती के पर्व पर बहुत महत्वपूर्ण और दर्शनीय होती है।) उस दिन से प्रति वर्ष वृच्चिक महीने में कार्ती के दिन तृश्शिवपेरूर वडक्कुमनाथन देव की एक पूजा उत्तरी दीवार पर भी करने की परिपाटी चल पड़ी। इस रस्म के पीछे यही मान्यता है कि हर साल इस दिन भगवान कुमारनेल्लूर भगवती की घोषयात्रा देखने के लिए उत्तरी दीवार पर चढ़ते हैं। भगवान की इस आदत की जानकारी लोगों को स्वामी विल्वमंगल के कारण ही मिली, यह कहना जरूरी नहीं है।
एक अष्टमी के दिन जब स्वामी भगवद-दर्शन हेतु वैक्कम देवालय गए, तो देवालय भोजन करते ब्राह्मणों से भरा हुआ था। उनकी भीड़ को पार करके भीतर जाने पर स्वामी ने देखा कि भगवान गर्भगृह से नदारद हैं। यह कैसे हो गया, यों विचारते हुए जब उन्होंने सारे देवालय में खोजा तो भगवान को एक वृद्ध ब्राह्मण के वेष में उत्तरी दिशा में स्थित एक भोजनालय में एक खंभे के पास अन्य ब्राह्मणों के साथ बैठकर भोजन करते पाया। यद्यपि भगवान ब्राह्मण के वेष में थे, लेकिन स्वामी तो एक दिव्य पुरुष थे ही, उन्होंने भगवान को क्षण भर में ही पहचान लिया और उनके पास जाकर उनकी वंदना की और जनसाधारण को इस असाधारण घटना की सूचना दे दी। उस दिन से वैक्कम देवालय में आम भोजन के अवसरों पर उस खंभे के पास एक पत्तल भगवान के लिए भी बिछाई जाने लगी और उस पर भोजन के सभी व्यंजन परोसे जाने लगे। इतना ही नहीं वैक्कम में अष्टमी के दिन उत्तरी भोजनालय में भोजन करना अत्यंत विशिष्ट बात है, ऐसी एक मान्यता ब्राह्मणों में पैदा हो गई।
इसी प्रकार उत्सव के समय स्वामी भगवद-दर्शन के लिए अंबलप्पुषा गए। वहां भी देवालय में भगवान गर्भगृह में मौजूद नहीं थे। जब स्वामी गर्भगृह की प्रदक्षिण करने लगे तो उन्होंने देखा कि भगवान एक परदेशी ब्राह्मण का वेष धारण करके नाट्य मंडली के मारारों को भोजन परोस रहे हैं। भगवान के पास जाकर स्वामी ने उनकी स्तुति की और पूछा, "यहां भोजन बनाने-परोसने के लिए बहुतेरे लोग हैं। आप क्यों कष्ट कर रहे हैं?" तब भगवान ने कहा, "इन लोगों ने (मारारों ने) हमारे उत्सव को बड़े भव्य ढंग से संपन्न करने के लिए बहुत परिश्रम किया है। इन्हें पेट भर रुचिकर भोजन कराने में मुझे बहुत संतोष होता है। इसलिए उत्सव का भोजन पकाने-परोसने के लिए मैं हर साल नियमित रूप से यहां आता हूं।" उस दिन से अंबलप्पुषा के उत्सव के दौरान नाट्यशाला में जो आम भोज दिया जाता है, वह मारार लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया। आज भी लोग यही मानते हैं कि इस आम भोज को पकाने और परोसने के लिए स्वयं भगवान आते हैं।
विल्वमंगल स्वामी के संबंध में इस प्रकार की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। तिरुवनंतपुरम, तितवारप्पु आदि देवालयों के उद्भव का मूल कारण ये स्वामी ही थे, ऐसा वहां के स्थलपुराणों से ज्ञात होता है। चेरत्तला की कात्यायनी देवी की प्रतिष्ठा भी विल्वमंगल स्वामी के हाथों से हुई है, ऐसा सुना है। एक बार विल्वमंगल स्वामी चेरत्तला के तट मार्ग से कहीं जा रहे थे। जब वे एक वन प्रदेश में पहुंचे तो उन्होंने सात कन्याओं को स्नान करते हुए देखा। उन्हें शंका हुई कि ये कोई साधारण स्त्रियां नहीं हैं बल्कि देवियां हैं और वे उनके पास गए। तब वे सब वहां से भागने लगीं। स्वामी भी उनके पीछे भागे। इन सातों कन्याओं ने सात अलग-अलग तालाबों में छलांग लगा दी। स्वामी ने भी इनके पीछे इन तालाबों में छलांग लगाकर एक-एक को पकड़ कर अलग-अलग स्थानों पर बैठाया। सातवीं कन्या ने एक कीचड़ भरे तालाब में छलांग लगाई थी। इसलिए उसके सिर पर कीचड़ लग गया। उस कन्या को पकड़कर ले जाने से पहले थके हुए स्वामी कुछ देर तालाब में ही दम लेने के लिए रुके और दौड़ने के परिश्रम से हांफते हुए उस कन्या से बोले, "क्यों री, सिर पर कीच़ड़ लग गया? पुंश्चली! यहां बैठ।" यह कहकर उन्होंने उस कन्या को भी किनारे ले जाकर बैठाया। चूंकि इस कन्या के सिर पर कीचड़ लग गया था, इसलिए इस देवी का