27 मई, 2009

14. पांडंपरंपु की कोडनभरणी का अचार - 1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

कोडन भरणी यानी खोटवाला मर्तबान के अचार की काफी प्रसिद्धि है। पर उनको जो असाधारण विशेषताएं हैं, उनका कारण क्या है, और वह मर्तबान इस देश में कैसे आया। यह ज्यादा लोग नहीं जानते होंगे। इसलिए इसकी कहानी यहां संक्षेप में कहता हूं।

पांडंपरंपु के भट्टतिरी का घराना ब्रिटिश मलबार में आता है। आज यह घराना काफी समृद्ध है, लेकिन इस घराने को पहले घोर गरीबी का मुंह देखना पड़ा था। तब इस घराने के लोगों के पास रोजी-रोटी का कोई साधन नहीं था और वे बड़े कष्ट में जी रहे थे।

उन्हीं दिनों चीन का एक समुद्री व्यापारी अपने जहाज में कई तरह के कीमती सामान भरकर अपने देश से चला। दैवयोग से बीच रास्ते में उसका जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें रखा सब सामान नष्ट हो गया--सिवा दस मर्तबानों के। जहाज में उसके जो साथी थे, उनमें से अधिकांश समुद्र में डूब गए। कुछ ही लोग छोटी नावों में अथवा तैर कर जीवित किनारे पहुंच पाए। इन खुशकिस्मत लोगों में जहाज का मालिक वह चीनी व्यापारी भी था। किसी प्रकार वह एक नाव में चढ़ गया और उन दस चीनी मर्तबानों को भी इस नाव में लादकर वह किनारे पहुंचा और वहां स्थित एक मकान की ओर चल पड़ा। यह मकान पांडंपरंपु के भट्टतिरी का ही था। उन दिनों वह बहुत ही छोटा व टूटा-फूटा था क्योंकि भट्टतिरी पर घोर दारिद्र्य छाया हुआ था और अपने घर की मरम्मत आदि कराना उसके बूते के बाहर था।

उस खंडहरनुमा घर के सामने पहुंचकर चीनी व्यापारी ने जोर से आवाज लगाई, "भई, कोई है? जरा बाहर आइए।" उस समय गृहपति भट्टतिरी अपनी पत्नी व चार-पांच बच्चों सहित चावल की थोड़ी-सी लपसी खाने की तैयारी में था। वह भोजन के लिए बैठने ही वाला था कि व्यापारी की पुकार सुनकर बाहर आ गया। व्यापारी ने उससे कहा, "मैं चीन का एक व्यापारी हूं। मेरा जहाज समुद्र में डूब गया है। मेरे सभी साथी और सभी सामान नष्ट हो गए हैं। मैंने कई दिनों से कुछ नहीं खाया है। यदि आप मुझे थोड़ा भोजन दे सकें, तो मैं आपका बहुत आभार मानूंगा।"

उस व्यापारी की दुखद कथा सुनकर भट्टतिरी का दिल पसीजा और उसने घर के भीतर जाकर अपने हिस्से की लपसी लाकर व्यापारी को खिला दी। उसे खाने के बाद व्यापारी ने कहा, "आप यह सोचकर बिलकुल दुखी न हों कि आप मुझे केवल यह लपसी ही दे सके। आपकी इस लपसी ने मेरे प्राणों की रक्षा की है। इसका स्वाद मैं उम्र भर नहीं भूलूंगा। इस उपकार का प्रतिकार करने की शक्ति मुझमें इस समय नहीं है। लेकिन स्वदेश जाकर यदि मैं कभी यहां दुबारा आया तब मैं अपनी योग्यतानुसार इसका प्रतिफल चुकाऊंगा। इसके अलावा ईश्वर भी आपको इस सत्कर्म का पर्याप्त प्रतिफल अवश्य देंगे। इस समय आप मुझ पर एक और उपकार कर दें। मेरा सभी सामान नष्ट हो गया, लेकिन ये दस मर्तबान मैं किसी प्रकार से बचा सका हूं। स्वदेश जाकर मेरे लौटने तक कृपया इन्हें अपने यहां सुरक्षित रख लें।" तब भट्टतिरी ने कहा, "यहां जगह की कमी है, फिर भी जो जगह है उसी में मर्तबान भी रख लूंगा। उनमें कोई कीमती चीज तो नहीं है न? मकान की हालत जरा खराब है और कीमती चीजें यहां सुरक्षित नहीं रह सकतीं।"

चीनी व्यापारीः- कीमती चीजें इसमें कुछ नहीं हैं। इन सबमें केवल अरहर की दाल भरी है।

भट्टतिरीः- तब तो ठीक है।

चीनी व्यापारी ने दसों मर्तबान भट्टतिरी के घर रखवा दिए और उनका मुंह बंद करके उन पर अपनी मुहर लगाकर स्वदेश लौट गया।

