(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)
शक्तन तंबुरान की सभा में सभी पुरसकार जीत लेने के बाद भट्टतिरी लगातार वर्षों तक इसी प्रकार सभी पुरस्कार जीतते रहे। उन्हें हरा सकने वाला केरल ही में नहीं परदेशों में भी कोई नहीं रहा। चूंकि भट्टतिरी की बुद्धि और ज्ञान में निरंतर वृद्धि होती रही, वयस्क होते-होते वे अद्वितीय हो गए। दीक्षांत के बाद वे अपने घर पर ही स्थायी रूप से रहने लगे और बहुत-से स्थलों का भ्रमण करते रहे। एक बार उन्हें परदेश की किसी यात्रीशाला में रहना पड़ा। वहां अनेक देशों और जातियों के यात्री एकत्र थे। कुछ समय बाद किसी कारण से उनमें झगड़ा छिड़ गया और मारपीट तक की नौबत आ गई। सभी एक-दूसरे को गालियां भी दे रहे थे। तब उनमें से एक ने जाकर राजकर्मचारियों से शिकायत की। उन्होंने सभी यात्रियों को पकड़वा लिया। तब दोनों विरोधी दलों ने अपने-अपने संगठनों को सूचित किया और उनसे मदद मांगी और कहा कि हम निर्दोष हैं। तब राजकर्मचारियों ने कहा, "क्या आप किसी प्रत्यक्षदर्शी को पेश कर सकते हैं?" तुरंत दोनों पक्षों के लोगों ने कहा, "हां, वहां केरल का एक ब्राह्मण मौजूद था। उसने सब कुछ सुना और देखा-समझा होगा।" कर्मचारियों ने भट्टतिरी को भी पकड़वाकर मंगवाया और उनसे पूछा। तब भट्टतिरी ने वहां घटी सभी घटनाओं का सच्चा विवरण प्रस्तुत किया। कर्मचारियों ने कहा, "इन दोनों दलों ने क्या-क्या असभ्य बातें कहीं, यह भी आप बताएं।" इसके उत्तर में भट्टतिरी ने कहा, "मुझे इन सबकी भाषाओं का ज्ञान नहीं है। इसलिए इनके शब्दों का अर्थ मैं नहीं जानता। लेकिन इन्होंने क्या-क्या कहा था, वह मैं आपको बताए देता हूं।" यह कहकर भट्टतिरी ने दोनों पक्षों के लोगों ने जो-जो शब्द कहे थे, वे सब यथाक्रम कह डाले। कन्नड, तेलुगु, मराठी, हिंदी, तमिल आदि अनेक अपरिचित भाषाओं में अनेक लोगों द्वारा झगड़े में कहे गए सभी शब्दों को क्रमानुसार याद रखना और दूसरे स्थान पर यथाक्रम बिना एक अक्षर भी चूके कह पाना उनके अद्भुत स्मरण शक्ति का परिचायक था।
भट्टतिरी छुआछूत, शुद्धि-अशुद्धि आदि अंधविश्वासों को नहीं मानते थे। वे किसी के भी बुलाने पर उनके यहां जाकर भोजन कर आते थे। वे सभी मंदिरों और ब्राह्मणालयों में जाते थे और सभी से हिलते-मिलते थे। स्नान भी सुख और स्वच्छता के लिए ही करते थे, न कि शुद्धि के विचार से। यह सब देखकर केरल के अन्य ब्राह्मणों को बहुत परेशानी होने लगी। वे सब भट्टतिरी के पीठ पीछे कहते कि शुद्धाशुद्ध का विचार न करनेवाले और देश के रीति-रिवाजों का पालन न करनेवाले इस व्यक्ति को हमारे घरों और मंदिरों में घुसने नहीं देना चाहिए। लेकिन उनके आगे कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी। वे सब जानते थे कि भट्टतिरी के आगे युक्ति एवं शास्त्र के प्रमाणों से अपनी बात सिद्ध करने की योग्यता उनमें से किसी में भी नहीं है।
एक बार जब तलियिल मंदिर की ब्राह्मणसभा में हर बार की तरह भट्टतिरी पुरस्कार की सभी थैलियां जीतकर जा रहे थे, तब कुछ ब्राह्मणों के साथ उनका इस प्रकार संभाषण हुआः-
ब्राह्मण लोगः- आपदि किं करणीयम्?
