18 मई, 2009

10. मुट्टस्सु नंबूरी - 3

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

फिर एक बार वे शाम के वक्त अंबलप्पुषा नदी में जाकर स्नान आदि के बाद संध्यावंदन करके मंदिर में गए। उस दिन किसी व्रत-उपवास के कारण वे रात का भोजन न करके केवल कुछ अल्पाहार ही ग्रहण करनेवाले थे। इसका प्रबंध कैसे हो यह विचारते समय उन्होंने मंदिर के एक पुजारी को रात की पूजा के नैवेद्य के अप्पम (एक प्रकार का मिष्टान्न) लेकर अपने रहने के भवन की ओर जाते देखा। नैवेद्य के अप्पम को सुपात्र पथिकों को देने का इस मंदिर का नियम था, लेकिन अर्से से उसे पुजारी ही हड़प लेते थे। यदि पथिकों को देते भी तो दो-एक अप्पम से ज्यादा नहीं। इन सब प्रपंचों की जानकारी मुट्टस्सु नंबूरी को थी। इसलिए वे पुजारी के पीछे लग गए और उसके निवासगृह पहुंच गए।

नंबूरीः- अजी पुजारी जी, इधर के अप्पम यदि कोई खाना चाहे तो एक बार में ज्यादा से ज्यादा कितने खा सकता है?

पुजारीः- बीस से अधिक एक भी अप्पम खाना असंभव होगा।

नंबूरीः- जाइए, जाइए, सौ तक खाना किसी के लिए भी मामूली बात होगी। मेरे जैसा कोई हो तो दो सौ भी गटक जाएगा।

पुजारीः- किसी भी हालत में ऐसा नहीं हो सकता। इतने समर्थ लोग अब भूलोक में पैदा नहीं होते। तीस के ऊपर कोई नहीं खा सकता, इसमें संदेह नहीं।

नंबूरीः- आपको भारी गलतफहमी है। दो सौ तो मैं खाकर दिखा सकता हूं। सच कहता हूं।

यों वे दोनों जोर-जोर से बहस करने लगे। बात यहां तक बढ़ गई कि दोनों में पांच-पांच रुपए की शर्त ही लग गई। "इसका अभी फैसला हो जाएगा," यह कहकर पुजारी ने दो सौ अप्पम निकालकर एक कड़ाही में डाल दिए और कड़ाही नंबूरी के सामने रख दी। नंबूरी वहीं बैठकर धीरे-धीरे अप्पम खाने लगे। दस-पंद्रह अप्पम खा लेने पर उनका पेट भर गया। तब उन्होंने कहा, "अरे पुजारी जी, मैंने नहीं समझा था कि तुम इतने होशियार हो। मैं ही मूर्ख ठहरा। अपने पेट की क्षमता के बारे में मुझसे भी अधिक तुम्हें मालूम है। देखो, मेरा पेट बिलकुल भर गया है। अब एक अप्पम भी मुझसे नहीं खाया जाएगा।

पुजारीः- तब रुपए गिन दो। मैंने तो पहले ही कहा था यह असंभव है।

नंबूरीः- अबे धतूरे के बीज! मंदिर प्रबंधकों ने जो अप्पम राहगीरों के लिए निश्चित किए हैं, उन्हें तू रोज हड़पता है। उनके मूल्य में से वे पांच रुपए काटकर बाकी रुपए मुझ राहगीर के यहां भिजवा दे।"

