04 मई, 2009

6. परयी से जन्मा पंदिरम कुल - 7 : पाक्कनार

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐदीह्यमाला का हिंदी रूपांतर)

अब सुप्रसिद्ध पाक्कनार की कुछ कथाएं सुनाकर इस निबंध को समाप्त करना उचित होगा। परयन जाति में पले पाक्कनार का जीविकोपार्जन का साधन सूप बेचना था, जो शायद इसलिए उन्होंने स्वीकारा क्योंकि वे यह दिखाना चाहते थे कि कुलाचार द्वारा सम्मानित वृत्ति से जीविकोपार्जन करना ही उत्तम है।

अपने माता-पिता के श्राद्ध के अवसर पर जब पंदिरम कुल के भाई-बहन अग्निहोत्री के घर एकत्र होते थे तो वे सब कुछ न कुछ विशिष्ट खाद्य पदार्थ ले जाते थे। पाक्कनार मांस लाते थे। इससे अग्निहोत्री की पत्नी तथा श्राद्ध का भोजन करने के लिए निमंत्रित ब्राह्मण को बड़ी परेशानी होती थी। लेकिन पाक्कनार की प्रतिष्ठा के कारण कोई उनसे कुछ कह नहीं पाता था। अग्निहोत्री की पत्नी उन सब पदार्थों को ले जाकर पकाती और न्योते गए ब्राह्मण सहित सभी उन्हें खाते। एक बार पाक्कनार एक मरी हुई गाय का थन काटकर एक पत्ते में लपेटकर ले गए। श्राद्ध का भोजन पकाने का समय हुआ तो अग्निहोत्री की पत्नी ने इस पोटली को खोलकर देखा। जब उसने उसमें गाय का थन देखा, तो उसने निश्चय किया कि चाहे जो हो, इसे तो मैं नहीं पकाऊंगी, और उसे उसी पत्ते में लपेटकर घर के बाहर ले जाकर बरामदे के सामने गाढ़ दिया। सभी भाई-बहन ब्राह्मण को बैठाकर उसे भोजन कराने लगे। एक-एक करके सभी व्यंजन परोसे जाने लगे। जब पाक्कनार ने देखा कि उनकी लाई हुई चीज से बना व्यंजन नहीं परोसा जा रहा है, तब उन्होंने पूछा, "मैं जो चीज लाया था उससे बना व्यंजन कहां है?" अग्निहोत्री की पत्नी ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया और मौन खड़ी रही। अग्निहोत्री द्वारा बाध्य किए जाने पर उसने सारी बातें कह दीं। तब पाक्कनार ने कहा, "देख आइए, उस पर फल आ गए हैं कि नहीं?" अग्निहोत्री की पत्नी ने बरामदे में जाकर देखा तो जहां उसने पाक्कनार द्वारा लाई गई चीज को गाड़ा था, वहां कोवलक्काय (लाल रंग के फलों वाली एक सब्जी) का एक पेड़ उग आया था और उस पर खूब सारे फल भी लगे हुए थे। जब इसकी सूचना अग्निहोत्री की पत्नी ने पाक्कनार को दी, तो उन्होंने कहा, "कुछ फल तोड़कर उनकी सब्जी बनाकर परोसें।" ब्राह्मण का भोजन समाप्त होने से पहले अग्निहोत्री की पत्नी यह सब्जी बना लाई और ब्राह्मण ने उसे खाया। कोवलक्काय की उत्पत्ति इस प्रकार से हुई। आज भी श्राद्ध के भोजन में वह अनिवार्य है। कहावत भी है, "जहां कोवलक्काय और मुर्गी बहुतायत से हों, वहां पितरों के लिए बलि का अन्न देने की आवश्यकता नहीं है।" वह इसलिए कि जहां कोवलक्काय होता है, वहां बलि का अन्न न देने पर भी पितर लोग तृप्त रहते हैं और जहां मुर्गियां होती हैं वहां स्वच्छता का अभाव होता है और इसलिए बलि का अन्न देने का वांछित फल नहीं मिलता, यानी बलि देना न देना एक समान है। इस प्रसंग से कोवलक्काय और पाक्कनार की महिमा का अंदाजा हो जाता है।

