09 मई, 2009

7. तलक्कुलत्तूर भट्टतिरी और पाषूर की कुटियां - 4

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

यह जानते हुए भी कि विधि द्वारा निश्चित घटना को टालना संभव नहीं है, भट्टतिरी ने तय किया कि जहां तक हो सके उसे रोकने का प्रयत्न करना चाहिए, और स्वदेश छोड़कर पाषूर नामक जगह आकर रहने लगे। जिस दिन उनका अधःपतन होनेवाला था, उस दिन स्नानादि नित्यकर्मों व भोजन से निपटकर अपने कुछ परिचितों के साथ नौकाविहार के लिए निकल पड़े। भट्टतिरी का निश्चय था कि पूरा दिन और वह रात पाषूर नदी पर जलक्रीड़ा करते हुए उसी नौका पर बिताऊंगा। दिन भर वे इस प्रकार नदी में ही रहे। शाम होने पर किनारे आकर सभी ने स्नान करके संध्यावंदन आदि क्रियाएं पूरी कीं और पुनः नौका पर चढ़कर जलक्रीड़ा में तल्लीन हो गए। चूंकि चांदनी फैली हुई थी, इसलिए उन्हें किसी प्रकार की भी तकलीफ नहीं हुई। आधी रात होने पर यह सब सुखमय परिस्थिति एकदम बदल गई। अचानक ही मूसलाधार वृष्टि होने लगी और तूफानी हवाएं चलने लगीं। काले घनघोर बादलों ने चांद को इस तरह ढंक दिया कि चारों ओर घुप अंधेरा छा गया। नौका में बैठे लोगों के लिए एक-दूसरे को देख पाना भी असंभव हो गया। नदी का बहाव भी तेज हो गया और नौका में पानी भर जाने से उसके डूबने की नौबत आ गई। मृत्युभय से सभी सोचने लगे कि किसी प्रकार किनारे पहुंच सकें तो कुशल है। लेकिन अंधेरे में यह भी नहीं पता चल पाता था कि कहां पानी है कहां किनारा। नदी के तीव्र बहाव के कारण पूरे जोर से खेने पर भी नौका सीधी दिशा में नहीं जाती थी। सब मिलाकर वे भयंकर मुसीबत में फंस गए थे। क्यों कहानी व्यर्थ बढ़ाएं, कुछ समय बाद वह नौका किसी प्रकार किसी अनजान किनारे पर आ लगी। जमीन पर उतर कर सभी व्यक्तियों ने ठंड से ठिठुरते हुए आस-पास के गृहों में जा-जाकर शरण ली। सभी मित्रों के यों चले जाने पर भट्टतिरी अकेले पड़ गए। हवा और वर्षा के थपेड़ों के कारण जब ठंड असह्य हो उठी तो वे अंधेरे में टटोलते-टटोलते आगे बढ़ने लगे। बिजली के कौंधने की रोशनी में उन्हें एक दरवाजा दिखाई दिया। वे उसी की ओर बढ़े और दरवाजा खोलकर अंदर प्रविष्ट हुए और अपनी धोती व अन्य सभी वस्त्र उतारकर उन्हें निचोड़ डाला और उन्हीं से अपने शरीर को पोंछा। जब एक बार फिर बिजली कौंधी तो उन्होंने देखा कि कमरे में एक पलंग पर बिस्तर और तकिया रखा हुआ है।

"यह चाहे जिसका हो, इस समय मैं यहां लेटूंगा", यों मन ही मन कहकर वे पलंग पर चढ़कर बिस्तर पर लेट गए। जलक्रीड़ा और शाम का भोजन चूकने से वे बहुत थक गए थे। लेटते ही उन्हें गहरी नींद आ गई। जिस पलंग पर भट्टतिरी सो गए थे, वह उस घर के मालिक का था। वह एक शराबी था और उस रात अपनी पत्नी से झगड़ा करके कहीं चला गया था। इसीलिए बिस्तर खाली था।