यों कहकर नंबूरी ने अपनी राह पकड़ी।

फिर एक बार वे एक मंदिर में जा पहुंचे। सुबह का समय था। उस मंदिर का प्रबंध सरकार द्वारा होता था, लेकिन सब अधिकार वहां के वारियर के हाथों में थे। यह वारियर बड़ा धनवान और गर्वीला व्यक्ति था। नंबूरी स्नान करने जब तालाब के किनारे गए, तो वारियर धोती उतारकर बैठा अपने शरीर पर तेल मल रहा था। नंबूरी को देखकर वारियर ने किसी भी प्रकार का शिष्टाचार प्रदर्शित नहीं किया। उस प्रदेश का एक प्रधान व्यक्ति और मंदिर का अधिकारी होने के कारण वारियर सब लोगों के साथ ऐसे ही पेश आता था। नंबूरी इन सब बातों से परिचित थे, इसलिए वे वारियर के पास जाकर बोले, "तेल मालिश हम दोनों साथ मिलकर करते हैं। मुझे भी तेल लगाकर स्नान किए बहुत दिन हो गए।" यह कहकर वे भी वारियर की तरह उनके पात्र से तेल निकालकर अपने शरीर पर मलने लगे। वारियर को बड़े जोरों का गुस्सा आया लेकिन वह उस समय चुप रहा। जल्दी-जल्दी तेल मलकर और वारियर के इंज और ताली (बाल और शरीर धोने के लिए औषधों से बने साबुन जैसे साधन) लेकर क्षणभर में स्नान करके नंबूरी बाहर आए और मंदिर पहुंचे। तब तक दोपहर की पूजा भी समाप्त हो गई थी। देवाराधना सब समाप्त होने पर पुजारी ने सूचना दी कि नमस्कार करने का समय हो गया है। तुरंत नंबूरी खाना खाने बैठ गए। इस मंदिर में दोपहर की पूजा में सरकार की तरफ से खीर का नैवेद्य चढ़ाया जाता था। पूजा के बाद उसे राह चलते किसी योग्य ब्राह्मण को भोजन खिलाते समय परोसा जाता था। लेकिन अर्से से उसे हर रोज वारियर स्वयं अपने घर ले जाकर खा जाता था। यह सब भी मुट्टस्सु नंबूरी को पता था। इसलिए जब भोजन आधा समाप्त हुआ तो परोसनेवाले ब्राह्मण से उन्होंने कहा कि खीर ले आइए। "वारियर की आज्ञा के बिना खीर नहीं परोसी जा सकती," उस ब्राह्मण ने कहा। तब नंबूरी ने कहा, "वारियर ने ही कहा है, निस्संकोच ले आइए।" यह सुनकर उस ब्राह्मण ने खीर परोसा और नंबूरी ने यथेष्ट मात्रा में खीर खाई। पेट भर जाने पर नंबूरी मंदिर के ही चबूतरे पर जाकर लेट गए।

फिर वारियर स्नान-जप आदि समाप्त करके खाना खाने बैठे। भोजन आधा हो जाने पर उन्होंने खीर मांगी। तब परोसने वाली स्त्री ने कहा, "खीर तो उस राहगीर नंबूरी को दे दी गई, ऐसा पाकशाला के ब्राह्मणों ने कहलवाया है।"

वारियरः- अच्छा? उसे किसके कहने पर दिया गया?

स्त्रीः- उस नंबूरी ने हमसे कहा था, वारियर ने ऐसा कहा है।

वारियरः- ओह! शैतान ने झूठ बोलकर खीर साफ कर दी! इस धूर्त से दो सवाल पूछने ही पड़ेंगे। बाकी सब भोजन उसके बाद ही होगा।

यह कहते हुए वारियर झूठे हाथों को टेढ़ा करके परे रखते हुए गुस्से से मंदिर के चबूतरे पर पहुंचा। "खीर लेकर खाने मैंने ही तुमसे कहा था, क्यों?" वारियर ने नंबूरी से कहा।

नंबूरीः- अबे धोबी! तू भी कोई वारियर है! तुझमें है अष्टांगहृदय? पागल कहीं के! मोनपल्ली के महायोग्य शंखुवारियर एक सच्चे अष्टांगहृदयी वारियर हैं। उन्हीं ने मुझसे कहा कि तेल मलकर नहाने के बाद खीर खानी चाहिए। नहीं तो तेरी बात कोई क्यों सुनता। मैं क्या तेरा नौकर लगता हूं?"

नंबूरी की हेकड़ी सुनकर वारियर अवाक रह गया। इससे पहले किसी ने भी उसे यों बेइज्जत नहीं किया था। उसके लिए यह अपमान बिलकुल असहनीय हो गया। कहीं यह अक्खड़ नंबूरी सबके सामने और भी कुछ अंड-बंड बककर मेरी रही-सही इज्ज्त भी मिट्टी में न मिला दे, यह सोचकर बहुत लज्जा के साथ वह अभिमानी व्यक्ति क्षण भर में ही वहां से सरक गया। नंबूरी भी थोड़ी देर बाद उठकर चले गए।

(... अगले लेख में जारी)

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