एक दिन पाक्कनार और उनकी पत्नी जंगल में लकड़ी बीन रहे थे। पास के मार्ग से एक नंबूरी आने लगे। इन्होंने पाक्कनार को देखकर अलग हटने को कहा। तब पाक्कनार की पत्नी ने उस नंबूरी को सुनाई न दे, ऐसी धीमी आवाज में पाक्कनार से कहा, "जिस व्यक्ति ने अपनी ही बेटी को पत्नी बना लिया हो, उस नीच को आप क्यों रास्ता देते हैं?" तब पाक्कनार ने कहा, "छी, ऐसे नहीं कहते। एक जोंक बची थी, वह तुम्हारे हिस्से में आई।" और दोनों ने नंबूरी के जाने के लिए रास्ता दे दिया। जब नंबूरी आगे बढ़ गए तब पाक्कनार की पत्नी ने कहा, "एक जोंक के बचने की बात मेरी समझ में नहीं आई।" पाक्कनार ने कहा, "उसकी कथा बताता हूं। सुन लो।" और नीचे दी गई कथा सुनाईः-

इन नंबूरी की पत्नी एक दिन जब रात के भोजन के लिए चावल पका रही थी तब बर्तन में एक जोंक गिर गई। उसने इसकी सूचना तुरंत नंबूदिरी को दी। उन्होंने कहा कि ये चावल सेवकों को दे दो और हमारे लिए दूसरे चावल पकाओ। उनकी पत्नी ने ऐसा ही किया। जोंक द्वारा कलुषित भोजन सेवकों को खिलाने के पाप का फल चखाने के लिए परलोक में जोंकों का एक पहाड़ इनके लिए रखा हुआ था। देहांत के बाद जब ये परलोक पहुंचते, तब यमधर्मराज इन्हें वे सब जोंकें खिलाने वाले थे। यह चित्रगुप्त को पता चल गया। नंबूदिरी हर रोज रात के भोजन के बाद "चित्रगुप्ताय नमः" कहकर ही लेटते थे। इसलिए चित्रगुप्त ने सोचा कि ये नंबूरी तो रोज मेरे नाम का स्मरण करते हैं, इसलिए इनका कोई उपकार मुझे कना ही चाहिए। मरने के बाद जब ये यहां आएंगे तो इन्हें ये सब जोंकें खानी पड़ेंगी। इसलिए इस मुसीबत के बारे में इन्हें चेताना चाहिए और इससे बचने का कोई उपाय इन्हें सुझाना चाहिए। यह निश्चय करके चित्रगुप्त तुरंत नंबूदिरी के सामने प्रत्यक्ष हुए। उन्हें देखते ही नंबूरी को विदित हो गया कि वे कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, इसलिए उठकर उनका सम्मान किया और कहा, "हे स्वामी, आप कौन हैं और यहां किस लिए आए हैं, यह सब मैं नहीं जानता, इसलिए कृपा करके आप ही इस संबंध में कुछ कहें।"

चित्रगुप्तः- मैं चित्रगुप्त हूं। आप हर रात लेटने से पहले मेरा नाम-स्मरण करते हैं। आप पर एक बहुत बड़ी विपत्ति मंडरा रही है। उसकी पूर्वसूचना देने मैं यहां आया हूं।

नंबूरीः- (दुबारा हाथ जोड़ते हुए) हे भगवन! वह कौन-सी विपत्ति है? मेरा आपसे विनम्र आग्रह है कि आप विस्तर से कहें।