भट्टतिरी के सो जाने के कुछ समय बाद बारिश थमी और पहले जैसे आसमान साफ हो गया और चांदनी फैल गई। तब एक सुंदर स्त्री उस कमरे का दरवाजा खोलकर लघु शंका निवारण हेतु या अन्य किसी उद्देश्य से बाहर निकली। जब वह लौटी तो उसका ध्यान पलंग पर लेटे व्यक्ति की ओर गया। उसने यही समझा कि वह उसके पति हैं जो रात को लौटे हैं और उसे जगाना उचित न समझकर पलंग पर लेट गए हैं। यह सोचकर वह स्त्री भी भट्टतिरी के पास जाकर लेट गई। वह स्त्री उस घर के मालिक की पत्नी थी, यह तो कह आए हैं। पानी से भीगे और ठंड से ठिठुरते भट्टतिरी को उस स्त्री का साथ सोना अत्यंत प्रीतिकर लगा। उस समय उन्हें अपने पूर्वनिश्चय याद नहीं रहे और उन्होंने उस स्त्री के साथ सहवास किया। कहा भी गया है, "प्रायः समापन्नविपत्तिकाले द्यियोsपि पुंसां मलिना भवंति"।

सुखपूर्वक उस सुंदरी को भोगने के बाद भट्टतिरी ने नक्षत्र, समय आदि का पता लगाकर उससे पूछा, "तुम कौन हो और किस जाति की हो?" भट्टतिरी की आवाज सुनकर ही उस स्त्री की समझ में आ गया कि ये उसके पति नहीं हैं। वह हड़बड़ाकर उठी और उस अपरिचित पुरुष की वंदना करते हुए उसने लज्जापूर्वक धीमी आवाज में कहा, "यह दासी एक कणियन (भविष्य बताकर और छतरी बनाकर बेचकर जीविका कमानेवाली एक नीच जाति) स्त्री है। भ्रमवश मुझसे जो अपराध हो गया है, उसे मालिक क्षमा करें।" यह सुनकर भट्टतिरी को अपनी स्थिति का खयाल आया। "लिखितमपि ललाटे प्रोंछितुं कः समर्थः" यह विचारकर वे धैर्यपूर्वक बोले, "कोई बात नहीं। तुम इस बात से बिलकुल चिंतित मत होओ। यह सब इश्वर की इच्छा है। तुम अब मुझसे गर्भवती हो गई हो। तुम्हें एक अत्यंत योग्य पुत्र होगा। उसके कारण तुम्हें और तुम्हारे कुल को कीर्ति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी। यह लो, सूर्योदय हुआ जाता है। अब मैं यहां नहीं ठहरूंगा। यदि ईश्वर ने चाहा तो भविष्य में कभी यहां आकर तुम्हें देख जाऊंगा।" यों कहकर भट्टतिरी ने उस स्त्री को अपना परिचय दिया और वहां से चले गए।

इसके बाद उन्होंने काशी आदि पुण्यस्थलों का दर्शन किया और अंत में पांड्य साम्राज्य में जा पहुंचे। वहां उन्होंने कुछ समय निवास किया और वहां भी एक शूद्र स्त्री को पत्नी के रूप में स्वीकार किया और उससे उन्हें एक पुत्र हुआ। इसे उन्होंने स्वयं ही विद्याभ्यास कराया और विशेष रूप से ज्योतिषशास्त्र का उपदेश दिया। यही "उल्लमडयान" नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति थे, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। कुछ अन्य लोगों का कहना है कि उल्लमडयान भट्टतिरी के पुत्र नहीं, शिष्य थे। जो भी हो, बहुत दिनों तक परदेश में निवास के बाद काशीवासी के भेष में वे स्वदेश के लिए चल पड़े।

(... अगले लेख में जारी)

1 Comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

लिखितमपि ललाटे प्रोंछितुं कः समर्थः

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