नाम "चेरत्तला भगवती" ("चेर" यानी कीचड़, "तला" यानी सिर--ये मलयालम भाषा के शब्द हैं।) हो गया और उस प्रदेश का नाम चेरत्तला पड़ गया। इस प्रकार चेरत्तला की भगवती विल्वमंगल स्वामी द्वारा स्थापित सात भगवतियों में से एक बनीं। इन सात भगवतियों में से सातवीं देवी साक्षात कात्यायनी थीं। चूंकि इनको प्रतिष्ठित करते समय स्वामी ने अपशब्द ("पुंश्चली" अर्थात छिनाल) कहा था, इसलिए इस देवी को असभ्य गीत एवं गाली-गलौज सुनना अत्यंत प्रीतिकर लगता है। चेरत्तला के उत्सव में गाए जानेवाले अश्लील गीत तो प्रसिद्ध ही हैं।
इस प्रकार विल्वमंगल स्वामी के अद्भुत कारनामों और उनके बारे में कथा-प्रसंगों का अंत नहीं है। यदि ये सारी कथाएं सच हैं तो इन सबके नायक स्वामी विल्वमंगल एक नहीं अनेक व्यक्ति रहे होंगे। अथवा उन्हें सामान्य मनुष्य से कहीं अधिक लंबी आयु प्राप्त हुई होगी। इसका कारण यह है कि तिरुवनंतपुरम, तिरुवारप्पु, ऐट्टुमानूर, चेरत्तला आदि स्थलों में जो अनेक देवालय इनके करकमलों से स्थापित बताए जाते हैं, उन सबका निर्माण लगभग सौ सालों के अंतराल में हुआ होना चाहिए। लेकिन इन सब मंदिरों का निर्माण इससे काफी लंबे कालखंड में हुआ है। इसी प्रकार अनेक कथाओं में तुंचेत्तेषुत्तच्चन, तलक्कुलत्तूर भट्टदिरी आदि महात्माओं को इन स्वामी का समकालीन बताया जाता है। यदि ये कथाएं सच हैं तो इन महात्माओं का जीवनकाल भी एक ही होना चाहिए। लेकिन इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि ये सब व्यक्ति अलग-अलग समय में जिए। इन सब विषयों की सूक्ष्म जानकारी रखनेवाले विद्वान पत्रादि से अपना मंतव्य स्पष्ट करें तो मैं उनका आभार मानूंगा।
12 मई, 2009
8. स्वामी विल्वमंगल
लेबल: स्वामी विल्वमंगल
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4 Comments:
चूंकि इनको प्रतिष्ठित करते समय स्वामी ने अपशब्द ("पुंश्चली" अर्थात छिनाल) कहा था, इसलिए इस देवी को असभ्य गीत एवं गाली-गलौज सुनना अत्यंत प्रीतिकर लगता है। चेरत्तला के उत्सव में गाए जानेवाले अश्लील गीत तो प्रसिद्ध ही हैं।"
रोचक है यह जानना । धन्यवाद ।
सुन्दर मिथक. आपका सोचना सही होना चाहिए. निश्चित ही विल्वमंगल एक नहीं अनेकों रहे. ऐसा कहीं बताया भी गया है. भगवती शूद्र लोगों की देवी हुआ करती थी. ब्राह्मण उन मंदिरों की वर्जना करते थे. केरल में वैदिक धर्म की स्थापना के पूर्व शक्ति स्वरूपिणी भगवती का बोल बाला था, वैसे अब भी है. वैसे इस गाली गलौज वाली बात भी सत्य है परन्तु इसके पीछे कहीं बौद्ध धर्मावलम्बियों/जैनियों को भगाने का भी कुछ खेल रहा है.
प्रिय सुब्रमण्यम जी: आप निरंतर इन कथाओं के साथ बने रहे हैं, इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं।
एक स्पष्टीकरण। ये सारी कथाएं कोट्टारत्तिल शंकुण्णि द्वारा लिखी गई ऐदीह्यमाला नामक मलयालम ग्रंथ से ली गई हैं। यहां जो विचार व्यक्त किए गए हैं, उनमें से कोई भी मेरे नहीं हैं। मैं मात्र अनुवाद की भूमिका में अप्रत्यक्ष रूप से इन कथाओं में उपस्थित हूं।
बालसुब्रमण्यम जी,
जिस प्रकार आज भी धार्मिक प्रवचन करने की पीठ को कृष्ण द्वैपायन व्यास के सम्मान में व्यास पीठ कहकर पुकारा जाता है और उस पर प्रवचन कर रहे व्यक्ति को साक्षात व्यास ही माना जाता है या आदि शंकराचार्य के नाम पर वर्तमान पीथाधाक्षों को भी शंकराचार्य ही कहा जाता है, उसी प्रकार प्राचीन काल में कोई भी श्रेष्ठ काम करने वाले को उस परम्परा के आदिपुरुष के नाम से ही पुकारा जाता था. इसलिए भारद्वाज के सारे अनुगामी, उनके गुरुकुल में शिक्षित, या उनकी वंश-परंपरा वाले सभी आज भी अपने को भारद्वाज ही कहते हैं. ठीक उसी तरह
मूल स्वामी विल्वमंगल के बाद प्रत्येक नए मंदिर की स्थापना करने वाले महानुभावों को स्वामी विल्वमंगल ही कहा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं है, ऐसा मेरा अनुमान है.
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