07 मई, 2009

7. तलक्कुलत्तूर भट्टतिरी और पाषूर की कुटियां - 2

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

जब भट्टतिरी तिरुवनंतपुरम (तिरुविदांकूर राज्य की राजधानी) में रह रहे थे, तब महाराजा ने एक बार उनसे कहा, "क्या आप बता सकते हैं कि कल जब मैं पद्मनाभस्वामी के दर्शन हेतु देवालय जाऊंगा, तब देवालय के अंदर दीवार के किस भाग से प्रवेश करूंगा?" इसके उत्तर में भट्टतिरी ने कहा, "यह मुझे पता है, लेकिन अभी मैं आपको नहीं बताऊंगा। कल जब आप मंदिर में प्रविष्ट होंगे, तब आपको विदित हो जाएगा कि मुझे आपके प्रश्न का उत्तर मालूम है।"

महाराजा साधारणतया दक्षिणी द्वार से मंदिर के अंदर प्रवेश करते थे। भट्टतिरी के साथ यह वार्तालाप होने के अगले दिन राजमहल से निकलकर मंदिर के दक्षिणी द्वार के उत्तर की दीवार की ओर इशारा करके महाराजा ने अपने साथ आए राजकर्मचारियों से कहा, "आज मैं यहां से मंदिर में प्रवेश करूंगा। यहां की दीवार तुड़वा डालिए।" तुरंत कुल्हाड़ियों और हथोड़ों से दीवार तोड़ी जाने लगी। टूटी दीवार के पत्थरों को हटाते समय राजकर्मचारियों को ताड़ का एक पत्र मिला। उसे देखकर महाराजा ने कहा, "वह क्या है? जरा देखूं तो।" जब वह पत्र उनके हाथ में आया तो उन्होंने देखा कि उस पर भट्टतिरी के हस्ताक्षरों में "आप यहां से प्रविष्ट होंगे" लिखा हुआ था। उसे पढ़कर महाराजा बहुत ही प्रसन्न हुए और उनके विस्मय की सीमा न रही। भट्टतिरी तब तक उनके पास पहुंच गए थे। महाराजा ने तुरंत हीरों के दो कंगन मंगाए और उन्हें भट्टतिरी के दोनों हाथों में पहनाया। इसके बाद टूटी हुई दीवार लांघकर मंदिर के अंदर घुसे और यह घोषणा की, "अब इस दीवार की मरम्मत न की जाए और यहां भट्टतिरी की प्रशस्ति में एक नया द्वार बनाया जाए।" आज इस मंदिर में "चेंबकत्तिनमूट्टिल नडा" के नाम से जो द्वार प्रसिद्ध है, उसका यही इतिहास है।

इसी प्रकार से कोषिक्कोड, चिरैक्कल आदि राज परिवारों से भी उन्हें अनगिनत पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्होंने जन्मकुंडलियां लिखकर और प्रश्न विचारकर कुछ ही समय में देश-देशांतर में ख्याति अर्जित की।

भट्टतिरी और सुख्यात स्वामी विल्वमंगल समकालीन थे, ऐसा कुछ सूक्ष्मदर्शी विद्वान कहते हैं। स्वामी का जीवनकाल कोल्लम संवत के ३५०-४५० के बीच होने के अनेक संकेत प्राप्त हुए हैं। इन संकेतों से और भट्टतिरी द्वारा कहे बताए जानेवाले "रक्षेल गोविंदमरखा" नामक कलिसंख्या के इसी कालखंड के आसपास होने से यह माना जा सकता है कि ये दोनों महानुभाव एक ही समय जीवित थे। इस तथ्य को बल देनेवाली एक कथा मैंने सुनी है। उसे मैं नीचे देता हूं।

स्वामी विल्वमंगल पेट की एक अत्यंत कष्टदायक बीमारी से पीड़ित थे। उन्होंने श्रीकृष्ण भगवान से अनेक बार पूछा कि इस असह्य पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए क्या करना चाहिए, लेकिन भगवान ने इस संबंध में कुछ भी नहीं कहा। (यह तो प्रसिद्ध ही है कि स्वामी विल्वमंगल को श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष दर्शन देते थे।)। इसलिए स्वामी ने दक्षिणामूर्ति भक्तमणि "शिवांगल" नामक योगीश्वर से अपनी तकलीफ की चर्चा की और इस योगी ने स्वामी को खाने के लिए थोड़ा सिंदूर दिया, जिसे खाने पर स्वामी के पेट की व्याधि दूर हो गई। इसके बाद एक दिन स्वामी ने अपनी बीमारी से छुटकारा पाने का समाचार श्रीकृष्ण भगवान को कह सुनाया। तब श्रीकृष्ण भगवान ने कहा, "इस जन्म के साथ पूरा हो जाए, यही मैंने सोचा था। अब तुमने उसे तीन जन्म और बढ़ा लिया" और तुरंत अंतर्धान हो गए। यह सुनकर स्वामी अत्यंत बेचैन हो उठे और आगामी जन्मों में मैं क्या-क्या होऊंगा, यह जानने के लिए उन्होंने तलक्कुलत्तूर भट्टतिरी को बुलाकर प्रश्न विचारने को कहा। तब भट्टतिरी ने कहा, "अब आप धामन सांप, सांड और तुलसी के रूप में अवतरित होंगे। इन तीनों जन्मों में मैं भी मनुष्य के रूप में जन्म पाऊंगा। इन सभी जन्मों में आप पर एक-एक विपत्ति आएगी और इनसे आपको बचाने के लिए मैं पास रहूंगा। तुलसी जन्म के बाद आपको मुक्ति मिल जाएगी और आपको फिर सांसारिक दुख नहीं झेलना पड़ेगा।"

(भट्टतिरी के कहे अनुसार स्वामी ने तीन बार जन्म लिया और इन सब जन्मों में भट्टतिरी भी उनके समीप मनुष्य रूप में मौजूद थे, ऐसा मैंने सुना है। स्वामी का तुलसी के रूप में तीसरा जन्म हुआ विष्णु भगवान के एक मंदिर में मूर्ति के प्रक्षालन के बाद तीर्थजल के बहने की नाली के मुहाने के पास। एक दिन पुजारी स्नानादि के बाद प्रतिमा का अभिषेक करके उसे चंदन, पुष्प आदि से सजा रहे थे, तब उन्हें तुलसी की आवश्यकता पड़ी। मंदिर के आंगन में तुलसी की खोज में उन्होंने बाहर झांका। उन्हें नाली के पास तुलसी का एक बहुत छोटा पौधा दिखाई दिया। जब वे उसका एक पत्ता तोड़ने लगे तो पूरा पौधा ही जड़ समेत उखड़कर उनके हाथ में आ गया। यह देखकर मंडप में जप कर रहे एक ब्राह्मण ने कहा, "पूरा पौधा ही भगवान पर चढ़ा दीजिए।" पुजारी ने ऐसा ही किया और वह पौधा मूर्ति में समा गया। यह तुलसी स्वामी विल्वमंगल ही थे और जप करने वाले ब्राह्मण भट्टतिरी, यह कहना आवश्यक नहीं है।)

जन्मांतर के संबंध में भट्टतिरी का वक्तव्य सुनकर स्वामी की बेचैनी कुछ शांत हुई और उन्होंने भट्टतिरी को यथोचित सम्मान देकर स्वगृह भिजवा दिया।

(... अगले लेख में जारी)

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