इसके कुछ समय बाद एक दिन उस घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं बचा। दोपहर होते-होते बच्चों को भूख सहना असंभव हो गया और वे धीरे-धीरे कराहते हुए जमीन पर लोटने लगे। पति-पत्नी भी भूख के कारण और अपने बच्चों की पीड़ा देखकर बहुत ही उदास हो गए। तब पत्नी ने कहा, "उस चीनी व्यापारी के मर्तबानों में अरहर की दाल ही तो भरी है। क्यों न हम एक मर्तबान से थोड़ी दाल निकालकर पकाकर इन बच्चों को खिला दें। इस समय वे कुछ भी खाने को तैयार हैं। भूख से इतने बेहाल हो गए हैं। हम दोनों को कुछ न मिले तो कोई बात नहीं, लेकिन इन अबोध बच्चों को अब कुछ न देना बहुत ही बुरी बात होगी। तीसरा पहर होने को आया है।"

भट्टतिरी- वह सब ठीक है। मुझे भी असहनीय भूख लगी है। तुम्हारी भी यही हालत होगी। फिर भी जो व्यक्ति हम पर विश्वास करके अपनी चीज सुरक्षित रखने के लिए हमारे पास छोड़ गया है, उससे पूछे बगैर उसकी अमानत पर हाथ लगाना क्या ठीक होगा? भले ही मौत आ जाए, लेकिन वचनभंग कभी नहीं करना चाहिए।

पत्नी- इन बच्चों की जान बचाने की खातिर यदि हम थोड़ी दाल निकाल लें, तो इससे हमें कुछ भी पाप नहीं लगेगा। हम यह भी तो कर सकते हैं न कि जितनी दाल हम निकालें उतनी उस व्यापारी के लौटने से पहले वापस रख देंगे। यदि हमने ऐसा नहीं भी किया, तब भी हमारी हालत का पता चल जाने पर उसे कोई एतराज नहीं होगा। आखिर वह भी मनुष्य ही है। भूख का कष्ट उसने भी सहा है।

क्यों कहानी व्यर्थ बढ़ाएं? ऊपर बताए अनुसार बहुत देर तक बहस करने के बाद भट्टतिरी एक मर्तबान खोलकर थोड़ी दाल निकालने को राजी हुआ और उसने मर्तबान पर लगी मुहर तोड़कर उसके मुंह के अंदर हाथ डाला। मर्तबान में रखी वस्तु हाथ में आते ही वह समझ गया कि वहां दाल ही नहीं कुछ और भी वस्तु है। रोशनी में देखने पर उसे पता चला कि वह दाल और अशरफियां हैं। दीपक जलाकर उसकी रोशनी में उसने मर्तबान के अंदर झांककर देखा तो पूरे मर्तबान में अशरफियां थीं, बस ऊपर-ऊपर थोड़ी दाल छितरा दी गई थी। दसों मर्तबान खोलकर देखने पर सबमें यही बात पाई। नौ मर्तबान भट्टतिरी ने पूर्ववत बंद कर दिए, लेकिन दसवें में से एक अशरफी निकालकर उससे कुछ चावल, दाल, सब्जी, तेल आदि सामान ले आया। तुरंत गृहिणी ने उन्हें पकाकर बच्चों को खिला दिया।

फिर पति-पत्नी ने भी भोजन किया।

कुछ और दिन बीतने पर भट्टतिरी ने सोचा, "चाहे जो कहा जाए, मुझसे वचनभंग तो हो ही चुका है। अब भी दुस्सह गरीबी को झेलते जाने में कोई अर्थ नहीं है। इसलिए अब सुखपूर्वक रहने का कोई उपाय करना चाहिए। यदि उस व्यापारी को आने में कुछ समय और लग जाए, तो सब ठीक भी कर दूंगा।" यों फैसला करके उसने उस मर्तबान से कुछ और अशरफियां निकालकर एक अत्यंत भव्य अट्टालिका का निर्माण किया। इसके बाद उस भरणी में जो धन बचा था, उससे अनेक प्रकार की वस्तुएं खरीदकर उनका व्यापार शुरू कर दिया। कुछ ही समय में वह अत्यंत धनवान हो गया। बड़े ठाठ-बाट से रहने पर भी उसके पास हर साल दस हजार रुपए बचने लगे। इस पैसे को अशरफियों में बदलकर वह दसवें मर्तबान को भरने लगा और चार-पांच सालों में ही उसने उसे पूरा भर दिया। तब उसने उसका मुंह बंद करके मुहर लगाकर अन्य मर्तबानों के साथ रख दिया। इसके बाद चीनी व्यापारी के मर्तबानों के आधे आकार के दस और मर्तबान खरीदकर उनको भी अशरफियों से भरना शुरू किया। जब वे भी भर गए, तब उन्हें भी बंद करके मुहर लगाकर बाकी मर्तबानों के साथ रखवा दिया।

(... जारी)

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