चित्रगुप्तः- आपने एक दिन जोंक से कलुषित भोजन सेवकों को खिलाया था। इसलिए मरने के बाद जब आप परलोक सिधारेंगे, तो वहां आपके खाने के लिए जोंकों का एक पहाड़ रखा हुआ है। यदि कोई उपाय नहीं किया गया तो आपको उन सब जोंकों को खाना पड़ेगा। जो कोई भी पाप करता है, उसी को उस पाप का फल भी भुगतना पड़ता है। इस व्यवस्था को बदलना मेरे बस की बात नहीं है। इसीलिए मैंने आपको इस विपत्ति की पूर्वसूचना देना उचित समझा।

नंबूरीः- (घबराकर) आप ही बताएं कि इस विपत्ति को टालने के लिए मैं क्या करूं। मैंने अज्ञानवश यह पाप कर दिया। उससे छुटकारे के लिए क्या करना चाहिए यह आप ही बता सकते हैं। मेरा तो सिर चकरा रहा है और कुछ भी नहीं सूझ रहा।

चित्रगुप्तः- ठीक है, मैं एक युक्ति सुझाता हूं। उसी के अनुसार करें। आपकी पुत्री नवयुवती एवं सुंदर है। कुछ समय तक उसका विवाह न कराएं। कल से अपनी सेवा-शुश्रूषा उसी से कराएं और अन्य किसी व्यक्ति को अपने पास आने न दें। इस सबके बारे में किसी से कुछ भी न कहें।

यह सलाह देकर चित्रगुप्त अदृश्य हो गए। अगले ही दिन से उस नंबूरी ने चित्रगुप्त के कहे अनुसार करना शुरू कर दिया। दंत मंजन तैयार कराने से लेकर, पान लगाने, खाना परोसने, बिस्तर बिछाने आदि सभी काम वे अपनी पुत्री से कराने लगे। इन सब कार्यों में किसी और को हाथ लगाने भी नहीं दिया। अपनी पुत्री के प्रति सामान्य से अधिक स्नेह भी जतलाने लगे। यों कुछ दिन बीतने पर उनके बारे में जनता को कुछ बुरी शंकाएं होने लगीं। लोगों ने यहां-वहां फुसफुसाना शुरू कर दिया। कथा घसीटने से क्या लाभ, संक्षेप में यह कि कुछ और दिन बीतने पर सभी लोग उसी तरह की बातें कहने लगे, जैसी कुछ देर पहले तुमने कही थी। अपनी पुत्री के प्रति किसी प्रकार का भी अनुचित भाव न रखने वाले उस शुद्ध ब्राह्मण पर इस प्रकार बिना कारण दोषारोपण करने वालों को परलोक में नंबूरी के लिए रखी हुई जोंकें बांटी जाने लगीं। केवल एक जोंक वहां बची थी। अब वह तुम्हारे हिस्से में आ गई, यही मैं कह रहा था।"

यह सुनकर सब बात पाक्कनार की पत्नी की समझ में आ गई और बेकार में नंबूरी की निंदा करके पाप कमाया, इसका उसे दुख भी हुआ। इस कथा से पता चलता है कि पाक्कनार को परलोक की बातें भी ज्ञात हो जाती थीं।

फिर एक दिन पाक्कनार अपने घर के चबूतरे पर बैठे थे। पास की एक गली में कुछ ब्राह्मणों को जाते हुए उन्होंने देखा। पाक्कनार उठकर उनके पास गए और उनकी वंदना की और पूछा, " आप सब मालिक कहां जा रहे हैं?"

ब्राह्मणः- हम गंगास्नान करने काशी जा रहे हैं।

पाक्कनारः- तब इस दास की एक छड़ी भी साथ लेते जाएं। उसे भी कृपा करके गंगा नदी में डुबोकर लाएं। आपका बड़ा उपकार होगा।

ब्राह्मणः- इसमें क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन इसका प्रयोजन भी हम जान सकें तो अच्छा हो।