भट्टतिरीः- स्मरणीयं चरणयुगलम्बायाः।
ब्राह्मण लोगः- तत्स्मरणं किं कुरुते।
भट्टतिरीः- ब्रह्मादीनपि च किंकरीकुरुते।
भट्टतिरी उन सबके लिए मुसीबत बन गए थे और भट्टतिरी से छुटकारा पाना उनके लिए बहुत आवश्यक हो गया था। इसीलिए ब्राह्मणों ने उनसे पूछा था, "मुसीबत में क्या करना चाहिए?" भट्टतिरी ने उत्तर दिया, "देवी के चरणों का स्मरण करना चाहिए" ब्राह्मणों ने फिर पूछा, "देवी के चरणों के स्मरण से क्या होगा?" भट्टतिरी ने उत्तर दिया। "वह ब्रह्मा तक को आपका सेवक बना सकता है।" इसके बाद वे सब चले गए।
अगले ही दिन सभी ब्राह्मणों ने मिलकर पद्म का चिह्न बनाया और उस पर दीपक रखकर देवी की पूजा अनेक प्रकार के मंत्रों और पुष्पों से करने लगे। यों जब चालीस दिन की भगवती सेवा पूरी हुई और इकतालीसवें दिन भट्टतिरी वहां आए तो बाहर ही खड़े होकर उन्होंने ब्राह्मणों से पीने के लिए पानी मांगा। तुरंत एक व्यक्ति एक बर्तन में पानी लेकर आया और उसे भट्टतिरी को दिया। भट्टतिरी ने उसे लेकर पिया और बर्तन को उलटकर रखते हुए कहा, "मैं भ्रष्ट हो गया हूं। मैं अंदर नहीं आऊंगा और आप सबको नहीं छुऊंगा।" यह कहकर वे वहां से चले गए। इसके बाद किसी ने भी उन्हें नहीं देखा। इसलिए उनका निधन कहां और कब हुआ इसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। उनके जीवनकाल के बारे में भी कोई मजबूत सबूत उपलब्ध नहीं है। लेकिन अनुमान किया जा सकता है कि वे कोल्लम संवत के ६००-७०० के मध्य विद्यमान थे। उनकी कोई संतान न होने से और उनके घराने में कोई अन्य पुरुष न होने से उनके बाद उनका घराना भी निश्शेष हो गया।
(समाप्त)
15 मई, 2009
9. काक्कश्शेरी भट्टतिरी - 3
लेबल: काक्कश्शेरी भट्टतिरी
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3 Comments:
अब तो ऐसा लगने लगा है जैसे मैं भट्टतिरी को जानता हूं।
अद्भुत कथा के लिए आभार।
लेकिन भ्रष्ट होने की बात समझ में नहीं आई.
इष्ट देव जी: कहने का तात्पर्य यही है कि काक्कश्शेरी भट्टतिरी को उन्हीं के बताए हुए तरीके से हराया जा सकता था। अन्य ईर्ष्यालु ब्राह्मणों ने उन्हीं की सलाह पर भगवती की पूजा की, और अपने उद्देश्य में सफल हुए। भट्टतिरि जात-पात, शुद्धाशुद्ध को नहीं मानते थे, पर भगवती पूजा के बाद, इन सबको मानने लगे। और किसी से पानी मांगने का अर्थ होता है हार मानना, इसलिए भट्टतिरी का उन ब्राह्मणों से पानी मांगने के अर्थ है कि भट्टतिरी ने संपूर्ण रूप से अपनी हार मान ली।
इस पुस्तक की कई कहानियां ऊंटपटांग हैं और यदि हम उनसे तार्किक संगति की आशा करें, तो हमें निराश होना पड़ेगा। इन कहानियों का रस लेने का सही तरीका यही है कि इन्हें हम उसी प्रकार स्वीकारें जिस तरह हम हिंदी फिल्मों को स्वीकारते हैं, यानी बहुत कुछ बुद्धि को ताक पर रखकर!
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