पाक्कनारः- वह सब आपके लौटने पर मैं बताऊंगा।

"वह भी ठीक है," कहकर ब्राह्मण पाक्कनार की छड़ी लेकर चले गए। काशी पहुंचकर गंगास्नान करते समय उन्होंने जैसा पाक्कनार ने कहा था, वैसे उस छड़ी को भी गंगा में डुबोया। तब वह छड़ी पानी में ऐसे डूबी मानो कोई व्यक्ति उसे हाथ से पकड़कर नीचे खींच रहा हो। यह देखकर ब्राह्मणों को बड़ा आश्यर्य और विषाद हुआ। "दुर्भाग्य! पाक्कनार की छड़ी तो खो गई। लौटकर उससे क्या कहेंगे। सच्ची बात कहने के सिवा और कोई चारा नहीं है।" यों संभाषण करते हुए उन्होंने स्नान पूरा किया और ऊपर आए। फिर विश्वनाथ दर्शन आदि संपन्न करके उन्होंने अनेक अन्य तीर्थों की यात्रा की और वहां के पवित्र जलों में स्नान किया और अनेक देवालयों का दर्शन करके वापिस पाक्कनार के घर आए। उन्हें देखकर पाक्कनार ने उठकर उनका प्रणाम किया और उनसे पूछा, "इस दास की छड़ी कहां है?"

ब्राह्मणः- छड़ी तो गुम हो गई, पाक्कनार! आप बुरा न मानें। हमारे हाथ से छुट गई थी वह।

पाक्कनारः- कोई बात नहीं, लेकिन वह खोई कहां पर?

ब्राह्मणः- हम लोग काशी तक तो उसे संभालकर ले गए। वहां स्नान करने गंगा में उतरे तो वह छड़ी पानी में खो गई।

तब पाक्कनार ने कहा, "वह गंगा में खो गई? तब तो कुछ बिगड़ा नहीं है।" और वे अपने घर के पिछवाड़े में स्थित तालाब पर गए और कहा, "मेरी छड़ी यहां से प्रकट हो।" तुरंत उस तालाब के पानी में उनकी छड़ी तैरती हुई नजर आई और पाक्कनार ने उसे उठा लिया। यह देखकर इन ब्राह्मणों को विदित हुआ कि पाक्कनार ने उन्हें यही समझाने के लिए वह छड़ी दी थी कि दुनिया के सभी जलाशय गंगा-तुल्य हैं और जिनमें पर्याप्त भक्ति है, उन्हें गंगा-स्नान के लिए काशी जाने की कोई आवश्यकता नहीं। फिर उन सबने पाक्कनार के मन की शुद्धता तथा उनके भक्तिभाव की भरपूर प्रशंसा की और स्वयं अपने मुंह से अपनी अंधश्रद्धा की निंदा की और बहुत लज्जा अनुभव करते हुए वहां से चले गए।

ब्राह्मण कुलश्रेष्ठ आषवांचेरी तंब्राक्कल को "तंब्राक्कल" की पदवी पाक्कनार ने ही दी थी। ऐसा सुना है। तंब्राक्कल ने किसी राजा के यहां हिरण्यगर्भ की पूजा संपन्न की और राजा ने पुरस्कारस्वरूप उन्हें सोने की एक गाय दी। उसे बांधकर कुछ सेवकों द्वारा उठवाकर वे अपने घर जा रहे थे। पाक्कनार ने उन्हें यों जाते हुए देखा, तो तुरंत उनका रास्ता रोकर खड़े हो गए और उन्हें चुनौती दी, "मरे हुए पशु पर अधिकार इस दास का है। इसलिए यह गाय मुझे सौंप दें।"

तंब्राक्कलः- मरी हुई नहीं है, जिंदा है।

पाक्कनारः- तब बांधकर उठाने की क्या जरूरत है? यदि जिंदा है तो उसे चलाकर दिखाइए।

तब तंब्राक्कल ने अपने सेवकों से उस गाय को जमीन पर खड़ा करने के लिए कहा। उन्होंने ऐसा ही किया और गाय पर बंधी रस्सियां खोल दीं। तंब्राक्कल ने पास से कुछ घास उखाड़ी और उसे गाय के सामने दिखाकर वे आगे बढ़े। उनकी तपःशक्ति के प्रताप से वह सोने की बनी अचेतन गाय उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। यह देखकर पाक्कनार दूर हट गए और तंब्राक्कल के सामने हाथ जोड़कर कहा, "सभी तंब्राक्कल (राजा) राजा होते हैं, लेकिन असली राजा तो आषुवांचेरी ही हैं।" उस दिन से उनका नाम तंब्राक्कल ही हो गया। आज भी सब लोग ऐसा ही कहते हैं। शुद्ध शब्द तो तंबुराक्कल है, परंतु नीच कुल में पले पाक्कनार ने उसका अशुद्ध उच्चारण तंब्राक्कल किया होगा। लेकिन पाक्कनार की प्रतिष्ठा के कारण सभी लोगों ने इसी गलत उच्चारण को ही स्वीकार कर लिया। इससे ही पता चलता है कि पाक्कनार कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे।

इस प्रकार इन महात्माओं की कथाएं अनंत हैं। ऊपर उल्लिखित अग्निहोत्री, नाराणत्तुभ्रांतन, अकवूर चाथन, पेरुंदच्चन और पाक्कनार के समान वडुतल नायर, कारय्खल माता, उप्पुकूट्टन, तिरुवरंकत्तु पाणनार, वल्लोन, रजकन आदि भी दिव्य पुरुष थे। उन्होंने भी अनेक चमत्कारी कार्य किए होंगे, लेकिन इन अंतिम छह व्यक्तियों की कथाएं उतनी प्रसिद्ध नहीं हैं। अग्निहोत्री, रजकन, पेरुंदच्चन, वल्लोन, पाणनार और पाक्कनार किस जाति के थे यह उनके नाम से और उनके जीवन-चरित्र से ही जाना जा सकता है, लेकिन बाकी किस जाति के थे यह कहने के लिए पर्याप्त सूचनाएं उपलब्ध नहीं है। कारय्खल माता क्षत्रिय स्त्री थीं, नारायणत्तुभ्रांतन इलयन जाति के थे, अकवूर चात्तन वैश्य, वडुतल नायर शूद्र और उप्पुकूट्टन मुसलमान थे, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। लेकिन इसके लिए पर्याप्त प्रमाण न होने से इस संबंध में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

इसी प्रकार वररुचि के चरित्र के संबंध में भी कुछ शंकाएं उठती हैं। मलयालम के "नडप्पुल काव्यम्", "पेरल्पेरु" आदि के कर्ता वररुचि नहीं थे तथा उन्होंने जो सूत्र और वार्तिक रचे थे उन्हीं को वाक्य कहे जाने से इस प्रकार की भ्रांत धारणा चल पड़ी है, ऐसा भी कुछ लोग कहते हैं। भाषाविद इस मामले से अनभिज्ञ हैं, ऐसा ही लगता है।

फिर वररुचि ने उस परयी लड़की से विवाह किया था या नहीं, नहीं किया था तो वैश्वम की पूजा का आग्रह उन्होंने क्यों किया, अविवाहित लोग वैश्वम करते हैं या नहीं, यदि उनका पहले विवाह हो चुका था तो परदेश के ब्राह्मणों में दूसरे विवाह का चलन था या नहीं, इस प्रकार के अनेक प्रश्न उनके संबंध में भी उठते हैं। इन सबके बारे में जानकारी रखनेवाले विद्वान अपना मंतव्य स्पष्ट करें तो निश्चय ही बड़ा उपकार होगा, क्योंकि उससे उपर्युक्त प्रश्नों पर काफी प्रकाश पड़ेगा।

2 Comments:

L.Goswami said...

लम्बी पोस्ट थी ..पर कथाएं रोचक थी.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अद्भुत! इतनी दिलचस्प कथाएं पढ़ाने और हमारा ज्ञान बढ़ाने के लिए आभार. पाक्कनार के बारे में पढ़ते हुए हमें लगातार रैदास याद आते रहे.

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